भारतीय इतिहास का विकृतिकरण
भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने की प्रक्रिया में पाश्चात्य विद्वानों ने इतिहास को इतना बदल या बिगाड़ दिया कि वह अपने मूल रूप को ही खो बैठा। इसके लिए जहाँ कम्पनी सरकार का राजनीतिक स्वार्थ बहुत अंशों तक उत्तरदायी रहा, वहीं भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने के प्रारम्भिक दौर के पाश्चात्य लेखकों की शिक्षा-दीक्षा,रहन-सहन, खान-पान आदि का भारतीय परिवेश से एकदम भिन्न होना भी एक प्रमुख कारण रहा। उनके मन और मस्तिष्क पर अपने-अपने देश की मान्यताओं, धर्म की आस्थाओं और समाज की भावनाओं का प्रभाव पूरी तरह से छाया हुआ था। उनकी सोच एक निश्चित दिशा लिए हुए थी, जो कि भारतीय जीवन की मान्यताओं, भावनाओं, आस्थाओं और विश्वासों से एकदम अलग थी। व्यक्ति का लेखन-कार्य उसकेविचारों का मूर्तरूप होता है। अतः भारतीय इतिहास का लेखन करते समय पाश्चात्य इतिहास लेखकों/विद्वानों की मान्यताएँ, भावनाएँ और आस्थाएँ उनके लेखन में पूर्णतः प्रतिबिम्बित हुई हैं।
पाश्चात्य विद्वानों को उनकी राजनीतिक दृष्टि से विजयी जाति के दर्प ने, सामाजिक दृष्टि से श्रेष्ठता की सोच ने, धार्मिक दृष्टि से ईसाइयत के सिद्धान्तों के समर्थन ने और सभ्यता तथा संस्कृति की दृष्टि से उच्चता के गर्व ने एक क्षण को भी अपनी मान्यताओं तथा भावनाओं से हटकर यह सोचने की स्थिति में नहीं आने दिया कि वे जिस देश, समाज औरसभ्यता का इतिहास लिखने जा रहे हैं, वह उनसे एकदम भिन्न है। उसकी मान्यताएँ और भावनाएँ, उसके विचार और दर्शन, उनकी आस्थाएँ और विश्वास तथा उसके तौर-तरीके, उनके अपने देशों से मात्र भिन्न ही नहीं, कोसों-कोसों दूर भी हैं।
इस दृष्टि से यह भी उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य जगत सेआए सभी विद्वान ईसाई मत के अनुयायी थे। अपनी धार्मिक मान्यताओं और विश्वासोंतथा अपने देश और समाज के परिवेश के अनुसार हर बात को सोचना और तदनुसार लिखना उनकी अनिवार्यता थी। ईसाई धर्म की इस मान्यता के होते हुए कि ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण ईसा से 4004 वर्ष पूर्वकिया था, उनके लिए यह विश्वास कर पाना कि भारतवर्ष का इतिहास लाखांे-लाखों वर्ष प्राचीन होसकता है, कठिन था, उनके पूर्वज ईसा पूर्व के वर्षोंमें जंगलों में पेड़ों की छाल पहनकर रहते थे तो वे कैसे मान सकते थे कि भारत में लाखों-लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य अत्यन्त विकसित स्थिति में रहता था ? वे मांसाहारी थे, अतः उनके लिए वह मान लेना कि आदिमानव मांसाहारी ही रहा होगा, स्वाभाविक ही था। इस स्थिति में वे यह कैसे मान सकते थे कि प्रारम्भिक मानव निरामिषभोजी रहा होगा ? कहने का भाव है कि भारतीय इतिहास की हर घटना, हर तथ्य और हर कथ्य को वे अपनी ही विचार-कसौटी पर कसकर उसके पक्ष में और विपक्ष में निर्णय लेने के लिए प्रतिबद्ध थे।
वस्तुतः पाश्चात्य विद्वानों का मानसिक क्षितिज एक विशिष्ट प्रकार के सांचे में ढला हुआ था, जिसके फलस्वरूप उनकी समस्त सोच और शोध का दायरा एकसंकीर्ण सीमा में आबद्ध हो गया था। परिणामतः उनके चिन्तन की दिशा और कल्पना की उड़ान उस दायरे से आगे बढ़ ही नहीं सकी और वे लोग एक प्रकार की मानसिक जड़ता से ग्रस्त हो गए। इसीलिए उनका शोध कार्य विविधता पूर्ण होते हुए भी अपने मूल में संकुचित और विकृत रहा। फलतः उन्होंने भारत के ऐतिहासिक कथ्यों को अमान्य करके उसके इतिहास-लेखन के क्षेत्र के चारों ओर अपनी-अपनी मान्यताओं, भावनाओं और आस्थाओं के साथ-साथ अपने निष्कर्षों का एक ऐसा चक्रब्यूह बना दिया कि उससे निकल पाना आगे आने वाले विद्वानों के लिए संभव ही नहीं हो सका, जो उसमें एक बार फंसावह अभिमन्यु की तरह फंसकर ही रह गया। अधिकांश भारतीय इतिहासकार, पुरातत्त्ववेत्ता, भाषाविद्, साहित्यकार, चिन्तक और विवेचक भी इसी के शिकार हो गए। जबकि यह एक वास्तविकता है कि भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखते समय पाश्चात्य लेखकों ने पुष्ट से पुष्ट भारतीय तथ्यों कोतो अपने बेबुनियाद तर्कों द्वारा काटा है किन्तु अपनी और अपनों के द्वारा कही गई हर अपुष्ट से अपुष्ट, अनर्गल से अनर्गल और अस्वाभाविक से अस्वाभाविक बात को भी सही सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया है। इसके लिए उन्होंने विज्ञानवाद, विकासवाद आदि न जाने कितने मिथ्या सिद्धान्तों और वादों की दुहाई दी है। इसके परिणामस्वरूप भारत के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति में जो बिगाड़ पैदा हुआ, उसकी उन्होंने रत्ती भर भी चिन्ता नहीं की।
भारत के प्राचीन विद्वानों को कालगणना-ज्ञान से अनभिज्ञ मानकर
