धर्म अध्यात्म पर आइंस्टीन और गुरुदेव रवींद्रनाथ की रोचक चर्चा
बर्लिन से 24 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम की ओर हावेल नदी के तट पर बसा है जर्मनी के राज्य ब्रान्डेनबर्ग का मशहूर शहर पोस्टडैम। इसके करीब एक छोटा सा कस्बा है ‘कापुत।’ कापुत की एक पहाड़ी की चोटी पर चीड़ के विशाल दरख्तों की झुरमुट के बीच लाल टाइल्स से चमकती लकड़ी के तख्तों और बल्लियों वाली छत और भूरे दरवाजों वाला एक मशहूर घर भी है। ये घर काफी खास है, क्योंकि ये घर है दुनिया के मशहूर गणितज्ञ और फिजिसिस्ट डॉ. अल्बर्ट आइंस्टीन का।
14 जुलाई 1930 दोपहर बाद, करीब 4 बजे गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर यहां की उन धूलभरी पगडंडियों पर गुजरे थे, जो आइंस्टीन के घर की तरफ जाती हैं। गुरुदेव ने उस दिन नीले रंग की हल्की पोशाक पहनी थी। उनका आधा मुड़ा एक हाथ पीठ पर था और सधे कदमों से थोड़ा आगे झुककर चलते हुए उन्होंने यहां आइंस्टीन के साथ कुछ चहलकदमी भी की थी। गुरुदेव टैगोर और आइंस्टीन की ये एतिहासिक मुलाकात एक कॉमन फ्रेंड डॉ़. मेंडल के जरिए मुमकिन हुई थी। 14 जुलाई 1930 को टैगोर आइंस्टीन से मिलने कापुत की पहाड़ी पर मौजूद उनके घर गए। इस दोस्ताना सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आइंस्टीन डॉ. मेंडल के घर गए जहां गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर से उनकी दूसरी मुलाकात हुई। टैगोर और आइंस्टीन की ये दोनों मुलाकातें रिकार्ड की गईं और गुरुदेव-आइंस्टीन के फोटोग्राफ भी लिए गए। 'वॉयेजर' अपने सुधी पाठकों के लिए,14 जुलाई 1930 को कापुत के घर में गुरुदेव और आइंस्टीन के बीच हुई पहली मुलाकात के दौरान हुई बातचीत का पूरा ब्योरा पहली बार हिंदी में पेश कर रहा है। बातचीत का ये पूरा ब्योरा जॉर्ज, एलन एंड अनविन की किताब ‘द रिलिजन आफ मैन’ में प्रकाशित है।
गुरुदेव – आप यहां दो आदि तत्वों, टाइम एंड स्पेस (हमने जानबूझकर इसका अनुवाद नहीं किया) के गणितीय समीकरणों को हल करने में व्यस्त हैं। जबकि मैं इस देश में व्यक्ति में निहित ईश्वरीय शाश्वतता और ब्रह्मांड पर व्याख्यान दे रहा हूं। आइंस्टीन – क्या आप इस दुनिया से परे ईश्वर की सत्ता में यकीन रखते हैं? गुरुदेव – नहीं, परे नहीं। मानव में बसी ईश्वरीय शाश्वतता इस ब्रह्मांड में समाई हुई है। ऐसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं है, जो मानव व्यक्तित्व का हिस्सा न हो। इसलिए ये साबित होता है कि ब्रह्मांड का सत्य ही मानव का सत्य है। आइंस्टीन – ब्रह्मांड की प्रकृति के बारे में दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं। पहली ये कि सृष्टि एक ऐसी इकाई है जो मानवता पर निर्भर करती है और दूसरी ये कि दुनिया एक ऐसी हकीकत है जिसपर मानव के होने या न होने का कोई असर नहीं। गुरुदेव – जब ब्रह्मांड मानव के साथ एक लय – एक तालमेल, एक शाश्वत संबंध बनाता है, तो इसी को सत्य कहते हैं और हम इसके सौंदर्य से अभीभूत हो जाते हैं।
