स्टोरी हाइलाइट्स
बिना युद्ध के विजय श्रीकृष्णार्पणमस्तु -11 victory-without-war-srikrishnarpanamastu-11
बिना युद्ध के विजय:- श्रीकृष्णार्पणमस्तु-11-रमेश तिवारी
श्रीकृष्ण के विरोधी राजा गण जरासंध के नेतृत्व में पुनः एकत्रित हो रहे थे। पराजय पर पराजय से कुंठित और विवेक शून्य जरासंध एक खतरनाक षड़यंत्र रच चुका था। उसकी योजना थी कि जब कृष्ण मथुरा खाली करके यादवों को द्वारका लेकर जायेंगे, तब मार्ग में उन सभी को चारों ओर से घेरकर गाजर मूली की तरह काट डालेंगे। और इतना ही नहीं.! इस कृष्ण की तो चटनी ही बना डालेंगे। इधर श्रीकृष्ण को जरासंध की हर गतिविधि और उसके षड़यंत्रकारी मित्रों की ताजा तरीन सूचनायें मिलती ही जा रही थी। जरासंध के वेतन भोगी गुप्तचर तो श्रीकृष्ण के कृपा पात्र बन चुके थे। एकांत में बैठे श्रीकृष्ण जब राज पुरोहित, महान ज्योतिषाचार्य तथा वास्तुशास्त्री मुनि गर्ग के कालयवन से गुप्त संबंधों के ताने बानों की गुत्थी सुलझाने का प्रयास कर रहे थे, गुप्तचर ने सिर चकरा देने वाली सूचना दी। जरासंध, भीष्मक, कालयवन, शाल्व और पौंडृ मिल चुके हैं। योजना है कि यह सब राजा राजस्थान से निकलते समय किसी विषम स्थान पर आक्रमण करेंगे। स्थान वह होगा जहां भयंकर शक्तिशाली कालयवन यादवों को रोकेगा। कालयवन की सेना नैऋत्य अर्थात् कच्छ के रण की ओर से आक्रमण करेगी। तब जरासंध मगध की ओर से, मर्तिकावती, अर्बुद (माउंट आबू) का राजा साल्व पश्चिम की ओर से तथा कुंडिनपुर का राजा भीष्मक दक्षिण दिशा की ओर से धावा बोल देगा।
गुप्तचर ने कहा- कृपानाथ, योजना तो यह है कि आप सहित यादवों को अंडी बच्चों सहित पीस डाला जाये। क्योंकि सम्राट कह रहे थे कि इस बार तो बांस ही नहीं रहने देंगे, तो फिर बांसुरी बजने का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा? निराश और हताश जरासंध के कान भरने वाला राजा पौंडृ स्वयं भी कुंठित था। वह नकली वसुदेव बना फिरता था। उसके अधिकार में, हजारीबाग, परगना संथाल और वीरभूमि क्षेत्र थे। उसके परामर्श से ही साल्व अपने सौभ नामक हवाई जहाज़ से कालयवन को कृष्ण के खिलाफ अभियान में निमंत्रण देने अतिंजय नगर पहुंचा था। कृष्ण यह जान चुके थे कि कालयवन गर्ग का अवैध पुत्र है। कृष्ण इस प्रश्न पर विचार करते करते चिंता में डूब चुके थे कि गर्ग जैसे एक महान ब्रह्मचारी से यह कैसे संभव हो सकता है।
श्रीकृष्ण ने गर्ग से सीधी चर्चा करना ही उचित समझा.! "मुनि ने भी सब कुछ सच, सच बता दिया। किस प्रकार सरस्वती के किनारे स्थित पश्चिम सीमा पर उनके आश्रम में उन्हें फंसाया गया और गोपाली नामक एक यादव अपसरा से कालयवन का जन्म हुआ। संक्षेप में बात यह है कि महाभारत काल तक सीमाओं पर महान ऋषियों का इतना वर्चस्व रहता था कि उनकी बिना इजाजत के कोई भी विदेशी आर्यावर्त में प्रवेश नहीं कर सकता था। खैर श्रीकृष्ण ने गर्ग के सम्मान की दृष्टि से और अधिक पूछाताछी करना उचित नहीं समझा। किंतु वे इतना तो समझ ही गये कि यवनरा़जा ने एक सीधे, साधे मुनि को मोहरा बना कर अपना उल्लू सिद्ध कर ही लिया। जाने कब से गर्ग पर दबिश डालकर आर्यावर्त की सीमा पर क्या क्या किया न किया जाता रहा होगा।
आज हम कृष्ण और पांडवों की प्रथम भेंट पर भी संक्षिप्त प्रकाश डाल लेते हैं। फिर कालयवन की कथा को आगे बढा़येंगे। वासुदेव की इच्छानुसार कृष्ण ने मंत्री अक्रूर को कुंती और पांडवों की स्थिति का पता करने पर लगा दिया। परिणाम सुखद आया। अक्रूर ने कृष्ण को बताया कि हिमालय के गंधमादन पर्वत से चलते हुए, पांचों भाई और कुंती आने वाले सूर्य ग्रहण पर धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में स्नान करने आने वाले हैं। कृष्ण ने भी बलराम के साथ कुरूक्षेत्र जाने की योजना बनाई, ताकि कुरुक्षेत्र में फुफेरे भाइयों से भेंट भी हो सके और सूर्यग्रहण का स्नान भी करलें आर्यावर्त में बिजनौर, कुरुक्षेत्र और हरिद्वार और बिठूर सहित क्षेत्र ब्रह्मावर्त कहलाता था। कुरुक्षेत्र महान तीर्थस्थान था। यही वामन की जन्म स्थली थी। आर्यो के सम्पूर्ण यज्ञ यहीं होते थे।
महीनों चलने वाले यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण कुरूक्षेत्र में ही रहते थे। इन यज्ञों में आर्यो के संस्कारों पर गंभीर चर्चा होती। ऋचाओं पर भी मंथन होता। वेदों के उच्चारण की शुद्धता पर भी वाद संवाद होते। आर्यों के नियम आदि बनाये जाते। जिन्हें सब मानते थे। कुरूक्षेत्र के स्नानों और यज्ञों में आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त के सभी राजा और सम्राट उपस्थित होते। और अब। अब तो कृष्ण, कुंती तथा पांडवों का प्रथम परिचय और मिलन भी होने वाला था। आज की कथा बस यहीं तक। तब तक विदा। धन्यवाद|