कृष्ण के घोडों की टापों की गूंज श्रीकृष्णार्पणमस्तु -19 रमेश तिवारी श्रीकृष्ण की कथा को आज हम धौलपुर स्थित मुचकुंद की गुफा से प्रारंभ करते हैं। कालयवन के वध के पश्चात ऋषियों ने उसके शव को पहाडी़ से नीचे फेंक दिया था। किंतु गुफा में छिपे बैठे कृष्ण जब बाहर निकले और ऋषियों से संवाद हुआ तो फिर मुचकुंद, कृष्ण और ऋषियों ने संपूर्ण सम्मान के साथ कालयवन का अंतिम संस्कार किया। जीवन के सार और असार होने के सिद्दांत पर मुचकुंद और कृष्ण में पूर्व और पश्चिम का मतभेद था। फिर भी ऋषियों ने श्रीकृष्ण को बहुत समय तक अपने साथ ही रहने दिया। स्थिति यह बनी कि यादवों की दृष्टि में कृष्ण और यवन सेना की दृष्टि में कालयवन मृत माने जा रहे थे। यवन सैनिक अपने राजा को ढूंढ़ रही थी। धौलपुर के समीप हिरण्य नदी के किनारे यवन सेना को मंडराते देख ऋषियों ने कृष्ण को सुरक्षार्थ अपने साथ रख लिया। कृष्ण भी साधु वेष में, भस्मादि रमाकर रहने लगे। कुछ समय पश्चात यह साधु दल प्रभाष की यात्रा पर निकल पडा़। अब कृष्ण को लगा कि उन्हें तत्काल यादवों से मिलना चाहिये। इधर रुक्मणी स्वयंवर भाग दो की संपूर्ण तैयारी हो चुकी थीं। जरासंध की योजना थी कि वह मथुरा को भस्म करके कौन्डिन्यपुर होकर मगध लौटेगा। परन्तु इस बीच कालयवन और कृष्ण, दोनों के अज्ञात होने की घटना घट गयी। जरासंध के आदेशानुसार स्वयंवर में केवल शिशुपाल और रुक्मणी के पिताओं को ही उपस्थित रहना था। किंतु भीतर ही भीतर कोई दूसरी ही खिचडी़ पक रही थी। बसंत पंचमी को ही स्वयंवर होना था। कार्तिक आ गया। रुक्मणी की चिंता बढऩे लगी। कृष्ण का कोई समाचार नहीं। आश्विन निकला और फिर चैत्र मास भी आ गया। रुक्मणी को कृष्ण का कोई समाचार नहीं मिला, उसको अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा। श्वेतकेतु अपने शिष्यों-अप्नव और जह्नु के साथ कुंडनपुर पहुंच गये। यादवों में भी चिंता थी कि रुक्मणी का साथ देकर कैसे कृष्ण की भावना का आदर किया जाये। बलराम, उद्वव और सात्यिकी ने ससैन्य पहुंचने का निर्णय लिया। श्वेतकेतु के शिष्य संवाद प्रक्रिया में द्वारिका से सीधे संपर्क में थे। रुक्मणी के पत्र दाऊ के पास पहुंच रहे थे, कि रुक्मणी किसी भी मूल्य पर शिशुपाल के साथ विवाह हेतु सहमत नही थी। कैशिक के प्रासाद में उदासी थी। कृष्ण की मृत्यु का समाचार फैल चुका था। भ्रम ही भ्रम। सर्वत्र भ्रम। रक्मणी ने एक निश्चय कर लिया! बिना कृष्ण के, वह द्वारिका जाये भी तो क्यों ? माना कि यादव वीर हैं। मुझको ले भी जा सकने में सक्षम हैं। परन्तु बिना पति के ससुराल में स्त्री का क्या औचित्य? बिना पति के ससुराल में कोई पूछ परख नहीं। सम्मान का तो सवाल ही नहीं। कुछ समय बाद उलाहनने, ताने उपेक्षा और त्रास। रुक्मणी ने सोचा.! नही, मैं तो अब स्वयंवर ही नहीं करूंगी। मेरे सामने एक मार्ग है.! आत्मदाह। मैं तो स्वयं को अग्नि में ही समर्पित कर दूँगी.! बस..! अतिम निर्णय है मेरा..! बैशाख प्रारंभ। निर्धारित अतिथि गण पधारने लगे। सांदीपनि पुत्र पुनर्दत्त भी आ गये। यही महान योद्धा श्रृगलव से मुक्त नगरी करवीर पुर के सैन्य प्रशिक्षक थे। श्रृगलव के पुत्र शक्रदेव को कृष्ण ने ही तो स्वर्ण मुकुट पहनाया था। वह भी ससैन्य पहुंच गया। स्वयंवर के तीन दिन पूर्व वैवाहिक