ज्ञान से अनभिज्ञमानकर भारत के प्राचीन विद्वानों को कालगणना-ज्ञान से अनभिज्ञमानकर भारत के प्राचीन विद्वानों को कालगणना-ज्ञान से अनभिज्ञमानकर पाश्चात्य इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास की प्राचीन तिथियों का निर्धारण करते समय यह बात बार-बार दुहराई है कि प्राचीन काल में भारतीय विद्वानों के पास तिथिक्रम निर्धारित करने की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। कई पाश्चात्य विद्वानों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि प्राचीन काल में भारतीयों का इतिहास-ज्ञान ही ‘शून्य‘ था। उन्हें तिथिक्रम का व्यवस्थित हिसाब रखना आता ही नहीं था। इसीलिए उन्हें सिकन्दर के भारत पर आक्रमण से पूर्व की विभिन्न घटनाओं के लिए भारतीय स्रोतों के आधार पर बनने वाली तिथियों को नकारना पड़ा किन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं है। कारण ऐसा तो उन्होंने जानबूझकर किया था क्योंकि, उन्हें अपनी काल्पनिक काल-गणना को मान्यता जो दिलानी थी।
यदि भारत के प्राचीन विद्वान इतिहास-ज्ञान से शून्य होते तो प्राचीन काल से सम्बंधित जो ताम्रपत्र या शिलालेख आज मिलते हैं, वे तैयार ही नहीं कराए जाते। ऐसे अभिलेखों की उपस्थिति में भारत के प्राचीन विद्वानों पर पाश्चात्य विद्वानों का कालगणना-ज्ञानया तिथिक्रम की गणना से अनभिज्ञ होने के कारण उसका व्यवस्थित हिसाब न रख पाने का दोषारोपण बड़ा ही हास्यस्पद लगता है। विशेषकर इसलिए भी कि भारत में तो कालमान का एक शास्त्र ही पृथक सेहैं, जिसमें एक सैकिंड के 30375वें भाग से कालगणना की व्यवस्था है। नक्षत्रों की गतियों के आधार पर निर्धारित भारतीय कालमान में परिवर्तन और अन्तर की बहुत ही कम संभावना रहती है। विभिन्न प्राचीनग्रन्थों यथा- अथर्ववेद, विभिन्न पुराण, श्रीमद्भागवत, महाभारत आदि में काल-विभाजन और उसके गणनाक्रम पर बड़े विस्तार से विचार प्रकट किए गए हैं। कुछ के उदाहरण इस प्रकार हैं –
श्रीमद्भागवत– इसके 3.11.3 से 3.11.14 तक के श्लोकों में कालगणना पर विचार किया गया है, जिसके अनुसार भारतीय कालगणना में सबसे छोटी इकाई ‘परमाणु‘ है। सूर्य की रश्मि परमाणु के भेदन में जितना समय लेती है, उसका नाम परमाणु है। परमाणु काल से आगे का काल-विभाजन इस प्रकार है – 2 परमाणु = 1 अणु, 3 अणु = 1 त्रसरेणु, 3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि, 100 त्रुटि = 1 वेध, 3 वेध = 1 लव, 3 लव = 1 निमेष, 3 निमेष = 1 क्षण (एक क्षणमें 1.6 सेकेंड अथवा 48600 परमाणु होते हैं), 5 क्षण = 1 काष्ठा, 15 काष्ठा = 1 लघु, 15 लघु = 1 नाड़िका (दण्ड), 2 नाड़िका = 1 मुहूर्त, 3 मुहूर्त = 1 प्रहर, 8 प्रहर = दिन-रात
इसी प्रकार से दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि का ज्ञान भी उस समय पूरी तरह से था।
महाभारत– इसके वन पर्व के 188वें अध्याय के 67वें श्लोक में सृष्टि-निर्माण, सृष्टि-प्रलय, युगों की वर्ष संख्या अर्थात कालगणना के संदर्भ में विचार किया गया है। इसमें लिखा है कि एक कल्प या एक हजार चतुर्युगी की समाप्ति पर आने वाले कलियुग के अन्त में सात सूर्य एक साथ उदित हो जाते हैं और तब ऊष्मा इतनी बढ़ जाती है कि पृथ्वी का सब जल सूख जाता है, आदि-आदि।
विभिन्न पुराण – पौराणिक कालगणना काल की भाँति अनन्त है। यह बहुत ही व्यापक है। इसके अनुसार कालगणना को दिन, रात, मास, वर्ष, युग, चतुर्युग, मन्वन्तर, कल्प, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की आयु आदि में विभाजित किया गया है। यही नहीं, इसमें मानव के दिन, मास आदि देवताओं के दिन, मास आदि तथा ब्रह्मा के दिन, मास आदि से भिन्न बताए गए हैं। एक कल्प में एक हजार चतुर्युगी होती हैं। एक हजार चतुर्युगियों में 14 मन्वन्तर, यथा- (1) स्वायंभुव, (2) स्वारोचिष, (3) उत्तम【औत्तमि】 (4) तामस (5) रैवत (6) चाक्षुष (7) वैवस्वत (8) सार्वणिक【सावर्णि】 (9) दक्षसावर्णिक (10) ब्रह्मसावर्णिक (11) धर्मसावर्णिक (12) रुद्रसावर्णिक (13) देवसावर्णिक (14) इन्द्रसावर्णिक होते हैं। हर मन्वन्तर में 71 चतुर्युगी होती हैं। एक चतुर्युगी (सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) में 12 हजार दिव्य या देव वर्ष होते हैं। दिव्य वर्षों के सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत के 3.11.18 में ‘दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः‘, मनुस्मृति के 1.71में ‘एतद् द्वादशसाहस्रं देवानां युगम्‘, सूर्य सिद्धान्त के 1.13 में ‘मनुष्यों का वर्ष देवताओं का दिन-रात होता है‘ उल्लेखनीय हैं। कई भारतीय विद्वान भी दिव्य या देव वर्ष की गणना को उचित नहीं ठहराते। वे युगों के वर्षों की गणना को सामान्य वर्ष गणना के रूप में लेते हैं किन्तु यह ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि यदि ऐसा होता तो आज कलि सम्वत 5109 (अब 5117) कैसे हो सकता था ? क्योंकि कलि की आयु तो 1200 वर्ष की ही बताई गईहै। निश्चित ही यह (1200) दिव्य या देव वर्ष हैं।
उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त सूर्य सिद्धान्त, मुहूर्त चिन्तामणि, शतपथ ब्राह्मण आदि में भी कालगणना पर विस्तार में विचार किया गया है। यही नहीं, पाराशर संहिता, कश्यप संहिता, भृगु संहिता, मय संहिता, पालकाप्य महापाठ, वायुपुराण, दिव्यावदान, समरांगण सूत्रधार, अर्थशास्त्र, (कौटिल्य), सुश्रुत और विष्णु धर्मोत्तरपुराण भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त भी अनेक ग्रन्थों में कालगणना के संदर्भ में चर्चा की गई है।
