आत्महत्या और गर्भपात घोर पाप
-दिनेश मालवीय
आज बहुत से कारणों से देश में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. यह बात सही है कि कई बार ऐसी परिस्थतियाँ सामने आ जाती हैं, जब सामने कोई रास्ता नहीं दीखता और व्यक्ति को आत्महत्या करना ही एकमात्र विकल्प लगता है. इसी तरह देश में गर्भपात की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है. लेकिन भारतीय धर्म और संस्कृति में इन दोनों कर्मों को घोर पाप माना गया है.
पराशरस्मृति में कहा गया है कि आत्महत्या करने वाले को 60 हज़ार वर्षों तक ऐसे नरक में रहना पड़ता है, जो खून और मवाद से भरा है. वह करीब 6 हज़ार जन्मों तक कष्ट पाता है. इसके बाद उसे फिर सूअर की योनि मिलती है.आत्महत्या करने वाले का न लोक सुधरता है न परलोक.
आत्महत्या करने वाले का सूतक मान्य नहीं किया गया है. कहा गया है कि उसकी मृत्यु पर आंसू न गिराए और उसका अग्नि संस्कार भी न करें.उसके अस्थि संचय और श्राद्ध-तर्पण की भी मनाही की गयी है. मनुष्य को अपनी हत्या करने का अधिकार नहीं है. कैसी भी परिस्थिति हो, लेकिन आत्महत्या नहीं करना चाहिए.
इतने कड़े निर्देश और नरकभय दिखाने का मकसद यही है कि व्यक्ति आत्महत्या करने का विचार न करे. ज्योतिष के अनुसार पितृदोष, पितृऋण आदि मामलों में ऐसे अतृप्त और कुपित पितरों की भूमिका रहती है, जो बाद में उनके विधिवत श्राद्ध कर्म और अन्य प्रायश्चित कर्म करने के बाद ही शांत हो पाते हैं.
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि गर्भपात कराने से ब्रह्महत्या का पाप लगता है. इस महापाप का कोई प्रायश्चित नहीं है. कहा गया है कि परनिंदक और पाखंडी का तो उद्धार हो सकता है, लेकिन गर्भपात कराने वाले का उद्धार संभव नहीं है. गर्भपात कराने वाला कुम्भीपाक नरक में गिरता है. वह 14 मन्वंतर तक वहाँ रहकर हज़ार जनों तक गिद्ध, सौ जन्मों तक सूअर और सात-सात जन्मों तक सांप बनता है. फिर विष्टा का कीड़ा और बैल बनता है. वह हजारों जन्मों तक उपरोक्त कष्ट भोगने के बाद दरिद्र कोढ़ी मनुष्य के रूप में जन्म लेता है. देवीभागवतपुराण में गर्भात के दण्ड का भयंकर वर्णन किया गया है.
गर्भपात में सहायक होने वाले के लिए भी शास्त्रों में घोर दण्ड का प्रावधान किया गया है. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार इससे बांझपन, नपुंसकता, वंश हानि या वंश समाप्त होने जैसे दण्ड भुगतना पड़ता है. इतना तक कहा गया है कि गर्भपात करने वाले द्वारा जो देख लिया गया हो, उस अन्न को नहीं खाना चाहिए, क्योंकि इससे पाप लगता है.
हमारा समाज युगों-युगों से धर्म और संस्कारों के माध्यम से नियमित और संचालित होता रहा है. शास्त्रों के उपरोक्त वर्णन में आज कुछ अतिरेक भले ही प्रतीत होता हो, लेकिन इसका उद्देश्य मनुष्य को इन दोनों पापों से विमुख करना ही है. यदि आप अपने शास्त्रों के वचनों में विश्वास करते हैं, तो इन दोनों पापों को न करें और न इनमें किसी भी तरह सहायक हों.