योग के विकास का इतिहास...


स्टोरी हाइलाइट्स

योग के विकास:योग का आशय उस प्राचीन योग प्रणाली से है, जिसे पतंजलि ने योगसूत्र में निरूपित किया है। पतंजलि ने अष्टांग योग प्रणाली के बारे में बताया है

योग के विकास का इतिहास...
योग का आशय उस प्राचीन योग प्रणाली से है, जिसे पतंजलि ने योगसूत्र में निरूपित किया है। पतंजलि ने अष्टांग योग प्रणाली के बारे में बताया है, जिसके अन्तर्गत समग्र आध्यात्मिक विकास पर जोर दिया गया, जिसमें नीतिशास्त्र (यम व नियम), आसन, प्राणायाम, इन्द्रियों पर नियंत्रण (प्रत्याहार), एकाग्रता (धारणा), ध्यान और समाधि शामिल हैं। इसमें एक सम्पूर्ण और समेकित आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्रणाली सम्मिलित होती है। 

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यह उल्लेखनीय है कि प्राचीन योग महान् वैदिक परम्परा का हिस्सा रहा है। पतंजलि ने तो बाद में इस शिक्षा का संकलन किया था। यौगिक शिक्षा के अन्तर्गत पतंजलि योग के समस्त पहलू शामिल हैं, जो पतंजलि से पहले वाले साहित्य में विद्यमान हैं, जैसे पुराण, महाभारत और उपनिषद जिसमें पतंजलि का नाम बाद में आता है। योग का प्रणेता हिरण्यगर्भ को बताया जाता है, जो ब्रह्मांड में रचनात्मक और विकास मूलक शक्ति को निरूपित करते हैं।

योग को और अधिक पीछे जाकर ऋग्वेद में भी ढूंढा जा सकता है, जो सबसे प्राचीन हिन्दू ग्रंथ है, जिसमें हमारे मन और अन्तर्दृष्टि को सत्य अथवा वास्तविकता के प्रकाश के साथ संबद्ध करने की बात कही गई। 

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प्राचीन काल में योग गुरुओं में अनेक प्रसिद्ध ऋषियों का नाम लिया जा सकता है जैसे वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य तथा जैगीषव्य। योगियों में जो योगेश्वर कहलाते हैं वह स्वयं श्रीकृष्ण है, जो भगवद् गीता के नायक हैं। भगवद् गीता को योगशास्त्र भी कहा गया है, जिसके अंतर्गत योग पर प्रामाणिक कार्य उपलब्ध है। भगवान् शिव भी सर्वाधिक महान् योगी या आदिनाथ हैं।

भारत में योग मनुष्य के उस क्रियाकलाप का हिस्सा रहा है, जिसके द्वारा आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक पहुंचा जा सकता है। योग का इतिहास 5 वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः   

वैदिक काल  , 

पूर्व प्राचीन काल  , 

प्राचीन काल  , 

मध्यकाल  , 

आधुनिक काल , 

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1. वैदिक काल:-


वेद-ऋचाएं विश्व में सबसे प्राचीन ग्रंथ है। संस्कृत शब्द वेद का अर्थ है- 'ज्ञान' और ऋक् का आशय 'प्रशंसा' से है। इस प्रकार ऋग्वेद ऐसी ऋचाओं का संकलन है जिनमें सर्वशक्तिमान् की प्रशंसा की गई है। अन्य तीन वेद हैं- यजुर्वेद (यज्ञ का ज्ञान), सामवेद (गायन का ज्ञान), तथा अथर्ववेद (अथर्व का ज्ञान)। वैदिक काल में ब्रह्मांड में उच्चता को प्राप्त करने के साधन थे- ज्ञान या श्रुति, जिन्हें ध्यान के माध्यम से लिया जाता था। इसमें तीन योग शामिल हैं- मंत्र योग, प्राण योग और ध्यान योग।