वस्तुतः भारत की कालगणना का विभाजन अत्यन्त प्राचीन काल में ही चालू हो चुका था। हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त ईंटों पर चित्रित चिन्हों के आधार पर रूस के विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि हड़प्पा सभ्यता के समय में भारतीय पंचांग-पद्धति पूर्ण विकसित रूप में थी।
जिस देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही कालगणना-ज्ञान के सम्बन्ध में इतने अधिक विस्तार में जाकर विचार किया जाता रहा हो, वहाँ के विद्वानों के लिए यह कह देना कि वे कालगणना-ज्ञान से अपरिचित रहे, से अधिक हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है ? पं. भगवद्दत्त का स्पष्ट रूप में मानना है कि भारत की युगगणना को सही रूप में न समझ सकने के कारण ही यूरोपीय विद्वानों द्वारा अनेक भूलें हुई हैं। (‘भारतवर्ष का बृहद् इतिहास‘, भाग 1, पृ.209) फलतः इतिहास में तिथियों के संदर्भ में अनेक विसंगतियाँ आ गई हैं।
माइथोलॉजी की कल्पना कर
आज के विद्वान प्राचीन काल की उन बातों को, जिनकी पुष्टि के लिए उन्हें पुरातात्त्विक आदि प्रमाण नहीं मिलते, मात्र ‘माइथोलॉजी‘ कहकर शान्त हो जाते हैं। वे उस बात की वास्तविकता को समझने के लिए उसकी गहराई में जाने का कष्ट नहीं करते। अंग्रेजी का ‘माइथोलॉजी‘ शब्द ‘मिथ‘ से बना है। मिथ का अर्थ है – जो घटना वास्तविक न हो अर्थात कल्पित या मनगढ़ंत ऐसा कथानक जिसमें लोकोत्तर व्यक्तियों, घटनाओं और कर्मों का सम्मिश्रण हो।
अंग्रेजों ने भारत की प्राचीन ज्ञान-राशि, जिसमें पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं, को ‘मिथ‘ कहा है अर्थात उनकी दृष्टि में इन ग्रन्थोंमें जो कुछ लिखा है, वह सब कुछ कल्पित है, जबकि अनेक भारतीय विद्वानों का मानना है कि वे इन ग्रन्थोंको सही ढंग से समझने में असमर्थ रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि उनका संस्कृत ज्ञान सतही था जबकि भारत का सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय संस्कृत में था और जिसे पढ़ने तथा समझने के लिए संस्कृत भाषा का उच्चस्तरीय ज्ञान अपेक्षित था। अधकचरे ज्ञान पर आधारित अध्ययन कभी भी पूर्णता की ओर नहीं ले जा सकता। वास्तव में तो पाश्चात्य विद्वानों ने ‘मिथ‘ के अन्तर्गत वह सभी भारतीय ज्ञान-राशि सम्मिलित कर दी, जिसे समझने में वे असमर्थ रहे। इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण ही पर्याप्त होगा –
भारत के प्राचीन इतिहास में जलप्लावन की एक घटना का वर्णन आता है। इसमें बताया गया है कि इस जल प्रलय के समय ‘मनु‘ ने अगली सृष्टि के निर्माणके लिए ऋषियों सहित धान्य, ओषधि आदि आवश्यक सामग्री एक नाव में रखकर उसे एक ऊँचे स्थान परले जाकर प्रलय में नष्ट होने से बचा लिया था। यह प्रसंग बहुत कुछ इसी रूप में मिस्र, यूनान, दक्षिण-अमेरिका के कुछ देशों के प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। अन्तर मात्र यह है कि भारत का ‘मनु‘ मिस्रमें ‘मेनस‘ और यूनान में ‘नूह‘ हो गया किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा इस ऐतिहासिक ‘मनु‘ को ‘मिथ‘ बना दिया गया। ऐसा कर देना उचित नहीं रहा।
इसी प्रकार के ‘मिथों‘ के कारण भी भारतीय इतिहासके अनेक पृष्ठ आज खुलकर सामने आने से तो रह ही गए, साथ ही उसमें अनेक विकृतियाँ भी आ गईं।
विदेशी-साहित्य को अनावश्यक मान्यता देकर
पाश्चात्य इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखते समय यूनान, चीन, अरब आदि देशों के साहित्यिक ग्रन्थों, यात्रा-विवरणों, जनश्रुतियों आदि का पर्याप्त सहयोग लिया है, इनमें से यहाँ यूनान देश के साहित्य आदि पर ही विचार किया जा रहा है, कारण सर विलियम जोन्स ने भारतीय इतिहास-लेखन की प्रेरणा देते समय जिन तीन मानदण्डों का निर्धारण किया था, वे मुख्यतः यूनानी साहित्य पर आधारित थे।
यूनान से समय-समय पर अनेक विद्वान भारत आते रहे हैं और उन्होंने भारत के संदर्भ में अपने-अपने ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा है किन्तु भारत के इतिहास को लिखते समय सर्वाधिक सहयोग मेगस्थनीज के ग्रन्थ से लिया गया है। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए मेगस्थनीज ने भारत और अपने समय के भारतीय समाज के बारे में अपने संस्मरण ‘इण्डिका‘ नामक एक ग्रन्थ में लिखे थे किन्तु उसके दो या तीन शताब्दी बाद ही हुए यूनानी लेखकों, यथा- स्ट्रेबो ;ैजतंइवद्ध और एरियन ;।ततपंदद्धको न तो ‘इण्डिका‘ और न ही भारत के संदर्भ में किन्हीं अन्य प्राचीन लेखकों द्वारा लिखी पुस्तकें ही सुलभ हो सकी थीं। उन्हें यदि कुछ मिला था तो वह विभिन्न लेखकों द्वारा लिखित वृत्तान्तों में उनके वे उद्धरण मात्र थे जो उन्हें भी पूर्व पुस्तकों के बचे हुए अंशों से ही सुलभ हो सके थे।
