योग के आठ अंग क्या हैं? और उनका अभ्यास कैसे करें? अष्टांग योग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित पतंजलि योगसूत्र में वर्णित ऐसी साधना पद्धति है। जिसके द्वारा मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्धेश्य में मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। महर्षि पतंजलि ने साधन पाद में अष्टांग योग का वर्णन किया है। अष्टांग योग जैसा कि नाम से विदित हो रहा है। अष्टांग योग, आठ अंगों वाला योग। महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगो को अष्टांग योग का नाम दिया है। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में साधको की श्रे णी निर्धारित की है। इनमें सामान्य कोटि के साधको के लिए अष्टांग योग की साधना बताई गयी है। वे साधक जिनकी न तो शरीर शुद्ध है और न ही चित्त शुद्ध है। ऐसे साधको के लिए अष्टांग योग का मार्ग बताया गया हैं। महर्षि पतंजलि ने दूसरी श्रेणि मध्यम कोटि के साधको के लिए बताई हैं। जिसके लिए क्रिया योग की साधना बताई गयी है। उच्च कोटि के साधको के लिए अभ्यास - वैराग्य की साधना बताई गयी है, व ईश्वर प्राणिधान के द्वारा उच्च कोटि के साधक समाधि की अवस्था को प्राप्त कर सकते है। महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार तीनो श्रे णियो के लिए साधनाए बताई गयी है। निम्न कोटि के साधको के लिए अष्टागं योग की साधना बताई है। अष्टांग योग की साधना से ज्ञान की प्राप्ति होती हैं, और अज्ञानता छूटता जाता है। इस साधना से चित्त शुद्ध होता है। चित्त शुद्ध होने पर ही विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती है। अध्यात्म विद्या में योग का महत्वर्पू ण स्थान है। जिसके माध्यम से मोक्ष सम्भव है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए योग के अनेक स्वरूपो की चर्चा शास्त्रो व आर्ष ग्रन्थों में की गयी है। इनमें कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि है। इन्हीे उपायों में से महर्षि पतंजलि ने चित्त की शुद्धि के लिए व विवेक ख्याति की प्राप्ति के लिए अष्टांग योग का मार्ग बताया है। जिसका वर्णन उन्होने साधन पाद में इस प्रकार किया हैं - योगाडगणनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवकेख्यातेः। पा0 यो0 सू0 2/28 अर्थात् योग के आठ अंगो का अनुष्ठान करने (उनको आचरण में लाने) से चित्त के मल का अभाव होकर वह सर्वथा निर्मल हो जाता है। उस समय योगी के ज्ञान का प्रकाश विवेक ख्याति तक हो जाता है। अर्थात् उसे आत्मा का स्वरूप बुद्धि, अहंकार और इन्द्रियो से सवर्था भिन्न प्रत्यक्ष दिखाई देता है। अष्टांग योग के साधनो से चित्त शुद्ध होने पर विवेक ज्ञान प्राप्ति होता है। महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद के अगले सूत्र में अष्टांग योग का वर्णन इस प्रकार किया हैं - यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहारधार णा ध्यान समाधयो--ष्टाऊंवंगानि । यो0सू02/29 अर्थात् यम, नियम, आसन, प्रा णायाम, प्रत्याहार, धार णा, ध्यान व समाधि ये योग के आठ अंग हैं। जिसे अष्टागं योग कहते है। इन आठ अंगो का अनुष्ठान करने से चित्त की शुद्धि होकर विवेक ज्ञान का प्रकाश होता है। इन साधनो को कर्म से साधने पर चित्त शुद्ध हो जाता हैं। यम के साधने से व्यवहारिक आचरण शुद्धि होती है। नियमो के साधने से आन्तरिक अनुशासन व व्यवहार की शुद्धि होती हैं। आसन व प्रा णायाम के अभ्यास से शरीर की शुद्धि होती हैं। श्वासो व नाड़ियो की शुद्धि होती है। प्रत्याहार से इन्द्रियों की शुद्धि होती है। धार णा, ध्यान, समाधि के अभ्यास से चित्त निर्मल होकर सत्य स्वरूप आत्मा का ज्ञान हो जाता है। अष्टांग योग, योग की आठ वह सीढ़ियां है, जिन पर क्रम से चलकर समाधि की प्राप्ति होती है। अष्टांग योग की साधना के निम्न भेद इस प्रकार है - - बर्हिरंग योग - महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में से यम नियम आसन प्रा णायाम प्रत्याहार ये पांच योगांग बर्हिरंग साधन कहलाते हैं। ये पांच योगांग बाहृय क्रिया कलापो से सम्बन्धित होने के कारण तथा विभूति प्राप्त करने के लिए बाहृय साधनांे के रूप में प्रयुक्त होने व अन्तरंग साधनो की सिद्धि के लिए दृढ़ आधार रूप भूमिका तैयार करने के कारणइन्हें बर्हिरंग साधन कहते हैं। इसकेे अतिरिक्त योग साधना में नवदीक्षित साधको के सामान्य अभ्यास के लिए ये महत्वर्पू ण होते है। इसलिए इन्हें बर्हिरंग साधन कहा गया हैं। ये साधन निम्न प्रकार है - (1) यम - अष्टांग योग का पहला अंग ‘यम’ है। यम वाह्नय आचरण की शुद्धि करता है। मनुष्य का चरित्र शुद्ध होने पर ही वह साधना में प्रवृत हो सकता है, अन्यथा नहीं। यम द्वारा अच्छे संस्कारों का उदय होता हैं। शास्त्रों में यम को इस प्रकार परिभाषित किया गया है - यम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की दो धातुओं से मानी गयी है - (अ)- यम उप्रमे यम उप्रमे का अर्थ है - ब्रहम में रमण करना (ब)- यम बन्धने यम बन्धने का अर्थ है - सामाजिक बंधन यमयन्ति निवतयन्ति (निवत्र्यन्ति) इतियमा। अर्थात् जो अवांछनीय कार्यो से मुक्ति दिलाता हैं। निवृत्ति दिलाता है। वह यम कहलाता है। त्रिशिखी ब्रहमणोपनिषद के अनुसार - ‘देह इन्द्रियसु वैराग्यं यम इति उच्यते बुधैः।’ अर्थात् यम शरीर और इन्द्रियों में वैराग्य की स्थिती है। ऐसा बुद्धिमान लोग मानते है। यमयते नियम्यते चित्त अनेन इति यमः। अर्थात् चित्त को नियम पूर्वक चलाना यम कहलाता है। इस प्रकार यम एक प्रकार का संयम है। कायिक, मानसिक व वाचिक संयम को यम कहा जा सकता है। यम के अन्तर्गत पांच तत्व आते है। महर्षि पतंजलि ने पतंजलि योगसूत्र में पांच प्रकार के यमो का वर्णन किया है। ‘अहिंसा सत्यास्तेय ब्रहमचर्यपरिग्रहा यमाः।’ दृ पा0 यो0 सू0 2/30 अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम है। यम से मनुष्य के बाह्नय आचरण की शुद्धि होती है। ये निम्न प्रकार है - (क) - अहिंसा - अहिंसा का अर्थ है, मन वचन कर्म से किसी भी प्राणी को कभी भी किसी प्रकार से दुःख ना देना, उनका अपकार न करना अहिंसा हैं। किसी से द्वेष भाव रखना, दूसरों की भलाई न देख सकना, शत्रुता का भाव रखना, ये सब हिंसा है। ऐसा न करना ही अहिंसा हैं। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने अहिंसा का वर्णन करते हुए लिखा है ‘वितर्का हिंसादयः कृतकारितनुमोदिता लोभ क्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्ष भावनम्।’ - पा0 यो0 सू0 2/34 इस पाद से वितर्को के स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार हिंसा तीन प्रकार की होती है - कृत, कारित, अनुमोदित । -- कृत - स्वयं की हुयी -- कारित - आज्ञा देकर कराई हुयी -- अनुमोदित - अनुमोदित की हुई (बहुत अच्छा किया, ठीक किया) इस प्रकार हिंसा तीन प्रकार की होती है। यह हिंसा भी अज्ञान के कारणही होती है। जबकि परमब्रहम परमात्मा को जानने वाले ज्ञानी पुरूष सभी प्रा णियो में उसी ईश्वर का स्वरूप देखता है। सभी में एकतत्व के दर्शन करने वाले सत्पुरूषों का किससे बैर व किससे मोह अर्थात् वह ज्ञान प्राप्त होने पर भेद बुद्धि समाप्त हो जाता है। इस प्रकार जब योगी पूर्णतया अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाता है, तब हिंसक से हिंसक प्राणी भी उससे बैर त्याग देता है। अहिंसक हो जाता है, जिसका वर्णन महर्षि ने इस प्रकार किया है। ‘अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैरत्यागः।’ दृ पा0 यो0 सू0 2/35 अर्थात् अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी के निकट हिंसक प्रा णी भी बैर त्याग कर मित्रवत हो जाते है। अभिप्राय यह है कि योगी के हिंसा भाव का सर्वथा अभाव हो जाने पर केवल मनुष्य ही नहीं वरन् हिंसक वन्य पशु - पक्षी भी हिंसा का त्याग कर देते है। योगी को अभयता प्राप्त हो जाती है। (ख) - सत्य - सत्य का अर्थ है। मन वचन कर्म में एक रूपता अर्थात् मन और वाणी का व्यवहार अर्थानुकूल होना। इन्द्रियों और मन से जैसा देखा वैसा ही दूसरो के समक्ष प्रकट करते समय मन और वाणी से प्रकट करना ही सत्य है। शास्त्रो में कहा बया है - ‘सत्यं ब्रुयात् प्रियं बं्रुयात् नसत्यम म्।’ अर्थात् सदा सत्य बोले, बोले, ऐसा वचन न बोले जो कि सुनने में कटु हो, अ हो, ऐसा सत्य न बोले जैसे नेत्र हिन को अन्धा कह देना सत्य है। परन्तु अ (कटु) सत्य है। मडूकोपनिषद कहता है - ‘सत्यमेवजयते नानृतं।’ अर्थात् - सत्य की जीत होती हैं, असत्य की नहीं। योग के साधक को सत्य का तीन प्रकार से पालन करना चाहिए। जैसा कि वेदों में भी कहा गया है - मानसिक सत्य, वाचिक सत्य, कायिक सत्य। -- मानसिक सत्य - लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि से रहित हुआ मन, शुद्ध मन से तथा वाणी से व्यवहार करना मानसिक सत्य है। मानसिक सत्य का सर्वाधिक महत्व स्वीकार किया गया है। जैसा कि ऋग्वेद में वर्णन किया गया है - ‘नि गव्यता मनसा।’ - ऋग्वेद 3/31/9 अर्थात् जो साधक मन के अनुसार वाणी का व्यवहार करता हैं वही अमरत्व की भूमिका तैयार करता है। वही यज्ञ के महत्व को जानता है। -- वाचिक सत्य - अहंकार, क्रोध के वशीभूत होकर बोले जाने वाले असत्य वचनो को (कटु वचनो) को त्याग कर सत्य एवं मधुर वचन बोलना वाचिक सत्य है। सत्य के साथ - साथ वेदों में भी वाणी, मधुर वाणी का प्रयोग पर बल दिया गया है। वाणी से सत्य भाष ण करने पर जब अमोघ शक्ति प्राप्त होती है। ये ही अन्त में ब्रहम प्राप्ति में सहायक है। जिसका वर्णन ऋग्वेद में इस प्रकार से है - ‘ऋतं येमान ऋतमिद् वनोत्यृतस्य शुष्मस्तुरया उगव्यु।- ऋग्वेद 4/23/10 -- कायिक सत्य - मन एवं वाणी के अनुरूप सत्याचरण करना कायिक सत्य है। अर्थात शरीर के द्वारा सत्य धर्म युक्त कार्यों को करना ही सत्य आचरण कहलाता है। सत्य के आचरण के लिए वेदों में निर्देश दिये गये है। वेदों में सत्य को स्वभाव में उतारने के लिए वेदों में निर्देश दिया गया है - ‘इदं द्यावापृथिवी सत्यमस्तु पितर्मातर्यदिहोपब्रुवेवाम्।’ ऋग्वेद 1/185/11 (भावार्थः) अर्थात् माता - पिता बाल्यावस्था से ही सन्तानों को सदाचार की शिक्षा दें, तथा सन्तान उनका सदाचरण के लिए अनुकरण करें। इस प्रकार सत्य का मन, वचन, कर्म से पालन करने वाला मनुष्य साधना के पथ पर आगे बढ़ता है। तथा उसका जीवन उत्कृष्टता की ओर अग्रसर होता है। सत्य की प्रतिष्ठा होने पर अर्थात् सत्य के फल के बारे में महर्षि पतंजलि ने कहा है - ‘सत्य प्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।’ दृ 2/36 पा0 यो0 सू0 अर्थात् सत्य की प्रतिष्ठा होने पर वाणी और विचारों में क्रिया फलदान की शक्ति उत्पन्न ही जाती है। ऐसा व्यक्ति जो भी कुछ बोलता है, वह फलित होने लगता है। अर्थात उसकी वाणी में अमोघ शक्ति आ जाती है। (ग) - अस्तेय - यमो में तीसरा स्थान अस्तेय का है। स्तेय का अर्थ है, स्वामी की आज्ञा के बिना, अनाधिकृत पदार्थ को अपना लेना या ग्रह ण कर लेना इसके विपरीत अस्तेय का अर्थ है - मन, वचन, कर्म से परद्रव्य के प्रति लालसा की प्रवृति का त्याग कर देना है। विना आज्ञा किसी की वस्तु लेने से जो उस मनुष्य को कष्ट होता है। वह भी एक प्रकार की हिंसा है। और परद्रव्य (वस्तु) का अपहरण न करना ही अहिंसा है। इस प्रकार की अहिंसा का पालन ही अस्तेय है। शाडिल्योपनिषद में कहा गया है - ‘अस्तेयं नाम मनोवाक् कायकर्मभिः परद्रव्येशु निस्पृहता।’ अर्थात् मन, शरीर और वाणी से दूसरो के द्रव्य (वस्तु) की इच्छा न करना अस्तेय है। याज्ञवल्क्य संहिता में कहा गया है - ‘‘मनसा वाचा कर्म णां परद्रव्येशु निस्पृहः। अस्तेयनिति सम्प्रोक्तं ऋषिभ्ज्ञिः तत्व दर्शिभिः।।’’ अर्थात् मन, वचन, और कर्म स दूसरे के द्रव्य की इच्छा न करना अस्तेय है। व्यास भाष में महर्षि व्यास का है - ‘स्तेयमशस्त्रपर्वकं द्रव्या णां परतः स्वीकर णं तत्प्रतिषेधः। पुनरस्पृहारूपमस्तेयमिति।।’’ - यो0 व्यास भाष्य 2/30 अर्थात् शास्त्र निषिद्ध रीति से दूसरे के द्रव्यों का लेना स्तेय है। तथा इसके विपरीत उन वस्तुओं में किसी प्रकार का राग ना होना, पर द्रव्य में राग का प्रतिशेध ही अस्तेय है। इसलिए छोटी से बड़ी वस्तु, मिट्टी से लेकर सोना, चाऊंदी, हीरा, मोती आदि कितनी भी मूल्यवान वस्तु क्यों ना हो, उन वस्तुओ को पूछे बिना, अनीतिपूर्वक, मन, वचन तथा शरीर से ग्रह ण करने की इच्छा का अभाव होना अस्तेय है। अस्तेय सिद्धि के विषय में योगसूत्र में महर्षि पतंजलि ने वर्णन किया है - ‘अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।’ दृ पा0 यो0 सू0 2/37 अर्थात् अस्तेय की प्रतिष्ठा होने पर सभी प्रकार के द्रव्य पदार्थ, रतन आदि बिना इच्छा के प्राप्त होने लगते हैं। उस मनुष्य को किसी भी प्रकार के धन, रत्न का प्रभाव नहीं रहता है। श्री मद्भगवद्गीता में श्रीकृष् ण ने स्पष्ट शब्दो में कहा है - ‘अनन्याष्चिन्तयन्तो मा ये जनाः पर्युपासते। तेशां नित्याभियुक्तानां योगश्रेम वहाम्यहम्।।’’ - गीता 9/22 अर्थात् जो उपासक ईश्वर को अनन्य भक्ति भाव से भजते हैव इच्छा का त्याग व आसक्ति रहित जीवन जीते हुए निरन्तर ध्यान व चिन्तन करते रहते है। उन भक्तों का मैं योगश्रेम मैं स्वयं वहन करता हूऊं। इस प्रकार पर द्रव्य की इच्छा न रखने वाले अस्तेय प्रतिष्ठित पुरूषों को में किसी भी प्रकार के द्रव्यों की व भौतिक सुख सुविधाओ का कदापि अभाव नहीं रहता है। यह वस्तु उन्हें उनकी इच्छाओं से पूर्व ही उपलब्ध हो जाती है। (घ) - ब्रहमचर्य - योग के साधनों में उपयोगिता की दृष्टि से ब्रहमचर्य का प्रथम स्थान है। यमो में इसकी गणना चतुर्थ स्थान पर है। ब्रहमचर्य मन को ब्रहम में आचरण या ईश्वर परायण बनाये रखना ही है। (ड़) - अपरिग्रह - महर्षि पतंजलि ने पंचम स्थान पर अपरिग्रह का परिग णन किया है। महर्षि व्यास ने अपरिग्रह को इस प्रकार परिभाषित किया है - ‘अवशयाणामर्जनरक्षणक्षयसंग्ड़ हिंसादोषदर्शनादस्वीकर णमपरिग्रहः।’ यो0 व्या0 भा0 2/30 अर्थात् विषयो को संग्रह करने में, उनकी रक्षा व नाश से सर्वत्र हिंसारूप दोष को देखकर स्वीकार ना करना अपरिग्रह कहलाता है। भोज वृत्तिकार ने इसको संक्षेप में कहा है - ‘अपरिग्रहो भोगसाधनानामडग़्णीकारः।’ - भो0 वृ0 2/30 अर्थात् भोग साधना को स्वीकार ना करना अपरिग्रह है। संचय वृत्ति का त्याग अपरिग्रह है। अर्थात् आवश्यकता से अधिक धन का संगह न करना, अपने जीविकोपार्जन के लिए जितना आवश्यक हो उतना संचय करना। अतः साधको व योगियो के लिए कहा गया है, कि देह रक्षा के अतिरिक्त भोग साधनो का परित्याग कर देना चाहिए। महर्षि पतंजलि ने अपरिग्रह का फल बताते हुए योगशास्त्र में कहा है - ‘अपरिग्रहस्थैर्य जन्मकथन्ता सम्बोधः।’ दृ पा0 यो0 सू0 2/39 अर्थात् अपरिग्रह के दृढ़ प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी को पूर्व जन्म में क्या थे, कैसे थे, की स्मृति हो जाती है। पूर्ण अपरिग्रह प्राप्त होने पर जन्म वृतान्त का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अर्थात् पूर्व जन्म का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तथा अगला जन्म में क्या होने वाला है, इसका ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है। (2) नियम - यमों के साथ नियमो का पालन भी आवश्यक हैं। यमों में मानसिक भूमिका अधिक महत्वर्पू ण है। यह मनुष्य की सामाजिक एवं वाहृय क्रियाओं सामजस्यपूर्ण बनाते है। तो नियम से मनुष्य जीवन का नियमन होता हैं। यम और नियम साधक के लिए क्रमशः सामाजिक और वैयक्तिक उपलब्धि है। वेदों में यम ओर नियम को पक्षी के दो पंखो के समान कहा है। जिस प्रकार पक्षी अपने दोनों पखो के फड़फड़ाने पर ही आकाश में विचरण करते है, उसी प्रकार योगी को भी यम, नियम का समान भाव से पालन करना अनिवार्य है। तथा इसके पालन से ही वह योग साधना के पथ पर अग्रसर होता है। वैदिक मतानुसार पांच प्रकार के नियमो का उल्लेख संहिताओं में मिलता है। जिनका उल्लेख महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में इस प्रकार किया है - ‘शौच सन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्र णिधानानि नियमाः।’ पा0 यो0 सू0 2/32 अर्थात शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान ये पांच नियम है। (क) - शौच - शौच शब्द की निष्पत्ति शुचि शब्द में अ ण् प्रत्यय लगाकर होती है। जिसका अर्थ है, पवित्रता, परिशुद्धि, सफाई। शौच से तात्पर्य शारीरिक, मानसिक व वाचिक शुद्धि से है। जिसमें निन्दितो का संग ना करना आदि है। शौच या शुद्धि को दो भागो में विभक्त किया जा सकता है - (अ) - वाहृय शुद्धि - (1) - शारीरिक शुद्धि - (2) - वाचिक शुद्धि - (ब) - आन्तरिक शुद्धि - मानसिक शुद्धि - (अ) - वाहृय शुद्धि - वाहृय शुद्धि जिसके अन्तर्गत शारीरिक शुद्धि तथा वाचिक शुद्धि आते है। ‘आपो अस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तुः।’ - यजु0 वेद 4/2 शारीरिक शुद्धि के अन्तर्गत सत्याचरण से मानव व्यवहार की शुद्धि, विद्या व तप से पंचमहाभूतो की शुद्धि ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि आदि होती है। शारीरिक शुद्धि पवित्र जल से स्नान आदि द्वारा होती है। शारीरिक शुद्धि के लिए जल अत्यन्त उपयोगी, रोगनाशक व पुष्टिकारक व ब्रहमचर्य में सहायक प्रा णों को धारण करने वाला माता पिता के समान पालन करने वाला है। वाचिक शुद्धि के अन्तर्गत सत्याचर ण, स्पष्ट व्यवहार व वाणी को पवित्र करने के लिए मन्त्रोचारण एवं शुद्ध शब्दोचारण आदि आता है। मधुर भाषा द्वारा ही वाणी की शुद्धि सम्भव है। अतः योग साधना में तत्पर साधको के लिए वाणी का शुद्ध होना अत्यन्त आवश्यक है। (ब) - आन्तरिक शुद्धि - अन्तकरण में उठने वाले भावो की शुद्धि आन्तरिक शुद्धि कहलाती है। दूषित भावनाओं को समाप्त करने के लिए तथा पवित्र मानसिक भावनाओ को जाग्रत करने के लिए सत्संग, साधना, प्र णायाम, ध्यान आदि साधना करना ही आन्तरिक शुद्धि है। धर्म में कमाया धन, कर्मो तथा सात्विक खान - पान से मानसिक भावो का परिष्कार होता है। मानसिक शुद्धि ईष्र्या, अभिमान, घृ णा आदि मन के मलो को योगसूत्र में वताये गये उपाय (मैत्री, करू णा, मुदिता, उपेक्षा - 1/31) द्वारा दूर करना, तथा मन में आने वाले बुरे विचारों को अच्छे विचारों से दूर करना तथा शुद्ध व्यवहार द्वारा दुव्र्यहार को हटाना ही मानसिक (शौच) शुद्धि है। योगसूत्र में शौच के फल के विषय में कहा गया है - ‘शौचत्स्वांगजुगुप्सा परैरसंसर्गः।’ - पा0 यो0 सू0 2/40 अर्थात् शौच (पवित्रता) के पालन से अपने अंगो में वैराग्य (घृ णा) और दूसरो से संसर्ग न करने की इच्छा होती है। महर्षि पतंजलि ने अगले सूत्र में वर्णन किया है - ‘सत्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्म दर्शन योग्यत्वानि च।’- पा0 यो0 सू0 2/41 अर्थात् इसके सिवाय शौच से ’अन्तकर ण’ की शुद्धि होती है। तथा चित्त एकाग्र होता है, मन में प्रसन्नता, इन्द्रिया वश में होती है। तथा आत्म दर्शन की योग्यता आती है। (ख) - सन्तोष - सन्तोष शब्द तुष शब्दौ एवं तुष प्रीतौ धातु से निर्मित हुआ है। सन्तोष का अर्थ है - सम्यक प्रकार से तुष्टि एवं प्रीति। अर्थात् शरीर द्वारा पूर्ण पुरूषार्थ कर उससे प्राप्त धन से अधिक का लालच ना करना तथा न्यूनाधिक (कम -ज्यादा) की प्राप्ति पर शोक और हर्ष ना करना। सन्तोष का पालन मन, वचन तथा कर्म से करना अनिवार्य है, व साधक के लिए हितकारी है। सामान्य अर्थ में अन्तःकरण में संतुष्टि का भाव जाग्रत होना ही सन्तोष है। अपने कर्तव्य कर्मो को करते हुए हमे प्रारब्ध कर्मो के कारण जो भी अर्थ लाभ हो उसी में संतुष्ट बने रहना सन्तोष है। हर परिस्थिति में सुख में, दुख में, सदा सम बने रहना अपना धैर्य ना खोना तथा प्रसन्नचित्त बने रहना सन्तोष है। इसके विपरित असन्तोष या तृष् णा ही दुःख का मूल है। सन्तोष का पालन मन, वचन एवं कर्म तीन प्रकार से पालनीय है - (1) - मानसिक सन्तोष - मानसिक सन्तोष वह है। धन, सम्पत्ति व भोग सामाग्री की न्यूनता होने पर भी सन्तुष्ट रहना, समाज या ईश्वर या प्रारब्ध पर क्रोध, रोष या अधैर्य न करना, मानसिक सन्तोष है। वेदों में सन्तोष के पालन का आदेश इस प्रकार दिये गये है - ‘तेन व्यक्तेन भुज्जीथा मा गृधः कस्थस्विद्धनम्।’ - युज0 40/1 अर्थात् ’सन्तोष बुद्धि उत्पन्न करने के लिए त्यागपूर्वक भोग करो किसी के धन की लालसा मत करो’। वेद का यह आदेश पालनीय है। (2) - वाचिक सन्तोष - अत्यधिक बोलने का त्याग कर परिमित बोलना ही वाचिक सन्तोष है। किसी के कठोर वचन सुनकर, या अपमानित होने पर भी आवेग में ना आना, विवाद ना करना, गुरूजनो व श्रेष्ठजनो के द्वारा प्रताड़ित होने पर प्रत्युतर ना देना तथा मौन धारण करना वाचिक सन्तोष के अन्तर्गत आता है। वेदों में वाचिक सन्तोष का वर्णन इस प्रकार किया है - ’’वाचं वदतु शन्तिवाम्। वचं वदत भद्रया।।’’ - अर्थ0 3/30/2-3 अर्थात् मधुर वाणी व भद्र वाणी तथा शान्तिमय वचन बोलने चाहिए, यहि वाचिक सन्तोष है। (3) - शारीरिक सन्तोष - ब्रहमचर्य का पालन करना, सत्कर्मों का अनुष्ठान करना, दीन दुखियो की सेवा करते हुए, काम, क्रोध आदि दोषो से प्रभावित न होना, हिंसा, चोरी, आदि गलत कृत्य ना करना ही शारीरिक सन्तोष है। इस प्रकार धन तथा भोग विलास को अनित्य जानकर सभी संणसारिक सुखों को गौ ण मानकर साधक का लक्ष्य ब्रहमप्राप्ति का होना ही सन्तोष है। ध्यान देने योग्य यह तथ्य है। कि सन्तोष का अर्थ जहाँ जो कुछ भी मिले उसी में संन्तुष्ट रहना है। तो इसका अर्थ यह नहीं कि आलसी व भाग्य के भरोसे बैठे रहना सन्तोश है। शास्त्रो व वेदो में ऐसे आलसी व प्रमादी व परिश्रम ना करने वालो का विरोध किया गया है। योग सूत्र में सन्तोष का फल बताते हुए कहा गया है - ‘स्ंणतोषादनुत्तमसुख लाभः।’ दृ पा0 यो0 सू0 2/42 चित्त में सन्तोष भाव प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी को उत्तम सुख आनन्द की प्राप्ति होती है। (ग) - तप - तप का तात्पर्य है। उचित रीति से ओर उचित अभ्यास से शरीर, प्रा ण, इन्द्रिय और मन को वश में करना। जिससे योग साधना काल में सर्दी - गर्मी, भूख - प्यास, हर्ष - शोक, मान -अपमान आदि द्वन्दो को सहन करते हुए साधना में डटा रहा जा सके, यही तप है। योग मार्ग में अपने र्व ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसक पालन में जो भी शारीरिक, मानसिक अधिक से अधिक कष्ट प्राप्त हो उसे सहर्ष सहन करना, इसका नाम तप है। परन्तु योग मार्ग में शरीर को कष्ट देकर, पीड़ा देकर इन्द्रियो में विकार उत्पन्न होने या चित्त में अप्रसन्नता हो तो ऐसे तप को तामसी तप कहा गया है, और उसका निषेध किया गया है। वैदिक संहिताओ के अनुसार तप को तीन भागो में विभक्त किया जा सकता है - मानसिक तप, वाचिक तप तथा शारीरिक तप। (1) - मानसिक तप - मानसिक तप वह है। जब काम, क्रोध, मोह, ईष्र्या आदि