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मंत्र योग:- जिसमें मंत्रों में निहित शक्ति के कारण, मंत्र मन के रूपांतरण के उपकरण के रूप में सक्रिय हो जाता है।

प्राण योग:- प्राणायाम के द्वारा जैव तंत्र को बल या शक्ति प्राप्त होती है।

ध्यान योग:- 'धी' शब्द का आशय बुद्धि या मेधा से है, जो ध्यान शब्द का मूल है। 'धी' यानी बुद्धि मन का आंतरिक भाग है, जिसके माध्यम से हमें शाश्वत सत्य को स्वीकार करने का सामर्थ्य मिलता है। 'धी' अथवा बुद्धि का यह संवर्धन मुख्य रूप से विवेक संकाय है, जो योग और वेदान्त की प्रमुख विशेषता है।

मन को एकाग्र करके एक स्थान/विचार पर स्थिर कर लेना ही ध्यान है। 'ध्यान' वह अवस्था है जिसमें एकाग्र मन की वृत्तियाँ तेल की अनवरत प्रवाहमान धारा की तरह एकमात्र धारणा के इर्द-गिर्द प्रवाहित होने लगती हैं और इसके पश्चात् मानसिक योग्यताएं (मानस) में कोई भी बाहरी वस्तु मौजूद नहीं होती। ध्यान की पांच विशेषताएं हैंः एकल विचार, सहजता, धीरता, सजगता, सहज विस्तार। मन की कोई भी अवस्था, जिसमें ये पांच विशेषताएं होती हैं उसे कहा जा सकता है कि वह ध्यान की अवस्था में है।

आत्मज्ञान

मैत्रायणी उपनिषद में योग को षडंग-योग कहा गया है, यानी 6 अंगों (षडंग) की समेकित प्रणाली। मैत्रायणी उपनिषद् में इसे इस प्रकार वर्गीकृत किया गया हैः (1) श्वसन नियंत्रण (प्राणायाम), (2) इन्द्रिय नियंत्रण (प्रत्याहार), (3) ध्यान, (4) एकाग्रता (धारणा), (5) तर्क तथा (6) अन्तज्र्ञान या अनुभवातीत/ ज्ञानातीत अवस्था (समाधि), कठोपनिषद (2.5.4) के अनुसार योग एक ऐसी अवस्था है, जिसमें हमारी समस्त इन्द्रियां वश में हो जाती हैं, यानी इन्द्रियों पर और मन पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है।

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2. पूर्व-प्राचीन काल:-  


योग का सर्वाधिक असाधारण ग्रन्थ है भगवद्गीता, जिसकी रचना ईसा के लगभग 5000 वर्ष पूर्व हुुई थी। भगवद्गीता के अनुसार ईश्वर से मिलने के चार मार्ग हैं। इन्हें इस प्रकार निरूपित किया गया हैः जैसे श्रेष्ठ कर्म (कर्म योग), श्रेष्ठ श्रद्धा/उपासना (भक्तियोग), श्रेष्ठ/परिशुद्ध ज्ञान (ज्ञान योग) तथा संकल्प शक्ति योग (राज योग)।

भगवद्गीता में 18 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय योग कहलाता है। प्रत्येक अध्याय में अंतिम सत्य तक पहुंचने का मार्ग योग का मार्ग ही है। भगवद् गीता में मानव अस्तित्व, आत्मा की अमरता और ईश्वर के साथ हमारे शाश्वत सम्बन्ध के बारे में विशेष ज्ञान मिलता है। यह ज्ञान किसी अपवाद के बिना हम सबके लिए है।


3. प्राचीन काल:-  


प्राचीन काल के दौरान यानी लगभग दूसरी शताब्दी में पतंजलि ने योग सूत्र लिखे थे, जिसमें 196 सूत्र हैं, जिनमें मानव जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए 8 सोपान (अष्टांग) निरूपित हैं, जो जन्म और मृृत्यु के दुःखों से मुक्ति का मार्ग है। इसे राजयोग यानी संकल्प शक्ति का योग कहा गया है। 