विभिन्न यूनानी लेखकों की पुस्तकों के वर्तमान में सुलभ विवरणों में से ऐसे कुछ विशेष उद्धरणों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनमें से कई को भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखते समय विभिन्न-विद्वानों द्वारा प्रयोग में लाया गया है किन्तु यूनानी विवरण चाहे भौगोलिक हो या जीव-जन्तुओं के, तत्कालीन निवासियों की कुछ विशेष जातियों के हों या कुछ विशिष्ट व्यक्तियों, स्थानों आदि, यथा- सिकन्दर, सेंड्रोकोट्टस, पाटलिपुत्र आदि के ब्योरों के, यूनानियों द्वारा लड़े गए युद्धों के वर्णन हों या अन्य, उन्हें पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि उनमें सत्यता है और वे गम्भीरतापूर्वक लिखे गए हैं। सभी वर्णन अविश्वसनीय लगते हैं किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है किजिन विद्वानों को भारतीय पुराणों के वर्णन अविश्वसनीय लगे, उन्हें वे वर्णन प्रामाणिक कैसे लगे ? अतः उनकी निष्पक्षता विचारणीय है।
यूनानी ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखनीय ब्योरे मैकक्रिण्डलेकी अंग्रेजी पुस्तक के हिन्दी अनुवाद ‘मेगस्थनीज का भारत विवरण‘ (अनुवादक-बाबू अवध बिहारीशरण) के आधार पर इस प्रकार हैं, यथा –
(क) भारत की लम्बाई-चौड़ाई – हर विद्वान की माप पृथक-पृथक हैं –
लम्बाई – मेगस्थनीज-16 हजार स्टेडिया, प्लिनी-22,800 स्टेडिया, डायोडोरस-28 हजार स्टेडिया,
डायाइसेकस-कहीं 20 हजार और कहीं 30 हजार स्टेडिया, टालमी 16,800 स्टेडिया आदि और चौड़ाई – मेगस्थनीज और ऐरेस्टनीज-16000 स्टेडिया, पैट्रोक्लीज-15,000 स्टेडिया, टीशियस – भारत एशिया के अवशिष्ट भाग से छोटा नहीं, ओनेसीक्राईटस- भारत संसार के तृतीयांश के तुल्य है आदि।
(ख) भारत के जीव-जन्तु
�* बन्दर कुत्तों से बड़े होते हैं, वे उजले रंग के होते हैं किन्तु मुँह काला होता है। वे बड़े सीधे होते हैं।
�हिन्द महासागर की व्हेल मछलियाँ बड़े-बड़े हाथियों से भी बड़ी होती हैं। �
हाथी बड़े विशाल होते हैं। इनका जन्म 16 से 18 महीने में होता है। माता इन्हें 6 माह तक दूध पिलाती है।
�अजगर, इतने बड़े होते हैं कि वे हरिण और सांड को सम्पूर्ण निगल जाते हैं। � * सोना खोदकर निकालने वाली चाटियाँ लोमड़ी के आकार की होती हैं।
(ग) भारत के तत्कालीन निवासियों के ब्योरे – यहाँ के मनुष्य अपने कानों में सोते हैं, मनुष्यों के मुख नहीं होते, मनुष्यों की नाक नहीं होती, मनुष्यों की एक ही आँख होती है, मनुष्यों के बड़े लम्बे पैर होते हैं, मनुष्यों के अंगूठे पीछे की ओर फिरेरहते हैं आदि।
(घ) युद्धों के वर्णन – एक ही युद्ध के वर्णन अलग-अलग यूनानी लेखकों द्वारा पृथक-पृथक रूप में किए गए हैं, यथा-
�* एरियन ने लिखा है कि ‘‘इस युद्ध में भारतीयों के 20,000 से कुछ न्यून पदाति और 300 अश्वारोही मरे तथा सिकन्दर के 80 पदाति, 10 अश्वारोही धनुर्धारी, 20 संरक्षक अश्वारोही और लगभग 200 दूसरे अश्वारोही गिरे एक अन्य यूनानी लेखक ने लिखा है कि ‘‘इस युद्ध में 12,000 से अधिक भारतीय मरे थे जबकि यूनानियों मेें से केवल 250 ही मरे थे।‘‘
एरियन ने पुरु के साथ हुए इस युद्ध के बारे में एक स्थान पर लिखा है कि ‘‘इसमें विजय किसी की भी नहीं हुई। सिकन्दर थक करविश्राम करने चला गया था। उसने पुरु को बुलाने के लिए अनेक आदमी भेजे थे। अन्त में ही पुरु सिकन्दर से उसके स्थान पर मिला था। (‘भारतवर्ष का बृहद् इतिहास‘, भाग-2,पृ. 317)
प्लूटार्क ने सिकन्दर के प्रमाण से लिखा है कि ‘‘यह युद्ध हाथोंहाथ हुआ था। दिन का तब आठवाँ घण्टा था जब वे सर्वथा पराजित हुए।‘‘ दूसरे शब्दों में युद्ध आठ घण्टे चला था। प्रश्न उठता है कि क्या विश्व विजयी 8 घण्टे के युद्ध में ही थक गया था ?
वीरेन्द्र कुमार गुप्त ‘विष्णुगुप्त चाणक्य‘ की भूमिका के पृष्ठ 11 पर बताते हैं कि- कहा जाता है कि पुरु युद्ध में पराजित हुआ था और बन्दी बनाकर सिकन्दर के समक्ष पेश किया गया था। लेकिन इस संदर्भ में भी यूनानी लेखकों केभिन्न-भिन्न मत हैं –
�* जस्टिन और प्लुटार्क के अनुसार पुरु बन्दी बना लिया गया था।
�* डायोडोरस का कहना है कि घायल पुरु सिकन्दर के कब्जे में आ गया था और उसने उपचार के लिए उसे भारतीयों को लौटा दिया था।
�* कर्टियस का मत है कि घायल पुरु की वीरता से प्रभावित होकर सिकन्दर ने सन्धि का प्रस्ताव रखा।
�* एरियन ने लिखा है कि घायल पुरु के साहस को देखकर सिकन्दर ने शान्ति दूत भेजा।
�* कुछ विद्वानों का मत है कि युद्ध अनिर्णीत रहा और पुरु के दबाव के सामने सिकन्दर ने सन्धि का मार्ग उचित समझा।
पुरु के संदर्भ में उक्त मत सिकन्दर के मेसीडोनिया से झेलम तक की यात्रा तक के इतिहास से मेल नहीं खाते। इससे पूर्व उसने कहीं भी ऐसी उदारतानहीं दिखाई थी। उसने तो अपने अनेक सहयोगियों को उनकी छोटी सी भूल से रुष्ट होकर तड़पा-तड़पा कर मारा था। इस दृष्टि से उसका योद्धा बेसस, उसकी अपनी धाय का भाई क्लीटोस, पर्मीनियन आदि उल्लेखनीय हैं। वह एक अत्यन्त ही क्रूर, नृशंस और अत्याचारी विजेता था। नगरों को जलाना, पराजितों को मौत के घाट उतारना, सैनिकों को रक्षा का वचन देकर धोखे से मरवा देना उसके स्वाभाविक कृत्य थे। ऐसा सिकन्दर पुरु के साथ अचानक ही इतना उदार कैसे बन गया कि जंजीरों में जकड़े पुरु को न केवल उसने छोड़ दिया वरन उसे बराबर बैठाकर राज्य वापस कर दिया, यह समझ में नहीं आता। ऐसा लगता है कि हारे हुए सिकन्दर का सम्मान और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए यूनानी लेखकों ने यह सारा वाक्जाल रचा है। वास्तव में पुरु की हस्थि सेना ने यूनानियों का जिस भयंकर रूप से संहार किया था, उससे सिकन्दर और उसके सैनिक आतंकित हो उठे। यूनानी सेना का ऐसा विनाश उसके अस्तित्व के लिए चुनौती था। अतः उसने बाध्य होकर सन्धि की होगी।