रश्में प्रारंभ भी हो गयीं। अब हमको रहस्यमयी कृष्ण के संबंध में भी थोडा़ जान लेना चाहिए। प्रभाष तीर्थ से कुछ माह पश्चात कृष्ण द्वारिका पहुंचे। ज्ञात हुआ कि सभी यादव नागपुर गये हैं। कृष्ण ने वसुदेव और देवकी से भेंट की। और अनुमति लेकर वह भी स्वयंवर हेतु निकल पडे़। तापी और पूर्णा नदी के त्रिकोण पर कोई दो मील की दूरी पर बसा था कुंडनपुर। वहां दोनों नदियों के संगम से सूर्यनगर (सूरत) तक विशाल जलयान चलते थे। यह स्थान अतिथियों के स्वागतार्थ तैयार था। केवल यादवों को ही नहीं बुलाया गया था। परन्तु बलराम, उद्वव और सात्यिकी सेना सहित आ चुके थे। मित्र शक्रदेव और युद्धाचार्य पुनर्दत्त भी यादवों से मिल गये। बलराम एवं शक्रदेव नदी संगम से समुद्र मार्ग पर ठहरे। श्वेतकेतु तो भीष्मक के पुरोहित ही थे, ने धार्मिक विधियां सम्हाल रखीं थीं। श्वेतकेतु पर आसक्त श्रृगलव की भतीजी, शैव्या भी अब तक कृष्ण की परमभक्त हो चुकी थी। वह भी रुक्मणी के साथ थी। रुक्मणी ने अपने मन ही मन में आत्मदाह के निर्णय को पहली बार शैव्या को बताया। परन्तु सभी को तो यही पता था कि रुक्मणी स्वयंवर करने जा रही है, उसके इस निर्णय से सर्वाधिक दुखी तो भाभी सुव्रता थी। उसको सौतन का भय था कि रुक्मणी का स्वयंवर होते ही रुक्मी भी सौत के नाम पर जरासंध की पौत्री अप्नवी को ले ही आयेगा। और फिर.! मुझ प्रौढा़ का क्या होगा ? भोजकुल की कुलदेवी थीं अन्नपूर्णा। जिनका मंदिर भी पूर्णा नदी के किनारे था। स्वयंवर के एक दिन पूर्व कुलदेवी की पूजन के लिए, राजप्रासाद से महिलाओं और शैव्या के साथ श्रृंगारित रुक्मणी निकलीं। भव्य मंदिर के आसपास सुरम्य वन, सुन्दर जलक्षेत्र। मंदिर के पीछे थोडी़ दूरी पर श्वेतकेतु और उद्धव ने चिता का निर्माण कर रखा था। उधर नदी संगम पर यादव सैन्य तथा शक्रदेव उपस्थित थे ही। रुकमणी ने मंदिर की अंधेरी गली में परिक्रमा हेतु प्रस्थान किया। महिलाओं ने मंगल गान प्रारंभ किया। वाद्य बजने लगे। सर्वत्र उमंग, उत्साह उल्लास और हर्ष। परिक्रमा में रुक्मणी थोडा़ दूर ही चली थी कि उसी की तरह सजी करवीर पुर की राजकुमारी शैव्या ने रुक्मणी का स्थान ले लिया। रुक्मणी पिछले द्वार से घने वृक्षों के झुरमुट में खो गयी। श्वेतकेतु उसको चिता के समीप ले गये। उद्वव भी वहीं थे। रुक्मणी का मानना था कि वरण किये हुए पति कृष्ण की अनुपस्थिति में चिता में अग्नि देने का अधिकार मात्र देवर को ही होता है। यही आर्य परम्परा भी है। रुक्मणी चिता में प्रवेश करने को तैयार थी ही कि! उसके कानों में घोड़ों की टापों की जोरदार ध्वनि सुनाई दी! कड़दम,कड़दम। उद्वव ने पीछे मुड़कर देखा- यह तो भैया हैं! कृष्ण हैं! रुक्मणी ने देखा - नाथ हैं! सर्वस्व हैं! कृष्ण का अश्व चिता के और! समीप आया। कृष्ण अश्व से नीचे उतरे। रुक्मणी को गोद में उठाया। हरण की परम्परानुसार रूक्मणी को सुन्दर अश्व पर बैठाया। पांचजन्य का गगनभेदी उदघोष किया, जिसको सुनकर बलराम, शक्रदेव, सात्यकी और पुनर्दत्त आदि योद्धाओं को ज्ञात हो गया कि कृष्ण आ गये हैं। शंख की तीव्र ध्वनि से सतर्क हुए रुक्मी ने भी भागते कृष्ण को घेर लिया। और फिर भीषण युद्ध, जिसमें रुक्मणी के आग्रह पर श्रीकृष्ण ने रुक्मी के प्राण बचाये। आज की कथा बस यहीं तक। तब तक विदा। धन्यवाद।