बुद्ध का अभ्युदय भी इसी काल में हुआ था, जिन्होंने हमें अष्ट मार्ग की शिक्षा दी, तथा जिसमें ध्यान पर विशेष जोर दिया गया है। विपाशना भारत की सबसे प्राचीन तकनीक है। लम्बे समय तक मानवता के लिए जिसका विलोप हो गया था उसे गौतम बुद्ध ने 2500 वर्षों से भी अधिक पूर्व पुनर्जीवित किया। विपाशना शब्द का अर्थ है, चीजों को उसी रूप में देखना जैसे वे वास्तव में होती हैं। यह आत्म-प्रेक्षण द्वारा स्वयं को परिशोधित करने की प्रक्रिया है। 


इसकी शुरूआत मन को एकाग्र करने हेतु सामान्य श्वसन क्रिया द्वारा होती है। इसमें गहन एकाग्रता के साथ व्यक्ति शरीर और मन की परिवर्तनशील प्रकृृति का अवलोकन करता है और आगे बढ़ता रहता है तथा अस्थाई और दु्ःखपूर्ण जीवन के शाश्वत सत्य की अनुभूति करने लगता है। जैन धर्म में प्रत्याहार और ध्यान योग के दो प्रमुख खंड हैं। 


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4. मध्यकाल में योग:- 

बुद्ध ने (लगभग 6ठी शताब्दी में) पूरे उपमहाद्वीप में ध्यान को लोकप्रिय बनाया था। किन्तु इसमें एक बात पर सहमति नहीं है कि कोई व्यक्ति ध्यान के माध्यम से आध्यात्मिक क्रियाएं तत्काल नहीं कर सकता। ध्यान के लिए पहले स्वयं को तत्पर करना होता है, 6ठी शताब्दी में जब बौद्ध धर्म के प्रभाव में कमी आ गयी थी तो मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ जैसे कुछ महान् योगियों ने इस पद्धति को परिशोधित किया। इस अवधि के दौरान हठ योग से सम्बन्धित कई ग्रंथों की रचना हुई।  

इस अवधि में जो प्रमुख ग्रंथ लिखे गए, उनमें स्वात्माराम द्वारा रचित योग प्रदीपिका, श्रीनिवास योगी द्वारा रचित घेरंड संहिता एक संवादात्मक ग्रंथ,श्रीनिवास योगी द्वारा रचित हठरत्नावली, जिसमें योग के साथ-साथ आयुर्वेद पर भी विमर्श किया है, नित्यानाथ द्वारा रचित सिद्ध सिद्धान्त पद्धति आदि शामिल हैं।


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गुरु गोरखनाथ को नाथ सम्प्रदाय का प्रणेता माना जाता है और यह कहा जाता है कि नौ नाथ और 84 सिद्धों का मानव रूप में विश्व में योग और ध्यान का संदेश प्रसारित करने के प्रयोजन से यौगिक आविर्भाव हुआ। वे यही योगी थे, जिन्होंने मानव को समाधि से अवगत कराया। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ ने कई पुस्तकों की रचना की है जैसे- गोरख संहिता, गोरख गीता और योगचिन्तामणि।  


5. आधुनिक काल में योग:- श्री अरविन्दो द्वारा रचित “समग्र योग” पूर्ण योग में दिव्य शक्ति के प्रति संपूर्ण समर्पण पर जोर दिया है जो दिव्य शक्ति का मार्ग है, ताकि व्यक्ति का रूपांतरण हो सके। श्री रामकृष्ण परम हंस भक्ति योग और दिव्य प्रेम के मार्ग का समर्थन करते हैं। रामकृष्ण के विचार में सभी धर्म मानव मन की विविध इच्छाओं की संतुष्टि हेतु ईश्वर के विभिन्न रूपों का प्रकटीकरण है। श्री रामकृृष्ण का आधुनिक विश्व के लिए सबसे बड़ा योगदान हैः सभी धर्माें में सामंजस्य स्थापित करना।

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