आध्यात्मिक ज्ञान प्रकाश का ज्ञान है, संसार में रहने का ज्ञान अंधेरे का ज्ञान है। धर्म एवं अध्यात्म बजरंग लाल शर्मा, चिड़ावा कोई भी व्यक्ति धार्मिक हो सकता है। एक मुसलमान भी धार्मिक हो सकता है, एक हिंदू भी धार्मिक हो सकता है, परंतु प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति अध्यात्म में रूचि रखे कोई आवश्यक नहीं है। संसार में व्यक्ति तो बहुत होते हैं परंतु धार्मिक बहुत थोड़े ही होते हैं। धार्मिक का अर्थ होता है कि जो अपने धार्मिक ग्रंथों में बतलाए गए अनुसार आचार विचार एवं व्यवहार करें। धार्मिक मुसलमान अपने धर्म ग्रंथ के अनुसार आचार, विचार, तथा व्यवहार रखता है तथा उसमें बतलाए गए निषिद्ध कार्यों से परहेज करता है। उसी प्रकार धार्मिक हिंदू भी अपने धर्म ग्रंथ वेद, पुराण, गीता, भागवत आदि के अनुसार चलता है। हिंदुओं का यह आचार, विचार, व्यवहार रूपी कार्य कर्मकांड के अंतर्गत आता है तथा मुसलमानों का सरियत के अंतर्गत आता है। पूजा पद्धति एवं इबादत आदि कार्य भी इन्हीं के अंतर्गत आते हैं। धर्म ग्रंथों में वर्णित वर्जित कार्य को जो लोग नहीं छोड़ते हैं वे धार्मिक नहीं कहे जा सकते हैं। इस प्रकार धार्मिक हिंदू या मुसलमान तो थोड़े ही होते हैं तथा इनमें भी आध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखते वाले व्यक्ति और भी थोड़े होते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान कर्मकांड या सरीयत के ज्ञान के बाद शुरू होता है अर्थात यह ज्ञान उसके आगे का ज्ञान है। इसमें हमें आत्मा तथा परमात्मा के संबंध के बारे में जानने को मिलता है। जब आत्मा तथा परमात्मा की बात की जाती है तब कर्मकांड तथा सरीयत पीछे छूट जाते हैं । जो इस ऊंचे ज्ञान के रास्ते पर चल पड़ता है, वह ना हिंदू होता है, ना मुसलमान तथा ना उसकी कोई जाति होती ही होती है। इस रास्ते पर चलने वालों की संख्या बहुत थोड़ी होती है। इनकी आध्यात्मिक सीढ़ियां होती है, मंजिलें होती हैं। उच्चतम मंजिल को तो कोई बिरला ही प्राप्त करता है। यह तो परमात्मा की कृपा से ही संभव है उनकी कृपा के कारण ही सतगुरु मिलते हैं। बिना सद्गुरु के इस रास्ते पर कोई चल ही नहीं सकता है । आध्यात्मिक ज्ञान प्रकाश का ज्ञान है तथा संसार में रहने का ज्ञान अंधेरे का ज्ञान है। जन्म लेना, मृत्यु को प्राप्त होना, विवाह करना, पाप-पुण्य आदि संचित कर्म करना, व्रत, उपासना पद्धति के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करना, शरीर को शुद्ध रखना, पूजा करना, नमाज पढ़ना, रोजा रखना, मंदिर व मस्जिद जाना, इंद्रियों को वश में करना, सुन्नत करना आदि संसार के कार्य हैं। इनका संबंध धर्म से है ये सभी कर्म कांड अथवा शरीयत के अंदर आते हैं। यह सारा ज्ञान संसार का अर्थात अंधेरे का ज्ञान कहा जाता है। प्रकाश का ज्ञान तो अंधेरे के बाद शुरू होता है। आध्यात्मिक ज्ञान को प्रकाश का ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान के लिए कर्मकांड अथवा सरियत के ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है। अंधेरे के ज्ञान में उलझे हुए व्यक्ति कभी प्रकाश के ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ज्यों ज्यों प्रकाश के नजदीक जाया जाता है, अंधेरा दूर होता चला जाता है। जब हम प्रकाश में पहुंच जाते हैं, तो संसार से दूर हो जाते हैं तथा संसार आंखों से ओझल हो जाता है। धार्मिक होना प्रथम सीढ़ी है, आचार, विचार, व्यवहार में सुधार आना अति आवश्यक है। इसके लिए खानपान को शुद्ध रखना होता है। खान-पान अशुद्ध रहने पर आचार, विचार, व्यवहार कभी शुद्ध नहीं हो सकते हैं। आचार, विचार, व्यवहार शुद्ध होने पर ही मन निर्मल होता है। मन निर्मल होने पर ही परमात्मा का आध्यात्मिक ज्ञान उसमें ठहर सकता है।