पुरु के साथ हुए सिकन्दर के युद्ध के यूनानी लेखकों ने जिस प्रकार के वर्णन किए हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि यूनानी लेखक अपने गुण गाने में ज्यादा विश्वास रखते थे और उसमें माहिर भी ज्यादा थे।
उक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि यूनानियों नेअपनी पुस्तकों में विवरण लिखने में अतिशयोक्ति से काम लिया है। हर बात को बढ़ा-चढ़ा करलिखा है। स्ट्रेबो, श्वानबेक आदि विदेशी विद्वानों ने तो कई स्थानों पर इस बात के संकेत दिएहैं कि मेगस्थनीज आदि प्राचीन यूनानी लेखकों के विवरण झूठे हैं, सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है और अतिरंजित हैं। ऐसे विवरणों को अपनाने के कारण भी भारत के इतिहास में विकृतियाँ आई हैं।
विदेशी पर्यटकों के विवरणों को प्रामाणिक समझकर
भारतीय संस्कृति की विशिष्टताओं से प्रभावित होकर, भारतीय साहित्य की श्रेष्ठताओं से मोहित होकर और भारत की प्राचीन कला, यथा- मन्दिरों, मूर्तियों, चित्रों आदि से आकर्षित होकर समय-समय पर भारत की यात्रा के लिए आने वाले विदेशी पर्यटकों के यात्रा वृतान्तों पर भारत के इतिहास के संदर्भ में आधुनिक विदेशी और देशी इतिहासकारों ने भारत में विभिन्न स्रोतों से सुलभ सामग्री की तुलना में अधिक विश्वास किया है। जबकि यह बात जगजाहिर है कि मध्य काल में जो-जो भी विदेशी पर्यटक यहाँ आते रहे हैं, वे अपने एक उद्देश्य विशेष को लेकर ही आते रहे हैं और अपनी यात्रा पर्यन्त वे उसी की पूर्ति में लगे भी रहे हैं। हाँ, इस दौरान भारतीय इतिहास औरपरम्पराओं के विषय में इधर-उधर से उन्हें जो कुछ भी मिला, उसे अपनी स्मृति में संजो लिया और यात्रा-विवरण लिखते समय स्थान-स्थान पर उसे उल्लिखित कर दिया है।
इन विदेशी यात्रियों के वर्णनों के संदर्भ में विदेशी विद्वान ए. कनिंघम का यह कथन उल्लेखनीय है-
“In this part of the pilgrim’s travels, the narativ e is frequetly imperfect and erroneous and we must, therefore, trust to our own sagacity, both to supply his omissions and to correct his mistakes.”
— (‘एनशिएन्ट ज्योग्रेफी ऑफ इण्डिया‘ (1924) पृ. 371 – पं. कोटावेंकटचलम कृत ‘क्रोनोलोजी ऑफ नेपाल हिस्ट्री रिकन्सट्रक्टेड‘ पृ. 20 पर उद्धत)
वैसे तो भारत-भ्रमण के लिए अनेक देशों से यात्री आते रहे हैं। फिर भी भारत के इतिहास को आधुनिक रूप से लिखते समय मुख्यतः यूनानी और चीनी-यात्रियों के यात्रा-विवरणों को अधिक प्रमुखता दी गई है। उनके सम्बन्ध में स्थिति इस प्रकार है-
यूनानी यात्री
यूनान देश से आने वालों में अधिकतर तो सिकन्दर केआक्रमण के समय उसकी फौज के साथ आए थे या बाद में भारतीय राजाओं के दरबार में राजदूत के रूप में नियुक्त होकर आए थे। इनमें से मेगस्थनीज और डेमाकस ही अधिक प्रसिद्ध रहे। मेगस्थनीज की मूल पुस्तक ‘इण्डिका‘ ही नहीं वरन उसके समकालीन अन्य इतिहासकारों की रचनाएँ भी काफी समय पूर्व ही नष्ट हो चुकी थीं। उनकी फटी-पुरानी पुस्तकों से और अन्य लेखकों की रचनाओं से लिए गए उद्धरणों और जनता की स्मृति में शेष कथनों को लेकर जर्मन विद्वान श्वानबेक द्वारा लिखित पुस्तक के अनुवाद में दिए गए ब्योरों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे किसी जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा गम्भीरता से लिखे गए हैं। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
�मेगस्थनीज ने एक स्थान पर कहा है कि भारत में लड़कियाँ सात वर्ष की आयु में विवाह और सन्तानोत्पत्ति के योग्य हो जाती हैं। (‘मेगस्थनीज का भारत विवरण‘, पृ. 153-154) मेगस्थनीज ने यह भी कहा है कि काकेशस के निवासी सबके सामने स्त्रियों से संगम करते हैं और अपने सम्बन्धियों का मांस खाते हैं।इन दोनों प्रथाओं का उल्लेख हेरोडोटस ने भी किया है। (‘मेगस्थनीज का भारत विवरण‘, पृ. 40)
आचार्य रामदेव ने अपने ग्रन्थ ‘भारतवर्ष का इतिहास‘ के तृतीय खण्ड के अध्याय 5 में मेगस्थनीज के लेखन के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओरध्यान दिलाया है। उनका कहना है कि मेगस्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में यूनानी राजदूत के रूप में भारत आया था अतः उसका परिचय आचार्य चाणक्य से अवश्य ही रहा होगा क्योंकि वे सम्राटचन्द्रगुप्त के गुरु और महामंत्री, दोनों ही थे। ऐतिहासिक दृष्टि से दोनों की समसामयिकता को देखतेहुए ऐसा सोच लेना भी स्वाभाविक ही है कि तत्कालीन भारतवर्ष के सम्बन्ध में इन दोनों विद्वानों ने जो कुछ भी लिखा होगा, उसके ब्योरों में समानता होगी किन्तु मेगस्थनीज के विवरण चाणक्य के ‘अर्थ शास्त्र‘ से भिन्न ही नहीं विपरीत भी है। यही नहीं, मेगस्थनीज के विवरणों में चाणक्य का नाम कहीं भी नहीं दिया गया है।