आइंस्टीन – ब्रह्मांड को लेकर ये एक विशुद्ध मानवीय अवधारणा है। गुरुदेव – हमारी दुनिया मानवीय दुनिया है, इसकी वैज्ञानिक अवधारणा भी वैज्ञानिक मानव की ही है। इसलिए हमसे परे किसी भी संसार का अस्तित्व नहीं है। वो एक सापेक्ष संसार है, जिसकी सच्चाई इस बात पर निर्भर होगी कि वो हमारी चेतना पर किस हद तक असर डालता है। कारण और आनंद के कुछ मानक हैं, जो इसे सत्य का स्वरूप प्रदान करते हैं। सर्वशक्तिमान ईश्वर का मानक भी यही है, जिसका अनुभव हम मानवों के अनुभवों के बगैर मुमकिन नहीं। आइंस्टीन – यही है, मानव अस्तित्व को अनुभव करना गुरुदेव – हां, एक शाश्वत आध्यात्मिक अस्तित्व। हमें अपने कार्यकलापों और अपनी भावनाओं द्वारा इसे गहराई से अनुभूत करना चाहिए। हम उस सर्वशक्तिमान ईश्वर को अनुभूत करते हैं जो असीम और अनंत है और जो हमारी हर सीमा से परे है। साइंस का संबंध उन चीजों से है जो किसी एक व्यक्ति तक सीमित नहीं हैं। साइंस, हम जो अब तक समझ सके हैं उस सत्य का मानव रचित गैरव्यक्तिवादी संसार है। इसी सत्य की व्याख्या धर्म अपने तरीके से करता है और उसे लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी की जरूरतों से जोड़ देता है। सत्य को लेकर हमारी व्यक्तिगत चेतना एक सार्वभौमिक गौरव अर्जित कर लेती है। धर्म सत्य में नैतिकता का समावेश करता है और इसके साथ हम जितना तालमेल कायम करते हैं, उतनी ही गहराई से इसे समझते जाते हैं। आइंस्टीन – तो फिर सत्य, या सुंदरता क्या मानव से निरपेक्ष नहीं है? गुरुदेव – नहीं, मैंने ऐसा नहीं कहा। आइंस्टीन – अगर मानव सभ्यता खत्म हो जाए, तो क्या ‘अपोलो बेलवेडेर’ की प्रतिमा खूबसूरत नहीं रहेगी ? गुरुदेव – नहीं ! आइंस्टीन – सुंदरता के प्रति इस अवधारणा से मैं सहमत हूं, लेकिन ये बात सत्य पर लागू नहीं होती। गुरुदेव – क्यों नहीं ? आखिर सत्य की अनुभूति भी मानव द्वारा ही होती है। आइंस्टीन – मैं ये साबित नहीं कर सकता कि मेरी अवधारणा सही है, लेकिन मेरा मानना यही है। गुरुदेव – मैं सुंदरता को इस तरह पारिभाषित करूंगा कि सार्वभौम ईश्वर में निहित एक बिल्कुल सही और आदर्श तालमेल। सार्वभौम चेतना की संपूर्ण समझ ही सत्य है। अपनी जाग्रत चेतना के माध्यम से, अपने अर्जित अनुभवों के जरिए, अपनी चूकों और दोषों के साथ हम मानव इस सत्य तक पहुंचने की कोशिश करते रहते हैं। इसके अलावा सत्य को हम और कैसे जान सकते हैं ? आइंस्टीन – मैं साबित तो नहीं कर सकता, लेकिन मैं इस पाइथागोरियन अवधारणा में यकीन करता हूं कि सत्य मानव पर निर्भर या आश्रित नहीं है। मानव रहें या न रहें, इससे सत्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता वो पूरी तरह से मुक्त है। निरंतरता के तर्क की समस्या भी यही है। गुरुदेव – सत्य, जो सार्वभौम है, ईश्वर के साथ एकाकार है, वो अनिवार्य रूप से मानव के लिए ही है। अन्यथा हम में से हर कोई सत्य के रूप में जो कुछ अनुभूत करता है, उसे सत्य कभी नहीं कहा जा सकता। कम से कम वो सत्य, जिसे वैज्ञानिक कहा जाता है, उस तक भी केवल तार्किक प्रक्रिया, या दूसरे शब्दों में कहें तो वैचारिक अंग जो कि मानवीय है, के जरिए ही पहुंचा जा सकता है। भारतीय दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही परम सत्य है, जिसे मानव मस्तिष्क न तो एकांतवास से समझ सकता है और न ही जिसकी व्याख्या