भगवान शिव, शक्ति अर्थात् पराशक्ति बिना दर्शन नहीं देते.......कुण्डलिनी रहस्य
यह पराशक्ति योगियों की कुण्डलिनी शक्ति रूप में मूलाधार चक्र से उत्थान करते हुए हृदयस्थान में आती है और रूद्रग्रन्थि को जागृत करती है,तब आदिनाथ जी रूद्ररूप में दर्शन देते हैं। यही कुण्डलिनी शक्ति जब भ्रूमध्य में आती है तो ज्योति का दर्शन होता है और जब तालु प्रदेश में सहस्त्रागार में आती है तो शिव रूपी गुरु गोरक्षनाथ जी के दर्शन होते हैं। ऐसे नाथ दर्शन पाकर योगी परमतृप्त, कृतार्थ, आनन्दित हो जाता है। उनके मुखमण्डल का दैदिप्यमान तेज करोड़ों सूर्य के समान होता है।
नीली-पीली सुनहरी जटाओं में अमृत बरसाता चन्द्र, अति शोभायमान है। नेत्र कमल सदृश्य सुन्दर लग रहे है। त्रिपुण्ड भस्म, तीसरानेत्र, तीनों लोक तथा तीनों काल का ज्ञाता दिख रहा है। कर्पूर कान्ति तेज से सम्पूर्ण सृष्टि प्रकाशित हो रही है। नील कण्ठ में शेषनाग, माला समान विहार कर रहे हैं।नाथ सिद्धों के नाद जनेऊ, रुद्राक्ष मालाओं से वक्षस्थल अत्यन्त सुन्दर दिख रहा है, भस्मी रमी काया, कटी वस्त्र मृगछाला, बाघांबर का आसन, त्रिशूल, डमरू, शंख, कमण्डल आदि से युक्त दिव्य दर्शनों को पाकर योगी को परम कैवल्य आनन्द की अनुभूति होती है और यही परम शिव को कैलाश, परम मोक्ष मुक्ति को प्राप्त करवाता है।
ऐसे निर्गुण निराकार आदिनाथ जी की सगुण रूप शिव रूप में अनन्त लीलाएं हैं, जिनको शिव की योगमाया लीला कहते हैं। ध्यान, तपस्या, सृष्टि उत्पत्ति, शक्ति उत्पत्ति, नाथ सिद्धों के अवतार, सती संग विवाह, राक्षस संहार, पार्वती विवाह, गणेश उत्पत्ति, गणेश विवाह, कार्तिकेय विरह, असुरों को वरदान देना तथा उनका संहार करना, बारह ज्योतिर्लिंग रूप में स्थानों में विराजना आदि न जाने कितनी लीलाएं उन्होंने रची। उनकी विशेष लीला तो नवनाथों की अर्थात नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति कर, योग द्वारा माया रहित मोक्ष को जाना अनंत योग अनंत ज्ञान का उन्होंने निर्माण किया।
एक बार कैलाश में नारदजी ने शिव जी के गले में मुण्डमाला देखकर उसका गुणगान किया। इसका रहस्य पार्वती ने शिव आदिना जी को एकान्त में पूछा, तो आदिनाथ जी-पराशक्ति पार्वती को क्षीर समुद्र के किनारे एक डोंगी पर एकान्त में ले गये। व उन्होंने नाथ सिद्धों का महायोग विज्ञान जो प्राणी को भव पार कर अमरत्व प्रदान करता है, यह उपदेश देकर पार्वती को प्रथम शिष्य रूप में नाथ बनाया, अर्थात वहां नाथ सिद्धों की गुरू शिष्य परम्परा प्रारम्भ हुई|
उदयनाथ पार्वती नाथ दीक्षित उसी समय क्षीर समुद्र में स्थित मत्स्य गर्भ में यही ज्ञान माया स्वरूपी मत्स्येन्द्रनाथ जी ने सुना और ॐ कार आदिनाथ के शिष्य बनकर मत्स्येन्द्रनाथ नाम से प्रख्यात हुए। इस प्रकार आदिनाथ जी ने नाथ सम्प्रदाय का श्री गणेश किया। ऐसे सर्वव्यापक ॐकार आदिनाथ जी के भक्त, सेवक, शिष्यगण, देवी- देवता, असुर प्रत्येक प्राणी उनकी भक्ति करते हैं। वह सभी इष्टदेव एवं परमेश्वर हैं। इनकी प्राप्ति ही मोक्ष-मुक्ति है।