और..! भयभीत जरासंध श्रीकृष्णार्पणमस्तु -27


स्टोरी हाइलाइट्स

काम्पिल्य में द्रोपदी स्वयंवर की तैयारी,अंतिम दौर में थीं। वहीं एक ओर पवित्र गंगा के उत्ताल जल में लहरें भी उठ रहीं थीं....द्रोपदी स्वयंवर..! भयभीत जरासंध ....श्रीकृष्ण की व्यवहारिक....

और..! भयभीत जरासंध
                                                                            श्रीकृष्णार्पणमस्तु -27
रमेश तिवारी
काम्पिल्य में द्रोपदी स्वयंवर की तैयारी,अंतिम दौर में थीं। वहीं एक ओर पवित्र गंगा के उत्ताल जल में लहरें भी उठ रहीं थीं। किंतु दूसरी ओर स्वर्णवदनी द्रोपदी को प्राप्त करने के लिये प्रत्येक राजकुमार के ह्रदय में चल रहीं आकर्षण की हिलोरें भी, उन्हें व्यथित कर रहीं थी। सैन्य सुरक्षित शिविरों में मंत्रणाओं के दौर चल रहे थे। किंतु भारी सुरक्षा व्यवस्था से लैस एक वैभवशाली शिविर में कुछ अप्रत्याशित और दुस्साहसिक घटना होने वाली थी! देखते हैं- क्या होने वाला है?

श्रीकृष्ण की व्यवहारिक मान्यता थी कि मनुष्य को समाज में अपना अस्तित्व प्रमाणित करना आवश्यक है। जिसका अस्तित्व नहीं उसका कोई स्थान नहीं। द्रोपदी स्वयंवर की पूर्व रात्रि में कृष्ण, अपने सबसे बड़े शत्रु जरासंध के शिविर में उनके भाव सखा उद्धव को लेकर पहुंच गये। वे निःशस्त्र ही थे। सम्राट को जब बताया गया कि कृष्ण उनसे मिलने आये हैं। वह घबरा गया। किंतु मुस्कुराते हुए कृष्ण को सामने देखकर तो सम्राट के मुंह का थूक ही सूख गया। 

मनोवैज्ञानिक रूप से भयभीत सम्राट ने सोचा अरे! जिस शत्रु को वह कुचलने के लिए संपूर्ण उपाय कर चुका था, वह उसी के शिविर में। भारी सैन्यबल के मध्य नि:शस्त्र! इस रोमांचकारी और दुस्साहसिक, घटना को हम आगे पढेंगे। किंतु पहले हम कृष्ण द्वारा द्रोपदी, द्रुपद, सत्यवती, दुर्योधन, द्रोणाचार्य एवं दुर्योधन की पत्नी भानुमति को उनके द्वारा प्रदत्त वचनों पर चर्चा करेंगे। यह भी देखेंगे कि द्रोपदी स्वयंवर से कृष्ण कौनसी उपलब्धि प्राप्त करना चाहते थे। हमने कल की कथा में बताया था कि उद्धव तथा शिखंडी क्यों कृष्ण की सफलता के लिए अपने प्राणों तक का बलिदान करने का उत्साह रखते थे।

 श्रीकृष्णार्पणमस्तु
तत्कालीन आर्यावर्त की यह घटना मात्र एक राजकुमारी के विवाह तक ही सीमित नहीं थी। स्वयंवर के पीछे राज्य शक्तियों का गठजोड, आर्य संस्कारों और शासन का धर्म, नीति अथवा नैतिकता से सरोकारों को भी पुनः परिभाषित करना था। उस समय के आर्यावर्त के राजनैतिक परिदृश्य पर भी दृष्टिपात करना समीचीन होगा। बुरी तरह से आपसी कलह से ग्रस्त कुरुवंश धृतराष्ट्र की अंधसोच की जकड़ में था। उस राजा का बडा़ पुत्र दुर्योधन येन केन प्रकारेण सत्ता पर अपना अधिकार करना चाहता था । 

श्रीकृष्ण का चक्रव्यूह  श्रीकृष्णार्पणमस्तु -26
वरिष्ठ और निर्णायक लोग अनेक कारणों से मौन हो चुके थे। अधिकांश को तो लोभ और लालच ने ही मौन रहने को बाध्य कर दिया था। ऋषियों में, जो कि आर्य सभ्यता के पोषक और नियंता थे, ऐसे ऋषि महान परशुराम वृद्ध हो चुके थे। वेद व्यास कुरूवंश की दशा से चिंतित तो थे, परन्तु निर्णायक नहीं। जरासंध, आर्य संस्कृति को कुचल कर सम्राट से चक्रवर्ती बनना चाहता था। उसने भय का साम्राज्य स्थापित कर रखा था। असामाजिक सोच रखने वाले उसके समर्थकों का सशक्त घेरा, उसके इर्द गिर्द बन चुका था। सांदीपनि, धौम्य और गर्ग मुनि कृष्ण और पांडवों के पक्षधर थे। जो शक्तियां अधर्म अन्याय और अनीति के पक्षधर नहीं थे, उनमें से एक ही बचे थे राजा द्रुपद। परन्तु वे स्वयं भी अनीति के ग्रास बन चुके थे।

