स्टोरी हाइलाइट्स
जीवन बहुत विचित्रताओं से भरा है। इसमे परत दर परत ऐसे रहस्य उजागर होते हैं कि स्वयं आश्चर्य को भी आश्चर्य होता है| अर्जुन और कृष्ण के बीच युद्ध क्यों हुआ
अर्जुन और कृष्ण के बीच युद्ध क्यों हुआ.. दिनेश मालवीय
ज़रा सी लापरवाही डाल सकती है जान जोखिम मे,
अनहोनियाँ जीवन का अभिन्न अंग हैं,
पहले हमने बताया था कि जीवन बहुत विचित्रताओं से भरा है। इसमे परत दर परत ऐसे रहस्य उजागर होते हैं कि स्वयं आश्चर्य को भी आश्चर्य होता है। जीवन गणित नहीं है, जिसमें दो और दो का जोड़ चार ही होता है। जीवन एक काव्य है, जिसमे अर्थ बहुत सूक्ष्मता से व्यंजित होते हैं। जीवन मे अक्सर ऐसा होता है कि हमे अपने बहुत प्रिय और उपकार करने वाले के विरुद्ध खड़ा होना पड़ता है। कई बार सशस्त्र संघर्ष की नौबत आ जाती है। इस संदर्भ मे सबसे उपयुक्त उदाहरण महाभारत युद्ध है, इसमे युद्दभूमि मे संबंधों का सारा तानाबाना बिखर गया था।
लेकिन ऐसा सिर्फ़ महाभारत मे नहीं हुआ। हमने श्रीविष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और भगवान शिव के बीच युद्ध के घटनाक्रम तथा उसके परिणाम को बताया था। हम दो ऐसी महान विभूतियों के बीच हुये युद्ध की चर्चा करेंगे, जिनके आपस मे लड़ने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। उनके बीच सांसारिक सबंध के साथ साथ गुरु शिष्य और भक्त आराध्य का भी प्रगाढ़ संबंध था। महाभारत के युद्ध मे ये दोनो सबसे बड़े नायक थे।
जी हाँ, हम बात कर रहे हैं कुंती नंदन अर्जुन और वासुदेव श्रीकृष्ण की। जीवन ने इनके सामने ऐसी परिस्थिति लाकर खड़ी कर दी कि युद्ध के सिवा कोई विकल्प ही नहीं रह गया। इस असंभव सी लगने वाली घटना के पीछे एक बहुत रोचक घटनाक्रम है। हुआ यूँ कि लोक विख्यात गंधर्व चित्रसेन अपनी पत्नी चित्रांगी के साथ विमान में बैठकर गंगा स्नान के लिये आया था। भौर का समय था। उसी समय ऋषि गालब भी अपने शिष्यों के साथ स्नान के लिये पधारे।
स्नान के बाद जब गालब ने सूर्य को अर्घ्य देने के लिये जब अंजुलि में जल लिया, तभी स्नान कर विमान से वापह जा रहे चित्रसेन ने अपने मुँह से पान की पीक मारी,जो ऋषि गालब की अंजुलि में आकर गिरी। यह देखकर ऋषि को बहुत क्रोध आया। जब उन्होंने ऊपर देखा, तो चित्रसेन विमान से जाता हुआ दिखा। ऋषि ने सारी बात श्रीकृष्ण को जाकर बताई।
ऋषियों के मान सम्मान की रक्षा के लिये सदा तत्पर श्रीकृष्ण यह सुनकर बहुत क्रुद्ध हुये। उन्होंने अगले दिन की शाम तक चित्रसेन का वध करने की प्रतिज्ञा की। इसी बीच देवर्षि नारद वहाँ आ पहुँचे। गालब ने नारदजी को भी सारी तथा कथा बता दी। नारदजी गालब और श्रीकृष्ण को समझाया कि चित्रसेन ने ऐसा जानबूझकर नहीं किया, इसलिए उसे मृत्युदंड नहीं मिलना चाहिये। लेकिन श्री कृष्ण और गालब दोनो अपनी बात पर अड़े रहे।