चीनी यात्री
भारत आने वाले चीनी यात्रियों की संख्या वैसे तो 100मानी जाती है किन्तु भारतीय इतिहास-लेखन में तीन, यथा- फाह्यान, ह्वेनसांग औरइत्सिंग का ही सहयोग प्रमुख रूप से लिया गया है। इनके यात्रा विवरणों के अनुवाद हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में सुलभ हैं। इन अनुवादों में ऐसे अनेक वर्णन मिलते हैं जो लेखकों के समय के भारत के इतिहास की दृष्टि से बड़े उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण हैं। आधुनिक रूप में भारत का इतिहास लिखने वालों ने इन तीनों यात्रियों द्वारा वर्णित अधिकांश बातों को सत्य मानकर उनके आधार पर भारत की विभिन्न ऐतिहासिकघटनाओं के विवरण लिखे हैं किन्तु उनके वर्णनों में सभी कुछ सही और सत्य हैं, ऐसा नहीं है। उनके वर्णनों में ऐसी भी बातें मिलती हैं, जो अविश्वसनीय लगती हैं। ऐसा लगता है कि वे सब असावधानीमें लिखी गई हैं। तीनों के विवरणों की स्थिति इस प्रकार है-
फाह्यान – यह भारत में जितने समय भी रहा, घूमता ही रहा। चीन लौटने पर इसने अपनी यात्रा के वर्णन लिपि-बद्ध कर दिए। श्री जगन्मोहन वर्मा द्वाराचीनी से हिन्दी में अनूदित पुस्तक में, जिसे नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया है, कई जगह पर लिखा मिलता है कि ‘‘यह सुनी हुई बात पर आधारित है‘‘ आखिर यह ‘सुनना‘ किस भाषा में हुआथा ? क्या स्थानीय भाषाओं का उसका ज्ञान इतना पुष्ट था कि सामान्य लोगों की बातों को उसने समझ लिया था ? किसी भी विदेशी के लिए इतनी जल्दी भारत जैसे बहुभाषी देश की विभिन्न भाषाओं कोज्ञान प्राप्त कर लेना एक असंभव कार्य था जबकि उसके द्वारा लिखे गए विवरणों में विभिन्न स्थानों के अलग-अलग लोगों की स्थिति का उल्लेख मिलता है। यदि ऐसा नहीं था तो उसने जो कुछ लिखा है क्या वह काल्पनिक नहीं है ? संभव है इसीलिए इन विवरणों के सम्बन्ध में कनिंघम को सन्देह हुआ है।
ह्वेनसांग – यह हर्षवर्धन के समय में भारत में बौद्ध धर्म के साहित्य का अध्ययन करने आया था और यहाँ 14 वर्ष तक रहा था। उसने भारत में दूर-दूर तक भ्रमण किया था। उसने भारत के बारे में चीनी भाषा में बहुत कुछ लिखा था। बील द्वारा किए गएउसके अंग्रेजी अनुवाद से ज्ञात होता है कि उसने अपनी भाषा में भारत के समस्त प्रान्तों की स्थिति, रीति-रिवाज और सभ्यता, व्यवहार, नगरों और नदियों की लम्बाई-चौड़ाई तथा अनेक महापुरुषों के सम्बन्ध में विचार प्रकट किए हैं लेकिन यहाँ भी वही प्रश्न उठता है कि उसने विभिन्न भारतीय भाषाओं का ज्ञान कब, कहाँ और कैसे पाया ? यह उल्लेख तो अवश्य मिलता है कि उसने नालन्दा विश्वविद्यालय में रहकर संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया था किन्तु सामान्य लोगों से उसका वार्तालाप संस्कृत में तो हुआ नहीं होगा, तबवह उनके रीति-रिवाजों के बारे में इतनी बातें कैसे जान पाया होगा ?
भारत के आधुनिक रूप में लिखित इतिहास में अनेक ब्योरे और निष्कर्ष ह्वेनसांग के वर्णनों को प्रमाणिक मानकर उनके आधार पर दिए गए हैं। इसके लेखों के बारे में कनिंघम का कहना है कि यह मानना होगा कि ह्वेनसांग के लेखों में बहुत सी बातें इधर-उधर की कही गई बातों के आधार पर कल्पित हैं। इसलिए वे गलत और असम्बद्ध हैं। अतः उसने जो कुछ लिखा है, उसे एकदम सत्य और प्रामाणिक मान लेना उचित नहीं है। इसीलिए कनिंघम ने यह सलाह दीहै कि इतिहास लिखते समय हमें उसमें उचित संशोधन करने होंगे। (पं. कोटावेंकटचलम कृत ‘क्रोनोलोजी ऑफ नेपाल हिस्ट्री रिकन्सट्रक्टेड‘, पृ. 20 पर उद्धृत)
इत्सिंग – इत्सिंग ने नालन्दा में 675 से 685 ई. तक रहकर लगभग दस वर्ष तक अध्ययन किया था। इस अवधि में उसने 400 ग्रन्थों का संकलन भी किया था। 685 ई. में उसने अपनी वापसी यात्रा शुरू की। मार्ग में रुकता हुआ वह 689 ई. के सातवें मास मेंकंग-फूं पहुँचा। इत्सिंग ने अपने यात्रा विवरण पर एक ग्रन्थ लिखा था, जिसे 692 ई. में ‘श्रीभोज‘ (सुमात्रा में पलम्बंग) से एक भिक्षुक के हाथ चीन भेज दिया था। जबकि वह स्वयं 695 ई. के ग्रीष्म काल में ही चीन वापस पहुँचा था।
अपने यात्रा-विवरण में उसने भी बहुत सी ऐसी बातें लिखी हैं जो इतिहास की कसौटी पर कसने पर सही नहीं लगतीं। इत्सिंग ने प्रसिद्ध विद्वान भर्तृहरि को अपने भारत पहुँचने से 40 वर्ष पूर्व हुआ माना है। जबकि ‘वाक्यपदीय‘ के लेखक भर्तृहरि काफी समय पहलेहुए हैं। इसी प्रकार उसके द्वारा उल्लिखित कई बौद्ध विद्वानों की तिथियों में भी अन्तर मिलता है। इन अन्तरों के संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इत्सिंग द्वारा 691-92 ई. में चीन भेजी गई सामग्री 280 वर्ष तक तो हस्तलिखित रूप में ही वहाँ पड़ी रही। 972 ई. तक वह मुद्रित नहीं हुई। फिर जो पुस्तक छपी उसमें और मूल सामग्री, जो इत्सिंग ने भेजी थी, में अन्तर रहा। (‘इत्सिंग की भारत यात्रा‘, अनुवादक सन्तराम बी. ए. पृ. ज्ञ-30) ऐसा भी कहा जाता है कि इत्सिंग ने स्वयं अपनी मूल प्रति में चीन पहुँचने पर संशोधन कर दिए थे। जो पुस्तक स्वयं में ही प्रामाणिक नहीं रही उसके विवरण भारत के इतिहास-लेखन के लिए कितने प्रामाणिक हो सकते हैं, यह विचारणीय है।
