गायत्री वेद का पवित्रतम मंत्र है। उसका अर्थ है— हम इस जगत के जन्मदाता परम देवता के देश का ध्यान करते हैं वे हमारी बुद्धि में ज्ञान का विकास कर दें।इस मंत्र के आदि और अंत में प्रणव यानी ओंकार लगा हुआ है। एक प्राणायाम में गायत्री का तीन बार मन ही मन उच्चारण करना पड़ता है।प्रत्येक शास्त्र में कहा गया है कि प्राणायाम तिन अंशों में विभक्त है। रेचक अर्थात् श्वासत्याग, पूरक अर्थात श्वासग्रहण और कुंभक अर्थात श्वास की स्थिति या श्वासधारण। अनुभव शक्तियुक्त इंद्रियाँ लगातार बहिर्मुख होकर काम कर रही है और बाहर की वस्तुओं के संपर्क में आ रही हैं। उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार कहते हैं। अपनी ओर खींचना या आहरण करना यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ है। हृत्कमल में या सिर के ठीक मध्यप्रदेश में या शरीर के अन्य किसी स्थान में मन को धारण करने का नाम है धारणा।मन को एक स्थान में संलग्न करके फिर उस एकमात्र स्थान को अवलंबन स्वरूप मानकर एक विशिष्ट प्रकार के वृत्ति प्रवाह उठाए जाते हैं।दूसरे प्रकार के वृत्तिप्रवाहों से उनको बचाने का प्रयत्न करते-करते वे प्रथमोक्त वृत्तिप्रभाव क्रमशः प्रबल आकर धारण कर लेते हैं और ये दूसरे वृत्तिप्रवाह कम होते-होते अंत में बिल्कुल चले जाते हैं। फिर बाद में उन प्रथमोक्त वृत्तियों का भी नाश हो जाता है और केवल एक वृति वर्तमान रह जाती है। इसे ध्यान कहते हैं और जब इस अवलंबन की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती,संपूर्ण मन एक तरंग के रूप में परिणत हो जाता है तब मन की इस एकरूपता का नाम है समाधि।तब किसी विशेष प्रदेश या चक्र विशेष का अवलंबन करके ध्यानप्रवाह उत्थापित नहीं होता, केवल ध्येयवस्तु का भाव (अर्थ) मात्र अवशिष्ट रहता है। स्वामी विवेकानंद
प्राणायाम और गायत्री मंत्र
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