श्री शिव गीता में भगवान शंकर ने सीता-विरह में कर्षित श्रीराम को योग ज्ञान का दिव्य उपदेश प्रदान किया है। श्रीराम जब सर्वथा निराश हो गये, तब महर्षि अगस्त्य के आदेशानुसार उन्होंने योगेश्वर भगवान शंकर की तीव्र आराधना की। आशुतोष भगवान शिव शीघ्र ही उनके सामने आविर्भूत हो गये और उनका श्रीराम के साथ वार्तालाप प्रारम्भ हुआ। उसी वार्तालाप के मध्य श्रीराम ने उनसे पूछा-
कथं भगवतो ज्ञानं शुद्धं मर्त्यस्य जायते ।
तत्रोपायं हर ब्रूहि मयि तेऽनुग्रहो यदि ॥
'हे भगवन् ! मनुष्य को सर्वक्लेशापहारी दिव्य ज्ञान किस योगादि साधन से प्राप्त होता है ? यदि आपकी मुझ पर थोड़ी भी कृपा हो तो इसे बतलाने का कष्ट करें।' इस पर भगवान् शङ्करने कहा-
विरज्य सर्वभूतेभ्य आविरिञ्चपदादपि ।
घृणां वितत्य सर्वत्र पुत्रमित्रादिकेष्वपि ॥
उपायनकरो भूत्वा गुरुं ब्रह्मविदं व्रजेत्।
श्रद्धालुर्मुक्तिमार्गेषु वेदान्तज्ञानलिप्सया ।।
(श्रीराम !) सामान्य स्त्री-पुत्रादि की तो बात ही क्या, दिव्य स्वर्ग से लेकर ब्रह्मलोक तक के अलौकिक भोगों से भी अत्यंत घृणा का भाव रखकर विरक्त हो साधक को योग वेदांत का आश्रय लेकर सर्वोपरि कैवल्य मार्ग की ओर श्रद्धापूर्वक प्रवृत्त होना चाहिए तथा उसके लिये ब्रह्म ज्ञान में निपुण ब्रह्मनिष्ठ महा योगेश्वर गुरु का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। (और उनके पास ठहरकर सेवा-शुश्रूषा से उन्हें प्रसन्न करना चाहिये तथा समस्त वेदांत-साहित्य का श्रवण-मनन करते हुए आत्म स्वरूप का ध्यान चिंतन एवं निदिध्यासन करना चाहिये।)
निर्मोहो निरहङ्कारः समः सङ्गविवर्जितः ।
सदा शान्त्यादियुक्तः सन्नात्मन्यात्मानमीक्षते ।
यत्सदा ध्यानयोगेन तन्निदिध्यासनं स्मृतम् ॥
योगयुक्त साधक मोह-ममता, अहंकार एवं समान बुद्धि वाला होकर, सभी शक्तियों से दूर रहते हुए एकांकी होकर साधना प्रारम्भ करे। फिर साधक शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा एवं समाधान-इन षट् सम्पत्तियों से युक्त होकर निरंतर एकमात्र आत्मा-परमात्मा के अवलोकन का ही प्रयत्न करता रहे-अपनी आत्मा के द्वारा परमात्मा के अवलोकन का अभ्यास करता रहे। अनवरत परमात्मा के ध्यान में लीन होना ही योगादि शास्त्र ग्रंथों में निदिध्यासन कहा गया है।
निर्मोहो निरहङ्कारो निर्लेपः सङ्गवर्जितः ।
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
यः पश्यन्संचरत्येष जीवन्मुक्तोऽभिधीयते ॥
योगाभ्यास एवं ज्ञान-बल के द्वारा मोह (अज्ञान), अहङ्कार, आसक्ति एवं जनसमूह का परित्याग कर एकांत में ध्यान के द्वारा समस्त प्राणियों में अपने को और समस्त प्राणियों को अपने में देखने वाला, जो सभी कार्यों को करता है, वह शीघ्र ही जीवन्मुक्ति तत्पश्चात् विदेह-मुक्ति और मोक्ष का भी लाभ कर लेता है।
अहिर्निर्मोचनी यद्वद्रष्टुः पूर्व भयप्रदा ।
ततोऽस्य न भयं किञ्चित्तद्वद्रष्टुरयं जनः ॥
जैसे रज्जु या साँप की केंचुल को सर्प मानकर अज्ञानीजन भयभीत होते हैं और पुनः ध्यान से देखने पर उन्हें रज्जु या केंचुल समझकर निर्भय हो जाते हैं, उसी प्रकार अतत्त्वदर्शीक लिये यह संसार भयानक है।
किंतु परमात्मा को जान लेने पर यह संसार तिरोहित हो जाता है और भगवान का ही स्वरूप सामने दिखता है, जिससे योगी सर्वथा निर्भय हो जाता है।
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य वशं गताः ।
मर्त्योऽमृतो भवत्येतावदनुशासनम् ॥
योग-साधना के द्वारा जब साधक के हृदय में स्थित भगवान का साक्षात्कार हो जाता है, तब भ्रान्ति से उत्पन्न असत्य संसार के किसी भी पदार्थ के प्रति उसकी कामना नहीं रह जाती और उसकी मन, बुद्धि आदि सभी इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं।
तत्पश्चात् मरणशील मनुष्य योग सिद्ध होकर जरा मृत्यु आदि दोषों से मुक्त हो जाता है और सर्वथा अजर-अमर हो जाता है। इतना ही सभी योगादि शास्त्रों एवं साधनाओं का परम एवं चरम फल है