आन्तरिक अन्तद्र्वन्द से प्रभावित होने पर उनसे उत्पन्न दुर्भावो को दैवीय गु णो से युक्त भावो या सुविचारो से नष्ट करते रहना ही मानसिक तप है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कुविचार (आसुरी प्रवृत्तियो) को सुविचारों द्वारा नष्ट कर देना ही मानसिक तप है। (2) - वाचिक तप - सत्य बोलना, बोलना, शास्त्रों के अनुसार शुद्ध विचारो से युक्त वाणी, व्याकरण युक्त शुद्ध भाषा का प्रयोग करना तथा हास्यास्पद या छलयुक्त वचन का प्रयोग ना करना वाणी के तप कहलाते है। श्रीमद् भगवद् गीता में वाणी के तप या वाचिक तप के विषय में इस प्रकार कहा गया है - ‘‘अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियं हितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाड्.मयं तप उच्यते।।’’ - गीता 17/15 अर्थात् उद्वेग व आक्रोश ना करने वाला वाक्य तथा जो एवं हितकारी हो सत्य हो और स्वाध्याय का अभ्यास ये सभी वाणी के तप है। इस प्रकार वाणी के तप द्वारा साधक को अमोध शक्ति प्राप्त होती है। (3) - शारीरिक तप - शारीरिक द्वन्दों को सहन करना शरीर से शीत तथा उष् ण, भूख - प्यास सहन करना, ब्रहमचर्य का पालन करना तथा योगानुष्ठान आसन, प्रा णायाम, ध्यान आदि करना शारीरिक तप है। शारीरिक तप से मानसिक पापो का क्षय होता है। अतः शारीरिक, मानसिक तथा वाचिक तीनो तपो का साधक के जीवन में अत्यधिक महत्व है। तीनो पालनीय है। श्रीमद् भगवद् गीता में शारीरिक तप का वर्णन करते हुए कहा गया है ‘’देवद्विजगुरूप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रहमचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।’’ - गीता 17/14 अर्थात् देव तुल्य आत्मदर्शियो, द्विजातियो, गुरूजनो तथा प्रज्ञाविवेक वाले साधको का सत्कार करना व पवित्र आचरण सरलता का व्यवहार तथा अहिंसा का पालन करना आदि शारीरिक तप कहे जाते है। महर्षि पतंजलि ने वर्णन किया है कि तप के सिद्ध हो जाने पर या तप प्रतिष्ठित हो जाने पर शरीर में अशुद्धियो का नाश हो जाता है - ’कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः।’ दृ पा0 यो0 सू0 2/43 अर्थात् तप से अशुद्धि का नाश हो जाने पर शरीर और इन्द्रियो की सिद्धि हो जाती है। तप के द्वारा क्लेशो तथा पापो का क्षय होने पर शरीर में अणिमा, महिमा, आदि सिद्धिया आ जाती है। और इन्द्रियो में दूर दर्शन, दूर श्रव ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस आदि सूक्ष्म विषयो को ग्रहण करने की शक्ति आ जाती है। (घ) - स्वाध्याय - स्वाध्याय का तात्पर्य वेद, उपनिषद, दर्शन आदि मोक्ष शास्त्रों का गुरूजनो , विद्वान तथा आचार्य से अध्ययन करना। स्वाध्याय का दूसरा अर्थ है। ’स्वस्थ अध्ययनं स्वाध्यायः’ अर्थात् यह भी स्वाध्याय है। आत्म चिन्तन भी स्वाध्याय है। योग भाष्यकार व्यास जी ने लिखा है - ’स्वाध्यायो मोक्षशास्त्रा णामध्यनं प्र णव जपो वा।’ यो0 व्यास भाश्य 2/32 अर्थात् जिन शास्त्रो में मोक्ष प्राप्ति का उपाय वताया गया है। उनका पुनः - पुनः अध्ययन करना स्वाध्याय है। योग भाष्य में कहा गया है - ’स्वाध्यायः प्र णव श्रीरूद्रपुरूषसुक्तादि मन्त्रा णां जपः मोक्षशास्त्राध्यय च।’ - यो0 भाष्य 2/1 अर्थात् प्र णव अर्थात् ओंकार मन्त्र का विधिपूर्वक जप करना, रूद्रसूक्त तथा पुरूषसूक्त आदि मन्त्रों का अनुुष्ठान पूर्वक जप करना, दर्शन उपनिषद एवं पुराण आदि आध्यात्मिक मोक्ष शास्त्रों का गुरू वाणी से श्रव ण करना अर्थात् अध्ययन करना स्वाध्याय है। पं0 श्री राम शर्मा जी के अनुसार - ’अच्छी पुस्तके जीवन्त देव प्रतिमायें है। जिनकी आराधना से तत्काल प्रकाश और उल्लास मिलता है’। अतः स्वाध्याय का अभिप्राय केवल मात्र पुस्तको, ग्रन्थों का अध्ययन मात्र नहीं हैं। साधक को चाहिए कि उनको समझा कर सार भाव को ग्रह ण करना चाहिए। तथा योग साधना में प्रयास रत रहे। क्योकि स्वाध्याय से ही योग मार्ग का ज्ञान होता है। तथा मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। स्वाध्याय से ही उच्च विचारो का समावेश जीवन में होता है। स्वाध्याय का फल बताते हुए महर्षि पतंजलि ने इस प्रकार लिखा है - ’स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोगः।’ दृ पा0 यो0 सू0 2/44 अर्थात् स्वाध्याय या प्र णव आदि मन्त्रो के उच्चारण से व साधना व जप करने से इच्छित देवता या ईष्ट देवता का दर्शन साक्षात्कार हो जाता है। (ड़) - ईश्वर प्र णिधान - नियम का अन्तिम अंग है, ईश्वर प्रा णिधान। ईश्वर की उपासना या विशेष भक्ति भाव को ईश्वर प्र णिधान कहते है। महर्षि पतंजलि ने सामान्य श्रे णि (कोटि) के साधको के लिए अष्टांग योग का वर्णन किया है। यम और नियम प्रथम व दूसरे अंगो के रूप में है। नियम का अन्तिम अंग है, ईश्वर प्रणिधान। इससे यह भाव परिलक्षित होता हैं। कि जब सामान्य कोटि का साधक यम, नियम का पूर्ण रूप से पालन करता है, तभी ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित हो पाता है। तब उसे ईश्वरीय कृपा प्राप्त होती है। ईश्वर प्रणिधान को व्यास भाष्य में इस प्रकार परिभाषित किया गया है - ‘ईश्वर प्रणिधानं तस्मिन्यरमगुरौ सर्वकर्मार्प णम्।’ - व्यास भाष्य 2/32 अर्थात् उस परम गुरू परमेश्वर सभी कर्मो को अर्प ण करना ईश्वर प्रणिधान है। अतः मन, वचन से, बुद्धि से ईश्वर के प्रति समर्प ण ही ईश्वर प्रणिधान है। अथर्ववेद में वर्णन है - हे वर णीय परमेश्वर हम जिस शुभ संकल्प ईच्छा के साथ आप की उपासना में लगे हुए है, आप उसमें पूर्णता प्रदान करें। सिद्धि दे और हमारे समस्त कर्म तथा कर्म फल आप के निर्मित्त अर्पित हैं। इसी का नाम ईश्वर प्र णिधान है। महर्षि पतंजलि ने ईश्वर प्र णिधान के फल बताते हुए कहा है - ’ईश्वरप्रणिधानाद्वा।’ - पा0 यो0 सू0 1/23 अर्थात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि शीघ्र ही हो जाती है। सूत्र 2/45 में भी महर्षि पतंजलि ने यही बात कही है - ’समाधि सिद्धिश्वर प्रणिधानात्।’ अर्थात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है। अर्थात् समाधि की सिद्धि प्राप्त हो जाने पर ईश्वरीय कृपा हो जाती है। साधक के मार्ग सभी विघ्न बाघा दूर हो जाती है। सभी कष्ट दूर हो जाते है, तत्पश्चात् योगसिद्धि बिना किसी विलम्ब के प्राप्त हो जाती है। ईश्वर शर णागति एक ऐसा अकेला साधन है, जिसमें साधक अपने शरीर, मन, बुद्धि एवं अहंकार सहित पूर्ण रूपेण ईश्वर को समर्पित कर देता है। साधक का निजत्व समाप्त होकर वह ईश्वर की इच्छा के अनुकूल कार्य करने लगता है। साधक स्वयं को बाऊंस की पोगंरी की तरह खाली कर देता है। और उससे स्वर ईश्वर का होता है। वह अपने को पूर्ण रूपे ण समर्प ण कर देता है। जिससे ईश्वर उसका हाथ थाम लेता है। यही बात श्रीमद्भगवद् गीता में भी स्वयं श्री कृष् ण द्वारा कही गयी है - ‘‘अनन्यश्रिचन्तयन्तो मां ये जनाः प्र्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।’’ - गीता 9/22 अर्थात् जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते है। उस नित्य निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरूषो का योगक्षेम मै स्वयं करता हूऊं। अर्थात् उसकी रक्षा के साथ - साथ भगवद् प्राप्ति के निमित्त साधन की रक्षा स्वयं करता हूऊं। (3) आसन - योगाङगों में आसनों में तृतीय स्थान है। आसन शब्द संस्कृत के अस् उपवेशने धातु से ल्युट् प्रत्ययः लगकर बना है। जिससे उसका अर्थ है, स्थिरता से बैठना। संहिताओ में वेदो में विभिन्न अवसरो में बैठने के अर्थ में आसन शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसे अध्ययन के लिए ’निषिदत्त’ शब्दो का प्रयोग हुआ है। जो अच्छी प्रकार सुखपूर्वक बैठने का परिचायक है। इस प्रकार वेदो के अनुसार योग के अभ्यासी को स्थिरता के साथ किसी एक स्थिति में बैठना चाहिए, जिस अवस्था में वह एक प्रहर या तीन घ टे तक बिना कष्ट के निश्चल बैठ सके। दूसरे अर्थ में आसन का अर्थ है - इस प्रकार बैठने की वह अवस्था जिसमें शरीर, मन और आत्मा एक साथ और स्थिर हो जाती है। तथा उससे जो सुख की अनुभूति होती है। वह स्थिति आसन कहलाती है। तेजबिन्दु उपनिषद में आसन के विषय में कहा गया है - ’सुखनैव भवेत् यस्मिन्नजसं ब्रहमचिन्तनम्।’ अर्थात् जिस स्थिति में बैठ कर सुख पूर्वक निरन्तर परमब्रहम का चिन्तन किया जा सके उसे ही आसन समझना चाहिए। गीता में कहा गया है - ’समं काय शिरोमीव्र धारयन्न चलं स्थिरः।’- गीता 6/13 अर्थात् कमर से लेकर गले तक का भाग सिर और गले को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओ को ना देंखे अपनी नासिका के अग्र भाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठना ही आसन है। योगसूत्र के अनुसार - ’स्थिर सुखमासनम्।’- पा0 यो0 सू0 2/46 अर्थात् स्थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन कहलाता है। आसन के लाभ का वर्णन करने हुए योगसूत्र में कहा गया है - ’ततो द्वन्दाभिघातः’।