विशेष: लोकनाट्य और लोकनृत्य: भारत की सांस्कृतिक पहचान


स्टोरी हाइलाइट्स

लोकनाट्य और लोकनृत्य: भारत की सांस्कृतिक पहचान, Traditional Folk Dances of India from Different States | लोकनाट्य और लोकनृत्य

लोकनाट्य और लोकनृत्य: भारत की सांस्कृतिक पहचान.... Traditional Folk Dances of India from Different States,Traditional Folk Dances of India,Folk And Tribal Dances Of India, Traditional Folk Dances of India, Dancing In Sync With The Tribal And Folk Dances In India लोक-जीवन में प्रचलित कुछ लोकनृत्यों को भी भ्रमवश कुछ लोगों ने लोकनाटय ही माना है, किन्तु दोनों में अन्तर है। इस स्थल पर इन दोनों के अन्तर को समझना आवश्यक होगा। उल्लास की अवस्था में मनुष्य का मन-मयूर हर्ष-विभोर होकर अपने आनन्द की सहज अभिव्यक्ति के लिए जो भाव-भंगिमा और अंग-संचालन प्रदर्शित करता है, उसे हम नृत्य कहते हैं। इसकी परम्परा बड़ी पुरानी है। नृत्य अत्यन्त आदिम काल से ही मनुष्य के उल्लास का निर्देशक रहा है। बहुत काल बाद मनुष्य के इन अनियंत्रित भावनाओं को सीमा में बांधा गया और एक कला का रूप प्रदान किया गया, जिससे इसे नृत्यकला की संज्ञा दी गयी किन्तु जो लोग शास्त्रीय पद्धति नहीं जानते वे भी विभिन्न भाव-भंगिमाओं एवं शारीरिक मुद्राओं से अपना मन-बहलाव करते रहते हैं। लोकं में प्रचलित इन्हीं भाव-भंगिमाओं एवं शारीरिक चेप्टाओं को लोकनृत्य कहते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य सीताराम चतुर्वेदी का मत अधिक समीचीन है उनका कहना है- "होली या अन्य पर्वों के अवसर पर, फसल कटने के समय, विशेष आयोजनों पर,देवपूजा आदि उत्सवों पर, विशेष समारोहों की घड़ी उपस्थित होने पर गाँव के लोग नृत्य आदि करके अपने मन का जो उल्लास प्रकट करते हैं, उसे लोकनृत्य कहते हैं।" डॉ० सत्येन्द्र जी ने लोकनृत्य के विषय में मत प्रकट करते हुए लिखा है कि लोकनृत्य का जन्म तीन वासनाओं की प्रक्रियाओं से हुआ है- आकर्षक को उपलब्ध कराने की चेष्टा से, अनाकर्षक से बचने की चेष्टा से तथा इन चेष्टाओं के लिए टोने के रूप में प्रत्येक नृत्य में किसी न किसी प्रकार के टोना संकेत से। मेघ वर्षा के लिए नृत्य किये जाते हैं। अतिवर्षा हो तो उसे रोकने के लिए भी नृत्य विधान रहता है। देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए नृत्य होते हैं। देवता का शरीर में आहवान करने के लिए नृत्य होते हैं। फसल अच्छी हो इसलिए नृत्य होते हैं। टोने के नृत्य के साथ ही कोई न कोई टोटका या अनुष्ठान भी लगा रहता है। विवाह के अवसर पर भी आनुष्ठानिक नृत्य का विधान रहता है। शास्त्रीय नृत्य का मूल लोक-नृत्य में रहता है लोकनृत्य की उद्यमता को अनुशासित करके और उसे ऐसे सिद्धान्तों में बाँधकर प्रस्तुत किया जाता है, जो उस आवेग को अभिप्राय की दृष्टि से सौन्दर्य उपलब्धि के एक स्तर पर दृढ़ कर देते हैं। लोकनृत्य किसी कृत्रिम सिद्धान्त की सीमाएँ नहीं स्वीकार करता। लोकनृत्यों का विषय जीवनचक्र ही होता है। यौन संकेत, कृषि तथा संततिवृद्धि, भूत-प्रेत निवारण, जादू-टोना, ऋतु आहवान, विवाह, जन्म-मृत्यु ये सभी किसी न किसी रूप में संकेत मुद्राओं अथवा प्रतीक अभिप्रायों से नृत्यों द्वारा प्रकट होते रहते हैं। साधारणतः लोकनृत्य सामूहिक होते हैं, पर व्यक्तिनिष्ठ भी हो सकते हैं। जीवन और प्रकृति से घनिष्ठतः सम्बन्धित होने के कारण लोकनृत्यों का रूप किसी वर्ग के अपने व्यवसाय के अनुकूल हो जाता है। कृषकों का नृत्य पशुपालकों से भिन्न हो जाता है और अहेरियों का कुछ और ही होगा। लोकगीत जहाँ व्यक्ति विशेष के द्वारा भावात्मक क्षण में गुनगुनाहट के रूप में उद्भूत