शब्दों के जरिए संभव है। लेकिन उस परब्रह्म परमात्मा की अनंतता को आत्मसात करके, उसके साथ खुद को समाहित करके उस निरपेक्ष परम सत्य - ब्रहम् का अनुभव किया जा सकता है। लेकिन ऐसे सत्य का साइंस से कोई लेना-देना नहीं है। हम सत्य की जिस प्रकृति पर बातचीत कर रहे हैं, वो इस पर निर्भर है कि हमारे सामने वो किस रूप में प्रकट या उपस्थित होता है। या कहना चाहिए कि मानव मस्तिष्क को लगता है कि यही सत्य है, और इसीलिए ये मानव पर आश्रित है, और शायद इसे माया या भ्रम भी कहा जा सकता है। आइंस्टीन – ये किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि संपूर्ण प्राणीजगत का भ्रम है। गुरुदेव – संपूर्ण जीव प्रजातियां भी एक ही इकाई, मानव जाति से संबंध रखती हैं। इसीलिए संपूर्ण मानव मस्तिष्क एकसाथ एक ही सत्य का अनुभव करता है। ये वो बिंदु है जहां भारतीय और यूरोपियन मस्तिष्क एकसमान अनुभव से एकसाथ जुड़ जाते हैं। आइंस्टीन – जर्मन में जीव प्रजाति शब्द का इस्तेमाल संपूर्ण मानव जाति, और यहां तक कि कपियों और मेंढकों के साथ सभी सजीवों को एकसाथ संबोधित करने के लिए किया जाता है। समस्या ये है कि क्या सत्य हमारी चेतना से निरपेक्ष, अप्रभावित और मुक्त है? गुरुदेव – हम जिसे सत्य कहते हैं वो वास्तविकता के व्यक्तिपरक और वस्तुपरक पहलुओं के बीच विवेकपूर्ण साम्य में अंतरनिहित है, और ये दोनों ही सुपरपर्सनल पुरुष (ईश्वर) से संबंधित हैं। आइंस्टीन – रोजमर्रा की जिंदगी में हम अपने मस्तिष्क से कई ऐसे काम करते हैं, जिनके लिए हम जिम्मेदार नहीं होते। बाहर की वास्तविकताओं पर मस्तिष्क उससे निरपेक्ष रहकर प्रतिक्रिया करता है। उदाहरण के तौर पर इस घर में शायद कोई भी न हो, लेकिन तब भी वो मेज वहीं बनी रहेगी जहां वो है। गुरुदेव – हां, वो व्यक्तिगत मस्तिष्क से बाहर तो बनी रहेगी, लेकिन यूनिवर्सल माइंड के बाहर नहीं। मेज वो चीज है जो हमारी चेतना द्वारा इंद्रियगोचर है।
आइंस्टीन – अगर इस घर में कोई भी नहीं हो, तो भी वो मेज वहीं बनी रहेगी, लेकिन आपके दृष्टिकोण से ये पहले ही अनुचित है, क्योंकि हम ये व्याख्या नहीं कर सकते कि इसका क्या अर्थ है कि हमसे निरपेक्ष रहते हुए मेज वहां रखी है। सत्य के अस्तित्व के संबंध में हमारे सहज दृष्टिकोण की मानव जाति से परे न तो व्याख्या की जा सकती है और न इसे साबित किया जा सकता है, लेकिन ये ऐसा विश्वास है, जिसे कोई भी यहां तक कि छोटे से छोटा प्राणी भी छोड़ना नहीं चाहता। हमने सत्य को सुपरह्युमन ऑब्जेक्टिविटी के साथ प्रतिस्थापित कर रखा है। ये हमारे लिए परम आवश्यक है, इसका कोई विकल्प नहीं। ये वास्तविकता हमारे अस्तित्व, हमारे अनुभव और हमारे मस्तिष्क से निरपेक्ष या मुक्त है, हालांकि हम ये नहीं कह सकते कि इसका अर्थ क्या है। गुरुदेव – किसी भी स्थिति में, अगर कोई ऐसा सत्य है जिसका मानवजाति से कोई सरोकार न हो, तो हमारे लिए ये पूरी तरह से अस्तित्वहीन है
आइंस्टीन – तब तो मैं आपसे भी कहीं ज्यादा धार्मिक और आस्थावान हो जाऊंगा टैगोर – मेरे स्वयं के व्यक्तित्व में उस सुपरपर्सनल पुरुष - सार्वभौम आत्मा (ईश्वर), के साथ सामंजस्य, एक लय कायम करना ही मेरा धर्म है।
संदीप निगम