अनुवादों के प्रमाण पर संपादित
पाश्चात्य इतिहासकारों तथा अन्य विधाओं के विद्वानोंने भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखे जाने से पूर्व ही उसके संदर्भ में विभिन्न निष्कर्ष निकाल कर उन पर कार्रवाई करने के लिए यथावश्यक निर्णय कर लिए थे। बाद में तो उन्होंने पूर्व निर्धारित निष्कर्षों को सही सिद्ध करने के उद्देश्य से अधिकतर ऐसे विदेशियों द्वारा लिखित पुस्तकों केअंग्रेजी अनुवादों को अपने लेखन का आधार बनाया जिनसे उनके निष्कर्षों की पुष्टि होती हो। जहाँ तक विदेशी पुस्तकों के अनुवादों को अपने लेखन का आधार बनाने की बात है, वहाँ तक तो बात ठीक है किन्तु मुख्य प्रश्न तो यह है कि क्या वे अनुवाद सही हैं ? क्या वे लेखक के मूल भावों को ठीक प्रकार से अभिव्यक्त करने में समर्थ रहे हैं ? क्योंकि आज यह बड़ी मात्रा में देखने में आ रहा है कि अनुवादकों नेअनेक स्थानों पर मूल लेखकों की भावनाओं के साथ न्याय नहीं किया है। संभव है कि वे अनुवादक अंग्रेजोंकी तत्कालीन सत्ता के भारत के इतिहास को बदलने की योजना में सम्मिलित रहे हों और उन्होंने अनुवाद भी उसी दृष्टि से किया हो। अलबेरूनी के ‘भारत के इतिहास‘ के गुप्त सम्वत से सम्बन्धित अंश का डॉ. फ्लीट द्वारा तीन-तीन बार अनुवाद मांगना यही प्रमाणित करता है कि उसको वही अनुवाद चाहिए था जो उसकी इच्छाओं को व्यक्त करने वाला हो। इस संदर्भ में श्री के. टी. तेलंग का कहना था कि भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में अंग्रेजों ने पूर्व निर्धारित मतों को सही सिद्ध करने के लिए हर प्रकार के प्रयास करके किलिंग्बर्थ की भाषा में They dream what they desire and believe their own dreams – वे स्वैच्छिक स्वप्न ही देखते थे और उन्हीं पर विश्वास करते थे‘‘ को सिद्ध किया है।
भारत के इतिहास-लेखन में यूनानी, चीनी, अरबी, फारसी, संस्कृत, पाली, तिब्बती आदि भाषाओं में लिखी गई पुस्तकों के अंग्रेजी में हुए अनुवादों का बड़ी मात्रा में उपयोग किया गया है। उनमें से कुछ के उदाहरण देकर यहाँ स्थिति स्पष्ट की जा रही है।
यूनानी भाषा – इसके संदर्भ में पूर्व पृष्ठों में विचार किया जा चुका है।
चीनी भाषा – चीनी भाषा से अंग्रेजी भाषा में किए गए अनुवादों से जिस-जिस प्रकार की गड़बड़ियाँ हुईं, उसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं – एस. बील ने ह्वेनसांग की पुस्तक का अनुवाद करते हुए फुटनोट 33 का चीनी भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद इस प्रकार से किया है –
Lately, there was a king called An-Shu-fa-mo, who was distiguished for his learning and ingenuity (‘क्रोनोलोजी ऑफ नेपाल, हिस्ट्री रिकन्स्ट्रक्टेड‘, पृ. 28 पर उद्धृत)
बील के उक्त अनुवाद के आधार पर डॉ. बुहलर ने, जिसेभारत के साहित्यिक ग्रन्थ, ऐतिहासिक साक्ष्य, भाषायी प्रमाण आदि सब झूठे लगे हैं, अपने लालबुझक्कड़ी तर्कों के आधार पर अंशुवर्मन को 3000 कलि या 101 ई. पू. के स्थान पर ईसा की सातवीं शताब्दी में लाकर बिठा दिया। उक्त अनुवाद के संदर्भ में पं. कोटावेंकटचलनम का उक्त पुस्तक के पृष्ठ 29 पर कहना है –
“— When Heun – Tsang visited Nepal he found frequently on the lips of the people the memorable name ….’ he noted and recorded that there had been a great king of the name Amsuvarman and that he ….. but he never stated that Amsuvarman mentioned was the contemporary or was reigning at the time of his visit.”
In the first words of Beal’s translation of Heun-Tsang’s reference to Amsuvarman (or An-Shu-fa-mo) given in the footnote previously, lately there was a king called Amsuvarman. There is the implication that the ‘Amsuvarman was not the contemporary of Heun-Tsang…
यह गलती चीनी शब्द के अंग्रेजी अनुवाद ‘लेटली‘ (lately) के कारण हुई है। यदि लेटली की जगह फॉरमरली (formerly) होता तो यह गलती न होती। ‘फॉरमली‘ का अर्थ है – ‘इन फारमर टाइम्स‘ अर्थात पूर्व काल में या पहले, जबकि ‘लेटली‘ का अर्थ है – ‘हाल में‘। इन दोनों शब्दों के अर्थ में समय का अन्तराल स्वयं ही स्पष्ट हो जाता है।
‘चीनी यात्री फाह्यान का यात्रा-
विवरण’ के अनुवाद में श्रीजगन्मोहन वर्मा ने पुस्तक की भूमिका के पृष्ठ 3 पर लिखा है कि ‘‘इस अनुवाद में अंग्रेजी अनुवाद से बहुत अन्तर देख पड़ेगा, क्योंकि मैंने अनुवाद को चीनी भाषा के मूल के अनुसार ही, जहाँ तकहो सका है, करने की चेष्टा की है‘‘ अर्थात इन्हें अंग्रेजी का जो अनुवाद हुआ है, वह ठीक नहीं लगा। यदिउसमें गड़बड़ी नहीं होती तो वर्मा जी को ऐसा लिखने की आवश्यकता ही नहीं थी। उन्होंने पुस्तक के अन्दर एक दो नहीं, कई स्थानों पर शब्दों के अनुवाद का अन्तर तो बताया ही है, एक दो स्थानों पर ऐसे उल्लेख भी बताए हैं जो मूल लेख में थे ही नहीं और अनुवादक ने डाल दिए थे।