होकर कालान्तर में अपनी लोकप्रियता के कारण सामाजिक स्वरूप प्रकट करके निर्मित होता है, वहीं लोकनृत्य पर व्यक्ति की छाप न होकर सम्पूर्ण समाज की छाप रहती है। स्पष्ट है लोकनृत्य व्यक्ति की देन न होकर समाज की देन है, क्योंकि अधिकतर ये सामूहिक ही होते हैं। प्रायः दो या दो से अधिक लोग ही नृत्य करते और समाज के लिए ही करते हैं। लोक--जीवन में प्रत्येक पर्व, समारोह और नाना 1 संस्कारों पर नृत्य होना अनिवार्य होता है। जैसे-जैसे नृत्य अपनी आदिम अवस्था से निकलकर आज के सुसंस्कृत समाज का श्रृंगार बनने लगा, वैसे-वैसे उसके साथ गीत, नाटक आदि भी जुड़ने लगे और व्यवस्थित नृत्य नाट्य तथा गीतिनाट्य का भी प्रादुर्भाव होने लगा, फिर भी नृत्य नाट्य से भिन्न है। नाट्य रसाश्रित है, नृत्य भावाश्रित- इसलिए इन दोनों में विषय भेद है। नृत्य शब्द की व्युत्पत्ति नृत् धातु से हुई है, जिसका अर्थ है गात्र विक्षेप । जिसका अभिप्राय है आंगिक अभिनय की बहुलता, जबकि नाट्य में चारों तरह के अभिनय पाये जाते हैं। साथ ही नृत्य करने वालों को नर्तक या नर्तकी कहते हैं. नट या नटी नहीं, नृत्य केवल देखने भर की चीज है, वहाँ श्रवणीय कुछ नहीं होता, कथोपकथन का वहाँ अभाव रहता है, इसलिए नाट्य-नृत्य से भिन्न वस्तु है। जब लोकमानस अपने हर्षोटगा को नृत्य और गीत के माध्यम से व्यक्त करने में प्रवीण हो गया, तब नृत्य और गीत के साथ नाट्य की कल्पना साकार हुई। नाट्य कभी भी स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं हुआ। जब मनुष्य को अपने वीर पुरुषों एवं चमत्कारिक लोगों के क्रिया-कलापों के अनुकरण की आवश्यकता महसूस हुई, तो उनकी चारित्रिक विशेषताओं पर गीत रचकर उनके साथ उपयुक्त नृत्य मुद्रायें जोड़ दी गयीं। ऐसे नृत्य-नाट्य सामाजिक रूप से होते थे, जिनमें कथात्मक गीत प्रधान तथा नृत्य-संचालन गौड़ होता था। प्रस्तुत नृत्यों के विकास के इसी स्तर पर ही गीति-नाट्यों की परम्परा प्रस्फुटित हुई, जिनमें स्त्री-पुरुष पारस्परिक गीत-संवादों में प्रवृत्त होते थे स्त्रियों गीतों में प्रश्न करती थीं और पुरुष उनका गीतों में ही जवाब देते थे। ये नृत्य- नाट्य बहुघा श्रृंगारिक पृष्ठभूमि पर ही आधारित रहते थे। इन गीत संवादों में यद्यपि गीतों की ही प्रधानता रहती थी, परन्तु नृत्य मुद्राओं का भी विविध अनौपचारिक अंग भंगिमाओं में प्रस्फुटन होता था। मानवीय विकास के सैकड़ों वर्ष तक इसी तरह नृत्य-गीत आदि विकसित होते रहे और उनके नाना रूप लोकजीवन में प्रसारित होते रहे। मध्यकाल में सूर और तुलसी के वरेण्य ग्रन्थ क्रमशः सूरसागर और रामचरित मानस के प्रभाव से रामलीला और रासलीला जैसी लोकनृत्य नाट्य की शैलियाँ इसी श्रृंखला की कड़ी के रूप में हैं। मुस्लिम संस्कृति के प्रभाव के कारण जब नाट्य कला पर धार्मिक निषेध पड़ गया, तो नृत्य-नाट्य, गीति-नाट्य और लोक-नृत्य उत्तर भारत के कुछ छोटी जातियों में ही सीमित रह गया। भोजपुरी क्षेत्र में ऐसी बहुत सी छोटी जातियाँ हैं, जिनके अपने लोकनृत्य हैं। उन लोकनृत्यों में कहीं तो गीतों की प्रधानता है, कहीं वार्ता की प्रधानता है, कहीं भाव-प्रदर्शन की प्रधानता है और कहीं स्वांग धरने की प्रधानता है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि गीत-नाट्य, नृत्य-नाट्य और लोकनृत्य ये सभी एक ही वस्तु के पर्याय हैं। लोकनाट्य गीत, नृत्य और अभिनय का मिला-जुला रूप होता है। किसी लोकनाट्य में गीत की प्रधानता हो सकती है, किसी में नृत्य की और किसी में अभिनय की। लोकनाट्यों में अधिकांशतः नृत्यों की प्रधानता होती है, इसलिए इन्हें कहीं-कहीं नाच भी कहते हैं। Latest Hindi News के लिए जुड़े रहिये News Puran से.