काठी पर्व, नाट्य निमाड़ के अंचल में प्रायः सात सौ से पाँच सौ वर्षों से प्रचलित है ये परंपरा...
काठी:
काठी नृत्य नाट्य निमाड़ के अंचल में प्रायः सात सौ से पाँच सौ वर्षों से प्रचलित है। इसके नर्तक भगत कहे जाते हैं। काठी की एक मंडली में चार से आठ तक भगत रहते हैं। गायन, वादन, कथाकथन की विधाओं का सम्मिश्रण होने से इसमें भरपूर नाटकीयता रहती है।
काठ या काठ पात्र पर देवी माता का प्रदर्शन अपने आप में एक नाटक रचता है। काठी गायक परस्पर सवाल जवाब करते हैं। कथा गायन के द्वारा विविध आख्यान प्रस्तुत किये जाते हैं। आख्यान के आरंभ में कथागायक कौन सा आख्यान प्रस्तुत करेगा इसकी घोषणा करता है।
कथा गायन के बीच में गायक दर्शकों से संवाद भी करते हैं। यहाँ तक कि दर्शक कई बार नाटय की प्रस्तुति में शिरकत भी करने लगते हैं। किसी भी गांव का चौराहा या सरपंच का आँगन काठी का रंगमंच बन जाता है। इन सब विशेषताओं के कारण वसंत निरगुणे इसे नृत्य नाट्य ही मानते हैं।
काठी में प्रस्तुत किये जाने वाले आख्यान पौराणिक या ऐतिहासिक होते हैं। राजा हरिचंद (हरिश्चंद्र) गॉडेन नार, सुरियालो महाजन, भिलणी वाल ये चार आख्यान काठी में विशेष लोकप्रिय हैं। प्रस्तुत करने वाले पात्र पुरुष ही होते हैं। इसका सूत्रधार छड़ीदार होता है। छड़ीदार मुख्य कथा की प्रस्तुति में दर्शकों को बाँधे रखने के लिये बीच बीच में छोटे छोटे रोचक प्रसंग जोड़ता चलता है।
काठी प्रस्तुत करने वाली मंडलियाँ पूर्व और पश्चिम निमाड़ तथा महाराष्ट्र के कुछ गाँवों में निवास करती आ रही हैं। काठी खेलने के लिये कभी कभी मालवा की ओर भी इनका आना होता है। काठी के कलाकार अपनी कला को एक पावन व्रत मानते हैं और काठी उठाने के साथ ही वे संयम नियम का जीवन भी बिताने लगते हैं। देवप्रबोधिनी एकादशी से महाशिवरात्रि तक के चार मास की अवधि काठी पर्व के रूप में मनाई जाती है।
खरगोन के सीताराम गिरधर और उनके सुपुत्र पूनमचंद, खरगोन के ही फत्तू जी और उनके सुपुत्र करसन और जगदीश मुकुंद जी और उनके सुपुत्र मांगीलाल-बालकवाड़ा हमारे समय में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही काठी की परंपरा संजोये हुए हैं। ग्राम माडली में पद्म शंकर की मंडली भी काठी के लिये मशहूर है। इसके अलावा ग्राम विरोटी में व्यंकट त्र्यंबक, हीरालाल-भेसावत आदि के दल भी उल्लेखनीय हैं। वास्तव में निमाड़ के अंचल में गाँव गाँव में काठी की मंडलियाँ रही हैं।
इंदौर में आयोजित मालवी-निमाड़ी लोक उत्सव 1973 में बालकवाड़ा के पुन्या, हेमा, खुश्याल और घरमिया ने काठी का प्रदर्शन किया था। पद्म शंकर की मंडली ने 1983 में भोपाल में भारत भवन में काठी की प्रस्तुति दी।