- पा0 यो0 सू0 2/48 अर्थात् आसन की सिद्धि से किसी भी प्रकार के द्वन्द अर्थात् सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, हर्ष, विषाद आदि का आघात नहीं लगता है, और साधना में बाधा उत्पन्न नहीं होती हैं। (4) प्राणायाम - प्राणायाम दो शब्दो से मिलकर बना है - प्रा ण $ आयाम। प्राण का अर्थ है, वह वायवीय शक्ति जो समस्त ब्रहमाड़ में व्याप्त है। प्रा ण एक जीवनी शक्ति है, तथा आयाम का अर्थ है, नियन्त्रण करना या विस्तार करना। इस प्रकार प्रा णायाम वह प्रक्रिया है। जिसका उद्धेश्य शरीर की प्रा ण शक्ति, जीवनी शक्ति को बढ़ाना है, तथा प्रा ण को विशेष अभिप्राय से शरीर के विशेष क्षेत्रों में संचरित करना है। योग सूत्र में महर्षि पतंजलि ने प्रा णायाम को इस प्रकार परिभाषित किया है - ’तस्मिन् सति श्वास प्रश्वास योर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।’- पा0 यो0 सू0 2/49 अर्थात् आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास - प्रश्वास की गति का नियम करना प्रा णायाम है। ’धाराणासु च योग्यता मनसः।’ - पा0 यो0 सू0 2/53 अर्थात् प्राणायाम की सिद्धि से मन में धार णा की योग्यता आ जाती है। (5) प्रत्याहार - योगाङगो में पाचवाऊं अंग प्रत्याहार की साधना है। प्रत्याहार की साधना अति आवश्यक व कठिन साधना है। ’इन्द्रियो को बाहय विषयो से हटाकर अन्तर्मुखी बनाना ही प्रत्याहार है’। प्रत्याहार का सामान्य अर्थ होता है - पीछे हटना, उल्टा होना विषयो से विमुख होना। इस प्रकार इन्द्रियो का अपने विषय से अलग हो कर अन्तर्मुखी हो जाना प्रत्याहार कहलाता है। त्रिशिखिब्रहमणोउपनिषद के अनुसार - ’चित्तस्थान्तर्मुखी भावः प्रत्याहारस्तु सत्तम्।’ अर्थात् चित्त का अन्तर्मुखी भाव होना ही प्रत्याहार है। योग सूत्र के अनुसार - ’स्व विषया सम्प्रयोगे चित्त स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः’-पा0 यो0 सू0 2/54 अर्थात् जब इन्द्रियो का अपने विषयो से सम्बन्ध नहीं रहता है। तब उनका चित्त के स्वरूप में तदाकार हो जाना प्रत्याहार है। साधना के लिए प्रत्याहार की अत्यन्त आवश्यकता है। क्योकि यह चंचल, चपल चित्त जब तक स्थिर नही होता है। तब तक मनुष्य साधना में प्रवृत्त नही हो सकता है। साधना में प्रवृत्त होने के लिए इन्द्रिय संयम जरूरी है। अतः प्रत्याहार अत्यन्त आवश्यक है। प्रत्याहार के सिद्ध होने पर ही धारणा, ध्यान, समाधि की अवस्था क्रमशः प्राप्त होती है। प्रत्याहार का फल योग सूत्र के अनुसार - ’ततः परमावश्यतेन्द्रियाणाम।’- पा0 यो0 सू0 2/55 अर्थात् इस प्रत्याहार के सिद्ध होने पर इन्द्रियां पूर्ण तथा मनुष्य के वश में हो जाती है। - अन्तरंग पक्ष - महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग साधना के तीन अन्तरंग साधना (पक्ष) बताये है। अन्तरंग साधना धार णा, ध्यान व समाधि अष्टांग योग के अन्तरंग साधन निम्न है - (6) धार णा - योगाङगों में षष्ठाङग व अन्तरंग साधना में धार णा प्रथम अंग है। चित्त को वाहय या आभ्यान्तर किसी एक स्थान में बाधना ’धार णा’ है। प्राणायाम के सतत् अभ्यास से जब धार णा की सामथ्र्य आ जाती है। तब चित्त को अपने शरीर के अन्दर या बाहर किसी एक स्थान पर केन्द्रित कर देना ही धार णा है। महर्षि पतंजलि के अनुसार - ’देशबन्धश्चितस्य धार णा।’ - पा0 यो0 सू0 3/1 अर्थात् चित्त का किसी एक स्थान या देश में (नासिकाग्र भाग, नाभि, हृदय कमल, भुकृटि, सूर्य, चन्द्र आदि) ठहराना, बाधना धार णा है। शास्त्रो में व वेदो में उपलब्ध प्रमा णो के अनुसार धार णा को दो भागो में विभक्त किया जा सकता है - (1) - आन्तरिक धार णा (2) - बाहृय धार णा (1) - आन्तरिक धार णा - धार णा में जब चित्त का विखराव भटकाव समाप्त हो जाता है। तो वह साधक के पूर्ण नियन्त्र ण में आ जाता है। इस स्थिति में चित्त को अपने शरीर के भीतर भाग में किसी एक स्थान पर केन्द्रित किया जा सकता है। वह स्थान शरीर के भीतर के स्थान नाभि, क ठ, हृदय, भुकृटि, नासिकाग्र भाग आदि हो सकते है। इस प्रकार शरीर के आभ्यान्तर किसी एक स्थान में ठहराना आन्तरिक धार णा है। (2) - बाहृय धार णा - चित्त को बाहृय देश में किसी एक स्थान पर ठहराना बाहृय धार णा कहलाता है। बाहृय विषय में धार णा करने के लिए पुराणों में प्रमाणित किया गया है, कि मूर्तरूप, शंख, चक्र, गदा, पद्य तथा ईश्वर के दिव्य अलौकिक स्वरूप की धार णा तब तक करनी चाहिए जब कि साधक उसमें दृढ़ता ना प्राप्त कर लें। इस प्रकार भिन्न - भिन्न स्थानो पर चित्त के ठहराने, एकाग्र करने को ’धार णा’ कहते है। धार णा से मन की शुद्धि होती है। (7) ध्यान - ध्येय का निरन्तर मनन ही ध्यान है। निरन्तर ध्यान से वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। एकाग्रता ध्यान का लक्षण है। ध्यान