संस्कृत भाषा- यूनानी या चीनी भाषाओं से ही नहीं, संस्कृत से भीअंग्रेजी में अनुवाद करने में भारी भूलें होती रही हैं, यथा-
(1) संस्कृत से अंग्रेजी में किए गए अनुवाद की एक भूलका उल्लेख पं. भगवद्दत्त ने अपने ‘भारतवर्ष का बृहद इतिहास‘, भाग 2 (पृ. 316) में इसरूप में किया है-
अठारह शकों का काल – पुराणों में शकों का राज्यकाल 380 वर्ष का लिखा है। पार्जिटर ने इस लेख के अनुवाद में राज्यकाल 183 वर्ष दिया है। यह अनुवाद असंगत है। शक शिलालेखों और मुद्राओं से शकों का राज्य 300 वर्षों से अधिक का प्रमाणित होता है।‘‘
(2) इसी प्रकार से संस्कृत में लिखित ‘श्रीविष्णुपुराण‘ और ‘मत्स्यपुराण‘ का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय भी पाश्चात्य विद्वानों ने मौर्य वंश के राज्यकाल में तीन सौ को एक सौ बनाने की भूल की है।
(3) गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित श्रीविष्णुपुराण के संस्कृत पाठ- ‘अब्द शतंसप्तत्रिंशदुत्तरम्‘ का हिन्दी अनुवाद 173 पर दिया गया है। (गीता प्रेस द्वाराप्रकाशित 14वाँ संस्करण (सं. 2050) चतुर्थ अंश, अध्याय 24, श्लोक 32, पृ. 351) जबकि अन्य स्थानों पर यह 317 या 137 वर्ष दिया गया है।
(4) मोनियर विल्सन ने अपने संस्कृत-अंग्रेजी कोश में‘कंचिदेक‘ शब्द का अर्थ महाभारत कालीन एक ग्राम बताया है। वास्तव में वह ‘वेणीसंहार‘ नाटक केनिम्नलिखित श्लोक को समझ नहीं सका –
इन्द्रप्रस्थं, वृकप्रस्थं, जयन्तं, वारणाव्रतम्
प्रयच्छचतुरो ग्रामान् कंचिदेकम् च पंचकम्
कौरव-पाण्डवों का युद्ध टालने के लिए श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से पाण्डवों के लिए 5 ग्राम ही दे देने को कहा था। पाँच ग्रामों में से इन्द्रप्रस्थ, वृकप्रस्थ, जयन्त और वारणाव्रत इन चार ग्रामों के तो नाम उन्होंने गिना दिए थे और पाँचवां कोई सा भी अन्य गांव देने को कहा था। संस्कृत शब्द ‘कंचिदेक‘ का अर्थ ‘कोई सा भी एक‘ होता है। मोनियर ने इन्द्रप्रस्थ आदि नामों को देखकर इसे भी एक ग्राम का नाम मान लिया है।
उक्त विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि अनुवाद करते समयछोटी-छोटी गलतियों के कारण इतिहास में भयंकर भूलें हो जाती हैं और भारतीय इतिहास में ऐसा हुआ है।
विकासवाद के अनुसरण पर
आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि सृष्टि के आरम्भ मेंसभी प्राणी और वस्तुएँ अपनी प्रारम्भिक स्थिति में थीं। धीरे-धीरे ही उनका विकास हुआ है।यह बात सुनने में बड़ी सही, स्वाभाविक और वास्तविक लगती है लेकिन जब यह सिद्धान्त मानव के विकास पर लागू करके यह कहा जाता है कि मानव का पूर्वज वनमानुष था और उसका पूर्वज बन्दर था और इस प्रकार से जब आगे और आगे बढ़कर कीड़े-मकौड़े ही नहीं ‘लिजलिजी‘ झिल्ली तक पहुँचा जाता है तो यह कल्पनाबड़ी अटपटी सी लगती है। चार्ल्स डार्विन ने 1871 ई. में अपने ‘दि डिसैण्ड ऑफ मैन‘ नामक ग्रन्थ में ‘अमीबा‘ नाम से अति सूक्ष्म सजीव प्राणी से मनुष्य तक की योनियों के शरीर की समानता को देखकर एक जाति से दूसरी जाति के उद्भव की कल्पना कर डाली। जबकि ध्यान से देखने पर यह बात सही नहीं लगती क्योंकि भारतीय दृष्टि से सृष्टि चार प्रकार की होती है – अण्डज, पिण्डज (जरायुज), उद्भिज और स्वेदज- तथा हर प्रकार की सृष्टि का निर्माण और विकास उसके अपने-अपने जातीय बीजों में विभिन्न अणुओं के क्रम और उनके स्वतः स्वभाव के अनुसार होता है। एक प्रकार की सृष्टि का दूसरे प्रकार की सृष्टिमें कोई दखल नहीं होता। इसे इस प्रकार से भी समझा जा सकता है कि एक गौ से दूसरी गौ और एक अश्व से दूसरा अश्व तो हो सकता है किन्तु गौ और अश्व के मेल से सन्तति उत्पन्न नहीं हो सकती। हाँ, अश्व और गधे अथवा अश्व और जेबरा, जो कि एक जातीय तत्त्व के हैं, के मेल से सन्तति हो सकती है, अर्थात कीट से कीट, पतंगे से पतंगे, पक्षी से पक्षी, पशु से पशु और मानव से मानव की ही उत्पत्ति होती है। कीट, वानर या वनमानुष से मनुष्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि इनके परस्पर जातीय तत्त्व अथवा बीजों के अणुओं के क्रम अलग-अलग हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि एक जाति केबीजों में विभिन्न अणुओं का एक निश्चित क्रम रहता है। यह क्रम बीज के स्वतः स्वभाव से अन्यत्त्व को प्राप्त नहीं होता।
विकासवाद के मत को स्वीकार कर लेने पर ही मनुष्य के अन्दर ज्ञान की उत्पत्ति के लिए भी एक क्रम की कल्पना की गई। तदनुसार यह मानने को बाध्य होना पड़ा कि प्रारम्भिक स्थिति में मानव बड़ा जंगली, बर्बर और ज्ञानविहीन था। उसे न रहना आता था और न भोजन करना। वह जंगलों में नदियों के किनारे रहता था और पशुओं को मारकर खाता था। अपनी सुरक्षा के लिए पत्थर के हथियारों का प्रयोग करता था। बाद में धीरे-धीरे धातुओं का प्रयोग करते-करते आगे बढ़कर ही वह आज की स्थिति में आया है।
दूसरी ओर भारत में यह मान्यता चली आ रही है कि सृष्टि के आरम्भ में ही ईश्वर ने विद्वान ऋषियों के हृदय में ईश्वरीय ज्ञान उत्पन्न किया और