नारद चित्रसेन को बचाने का रास्ता निकालने की गरज से देवराज इंद्र के पास गये। उन्होंने श्रीकृष्ण की प्रतीज्ञा की बात उन्हें बताई। यह जानने पर चित्रसेन और उसकी पत्नी भी बहुत दुखी हुये। वे नारद से कुछ उपाय करने की प्रार्थना करते हैं। इंद्र श्रीकृष्ण के भय से उसकी रक्षा के लिये तैयार नहीं हुये। नारदजी ने चित्रसेन को पाण्डवों के पास भेजा। गंधर्व महाबली भीमसेन के पैरों में गिरकर उनसे रक्षा की गुहार लगाता है। अर्जुन उसे उठाकर सारी बात पूछते हैं। चित्रसेन ने सारी बात विस्तार से बता दी। श्रीकृष्ण से लड़ने की बात से ही अर्जुन सहम जाते हैं। द्रोपदी भी ऐसा नहीं चाहती। लेकिन भीमसेन शरणागत की रक्षा को महत्व देते हैं। लेकिन अंत मे द्रोपदी से सहमत हो गये।
कोई विकल्प न रहने पर नारदजी ने चित्रसेन से कहा कि तुम पत्नी और बच्चों सहित गंगा तट पर चिता लगाकर बैठ जाओ और ख़ूब रोते रहो। अगर कोई तुम्हारे दुख का कारण पूछे तो पहले उससे रक्षा का वचन लेकर कुछ बताना। अन्यथा श्रीकृष्ण के मारने आने पर उनके मारने से पहले ही चिता पर चढ़ जाना। उसने ऐसा ही किया।
इधर नारद श्रीकृष्ण की धर्मपत्नी सुभद्रा के पास पहुँचे। उस दिन आनंद पर्व था। उन्होंने सुभद्रा को गंगा स्नान के लिये जाने को प्रेरित किया। वह नारद के साथ गंगा स्नान के लिये जाती हैं। वहाँ चिता धधकती देखकर वह चित्रसेन से इसका कारण पूछती हैं। नारदजी की योजना के अनुसार वह पहले सुभद्रा से जीवन रक्षा का प्रण ले लेता है। सुभद्रा को पछतावा तो बहुत हुआ,लेकिन वह प्रण ले चुकी थीं। सुभद्रा उसे अपने घर ले गयीं। उन्होंने अर्जुन को बिना बताये उनसे एक किसी आगंतुक के प्राण बचाने की प्रतीज्ञा करवाली। इसके बाद वह चित्रसेन को सामने लायीं।
अर्जुन हतप्रभ रह जाते हैं। उन्हें पता था कि श्रीकृष्ण ने उसका वध करने की प्रतीज्ञा की है। उन्होने कहा कि जिन श्रीकृष्ण को वह अपना सर्वस्व मानते हैं, उनके साथ युद्ध कैसे करेंगे। सुभद्रा ने कहा कि यदि आप नहीं कर सकते तो अपने शस्त्र मुझे दे दो, मैं अपने भाई श्रीकृष्ण से युद्ध करूँगी। अर्जुन आवेश मे आकर कहते हैं कि मेरे होते हुये तुम युद्ध कैसे करोगी।
ऐसा कहकर अर्जुन श्रीकृष्ण से युद्ध करने को चल पड़े। अपने सामने युद्ध करने खड़े अर्जुन को देखकर श्रीकृष्ण दंग रह गये। वह अपने द्वारा किये गये उपकारों की याद दिलाकर अर्जुन को धिक्कारते हैं। लेकिन अर्जुन ने उनकी एक न सुनी। अंत मे श्रीकृष्ण अर्जुन पर प्रहार करते हैं। अर्जुन मूर्च्छित होकर ज़मीन पर गिर पड़ते हैं।
श्रीकृष्ण स्वयं उन्हें उठाते हैं। चेतना लौटने पर अर्जुन श्रीकृष्ण को युद्ध के लिये ललकारते हुए पाशुपत अस्त्र का संधान करते हैं। यह देखकर भगवान शिव स्वयं प्रकट होकर श्रीकृष्ण को समझाते हैं। फिर भी श्रीकृष्ण युद्ध से हटना नहीं चाहते। शिवजी अर्जुन को अपने इस अस्त्र के प्रयोग की अनुमति भी दे दी। लेकिन तभी ब्रह्माजी और गालब श्रृषि वहाँ आ जाते हैं। गारब स्वयं अपने वचन वापस ले लेते हैं।
इस तरह चित्रसेन की जान बच जाती है। इसी के साथ भक्त और भगवान के युद्ध पर विराम लग जाता है। इस प्रसंग से यही शिक्षा मिलती है कि हमे अपने किसी भी काम मे लापरवाह नहीं होना चाहिए। चित्रसेन की लापरवाही ने उसके प्राण संकट में डाल दिये थे। दूसरी बात यह कि यदि हमसे अनजाने में कोई अपराध हो गया हो तो, दैवीय शक्ति हमें बचाने का उपाय कर ही लेती है।
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