शिखंडी का यौन परिवर्तन : श्रीकृष्णार्पणमस्तु- 25

आर्य पद्धति में न्याय, निष्पक्षता और नीतियों का निर्धारण करने वाले ब्राह्मण वर्ग के प्रमुख द्रोणाचार्य सत्ता के आकर्षण का शिकार होकर 'ब्राह्मणत्व' से पतित हो चुके थे। राज्य के लोभ में अपने ही मित्र द्रुपद को अपने कुरुपुत्र शिष्यों से दंडित करवा कर उसका आधा राज्य हड़प चुके थे। कौरवों और पांडवों के मध्य मतभेद की नींव डालने में भी उनका अदृश्य हाथ था। वे जानते थे कि दुर्योधन मूर्ख, क्रोधी और अहंकारी है। उसको किसी भी मार्ग पर धकेलना सरल है बनस्बत धर्माग्रही, कृष्णानुरागी पांडवों के। द्रोणाचार्य सबका उपयोग करके स्वयं ही सार्वभौम राज्य करना चाहते थे। द्रुपद का आधा राज्य हथिया कर उनको सत्तासुख का आनंद प्राप्त हो ही चुका था।

कृष्ण अर्थात जीवन: श्रीकृष्णार्पणमस्तु-24

अब बात कृष्ण की करें- वे अनीति के प्रतीक सम्राट जरासंध के जामाता/सामंत और सेना प्रमुख रहे कंस का वध करके धर्म के प्रति प्रथम सफल अभियान के नेता स्थापित हो चुके थे। वे समाज के प्रति समर्पित थे। उनका अपना कुछ भी नहीँ था। इसीलिए वे कभी राजप्रमुख भी नहीं बने। रुक्मणी स्वयंवर प्रकरण में सीमित समय को छोड़कर। द्रुपद चाहते थे कि कृष्ण ही उनके जामाता बने। द्रोपदी ने भी अपनी इस इच्छा से कृष्ण को सहमत करने का प्रयास किया। परन्तु कृष्ण का आदर्श अलग ही था। उन्होने न केवल घोषणा की कि वे द्रोपदी से विवाह नहीं करेंगे। 

निर्मल ह्रदय बलदाऊ- श्रीकृष्णार्पणमस्तु -23

बल्कि राजनीति में विश्वसनीयता में वृद्धि करने के उद्देश्य से यादवों की सुधर्मा सभा में एक प्रस्ताव पारित करवा लिया- 'कोई भी यादव स्वयंवर में प्रतिभागी नहीं बनेगा यद्यपि यादवों में कृष्ण के मौसेरे भाई कृतवर्मा, सात्यिकि, उद्धव और स्वयं कृष्ण भी महान धनुर्धर थे। जो सांदीपनि द्वारा प्रतिस्थापित धनुर्यज्ञ की सभी शर्तें पूरी करने में सक्षम थे। कृष्ण बताना चाहते थे कि सत्ता और सामर्थ्य का लाभ स्वयं को नहीं लेना चाहिए। राजनीति में त्याग ही है जो सम्मान दिलाता है। विश्वसनीयता का आभामंडल तैयार करता है। 

श्रीकृष्णार्पणमस्तु -22  Sri KrishnaNarpanamastu-22

यद्यपि कृतवर्मा, सात्यिकी और उद्वव स्वयंवर में भाग लेने के लिये बहुत अधिक आग्रही थे। परन्तु वे सब कृष्ण की नीति नियत, उद्देश्य और अनुशासन से बंधे थे। निरंकुश नहीं थे। कृष्ण के लिए कुछ भी कर सकते थे। दूसरी ओर दुर्योधन और उसके परम मित्र कर्ण और अश्वत्थामा बाहर से तो एक राय दिखाई देते थे। परन्तु अश्वत्थामा ने अंत तक प्रयास किया कि वह स्वयंवर में भाग ले। स्वयंवर में कर्ण के पीछे हटने का प्रमुख कारण द्रोपदी ही थी जिसने कि कर्ण द्वारा धनुष को उठाते ही उसको सूतपुत्र कहकर सरसंधान करने से पहले ही टोक दिया था।

आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा। 

                                               श्रीकृष्णार्पणमस्तु।