भगवान का भोजन अहंकार
-दिनेश मालवीय
भगवान् के भक्त उन्हें विविध प्रकार के व्यंजन और अनेकानेक वस्तुएं अर्पित करते हैं. गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि प्रेम और भाव के साथ अर्पित की जाने वाली वस्तुओं को मैं स्वयं ग्रहण करता हूँ. वैसे पूरे विश्व का भरणपोषण करने वाले भगवान को किसी भी चीज की ज़रूरत नहीं है. वह तो सभी की जरूरत पूरी करते हैं. उन्हें भोजन की कोई आवश्यकता नहीं होती.
भगवान् का सबसे प्रिय भोजन अहंकार है. वैसे तो वह विश्व में किसीका भी अहंकार सहन नहीं करते, लेकिन अपने प्रिय भक्तों के अहंकार को तो उसका अंकुरण होते ही नष्ट करने में देर नहीं लगाते.
इस भाव को समझाने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक कथाएँ आती हैं. भगवान श्रीकृष्ण ने अपने कितने ही प्रिय लोगों के अहंकार का नाश कर उनके कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया. इनमें अर्जुन, भीमसेन, पत्नी सत्यभामा, विष्णुजी के वाहन गरुण और उनके सबसे अचूक अस्त्र सुदर्शन चक्र प्रमुख रूप से शामिल हैं. इन लोगों के गर्व का हरण उन्होंने हनुमानजी के हाथों करवाया. उन्होंने जब भी देखा कि उनके किसी प्रिय की बातों और व्यवहार में घमंड का अंश आ गया है, तब ही उन्होंने उसे तत्काल नष्ट कर दिया.
एक बार अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या पर बहुत गर्व हो गया. वह ऐसा मानने लगा कि उससे पहले उस जैसा कोई धनुर्धर न पहले कभी हुआ है न है और न भविष्य में कभी होगा. भगवान श्रीकृष्ण उसके प्रिय सखा थे. उन्होंने तत्काल हनुमानजी को भेजकर उसका गर्व हरण करवा दिया. अर्जुन ने हनुमानजी से कहा कि भगवान श्रीराम को पत्थरों का पुल बनाने की क्या जरूरत थी. वह इतने बड़े धनुर्धर थे तो अपने वाणों का पुल क्यों नहीं बना लिया? उनकी जगह मैं होता तो अपने वाणों से पुल बना देता. हनुमानजी ने कहा कि वानर सेना बहुत विशाल थी और वाणों का पुल उसका वजन नहीं सह पाता. अर्जुन ने कहा कि देखो मैं अपने वाणों से पुल बनाता हूँ, जो किसी भी वजन से नहीं टूट सकता. उसने वाणों का पुल बनाया. हनुमानजी ने छलांग लगाईं और उस पर पुल पर उतरे. पुल कच्चे तिनकों के ढाँचे की तरह तरह टूट गया. इसके साथ ही अर्जुन का गर्व भी टूट गया.
महाबली भीम को भी अपने बल पर बहुत घमंड हो गया था. भगवान ने योजना बनाकर उसे तोडा. उन्होंने द्रोपदी के मन में गंधमादन पर्वत से दिव्य सुगंध वाला कमल पुष्प प्राप्त करने की लालसा जगा दी. उसने भीमसेन से यह पुष्प लाने को कहा. वह निकल पड़ा. रास्ते में हनुमानजी लेटे हुए थे. उसने उनसे कहा कि वानर मुझे रास्ता दो. वह बोले कि भाई मैं बहुत बूढा हूँ, क्यों मुझे कष्ट देते हो. मुझे लांघकर निकल जाओ. भीमसेन ने कहा कि यह मर्यादा के विरुद्ध है. हनुमानजी ने कहा कि तुम ही मेरी पूँछ को हटाकर निकल जाओ. अपना सारा बल लगाकर भी भीमसेन उनकी पूँछ को तिल भर भी नहीं हिला सका. उसने विनम्र होकर हनुमानजी से उनका वास्तविक परिचय पूछा. हनुमानजी ने उसे अपना परिचय देकर उसके आग्रह पर अपना विराट स्वरूप दिखाया. भीमसेन का गर्व इस प्रकार टूटा.
श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर बहुत अभिमान था. एक दिन श्रीकृष्ण उनके साथ सिंहासन पर बैठे थे. पास ही गरुण और सुदर्शन चक्र भी उपस्थित थे. सत्यभामा ने पूछा कि भगवान आप त्रेतायुग में श्रीराम के रूप में अवतरित हुए थे. आपकी पत्नी सीता क्या मुझे अधिक सुंदर थीं? इतने में ही गरुड़ ने पूछा कि क्या कोई मुझसे तेज गति से उड़ सकता है? सुदर्शन चक्र भी कहाँ पीछे रहने वाला था. उसने कहा कि मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजय दिलवाई है.
भगवान् ने उनके भीतर अंकुरित अहंकार के बीज को तुरंत समाप्त करने का निर्णय लिया. इस तरह के कार्य वह अक्सर हनुमानजी से ही करवाते थे. उन्होंने हनुमानजी को याद किया. वह उसी क्षण द्वारिका आ गये. इधर भगवान ने सत्यभामा से कहा कि वह सीता के रूप में सज्जित हो जाएँ. वह स्वयं राम के रूप में आ गये. भगवान् ने कहा कि हनुमानजी आये हैं, जाओ हनुमानजी को लिवा लाओ. सुदर्शन चक्र को आदेश दिया कि मेरी आज्ञा के बिना किसीको राजमहल में न आने देना.
गरुड़ ने हनुमानजी के पास जाकर कहा कि आप बहुत बूढ़े हैं. मेरी पीठ पर बैठ जाएँ. मेरे जैसी गति किसीकी नहीं है. आपको क्षणभर में पहुँचा दूँगा. हनुमानजी ने कहा कि रहने दीजिये, मैं अपनी गति से चला जाऊँगा. गरुड़ लौट आये. उन्होंने देखा कि हनुमानजी वहाँ पहले से ही विराजमान हैं. उन्हें बहुत लज्जा हुई कि वह उनसे पहले ही पहुँच गये. उनका सबसे अधिक गतिमान होने का घमंड टूट गया. इधर सुदर्शन चक्र महाराज का हाल जान लीजिये. उसने हनुमानजी को द्वार में प्रवेश से रोका. हनुमानजी ने उसे अपने मुँह में बार लिया. भगवान के सामने उसे अपने मुँह से निकाला. उसका भी घमंड चूर-चूर हो गया.
भगवान् श्रीराम के रूप में बैठे थे और सत्यभामा सीताजी के रूप में. हनुमानजी ने भगवान से पूछा कि आपने यह किस दासी को अपने साथ सिंहासन पर बैठा रखा है? प्रकारांतर से उन्होंने यह कहा कि उनकी सुन्दरता सीताजी की सुन्दरता के सामने बहुत तुच्छ है. इस प्रकार उनका भी बहुत सुंदर होने का अभिमान टूट गया.
इन सारी घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि अहंकार नहीं करना चाहिए. भगवान को यदि कुछ अर्पित करना है, तो अपना अहंकार अर्पित कीजिए.