SPECIAL : भोजपुरी कल्चरल हिस्ट्री ? Bhojpuri Language, Cultural Region and People
क्या आप जानते हैं भोजपुरी कल्चरल हिस्ट्री को ?
भोजपुरी क्षेत्र का सांस्कृतिक परिवेश और भोजपुरी लोकनाट्य भोजपुरी क्षेत्र की सांस्कृतिक परम्परा का विवेचन प्रस्तुत करने के पूर्व संस्कृति शब्द की व्याख्या अपेक्षित है। 'संस्कृति' शब्द अर्थ और परिभाषा की दृष्टि से अत्यन्त विवादास्पद है। कुछ विद्वान इसे सभ्यता का तो कुछ शिष्टाचार का पर्याय मानते हैं, किन्तु रहन-सहन मात्र को संस्कृति माना जाय तो संस्कृति परिवर्तनशील सिद्ध होती | इसलिए समाज के आचार, रहन-सहन, पहनावा आदि से संस्कृति की पूर्ण अवधारणा एवं अस्मिता नहीं हो सकती। ये सब संस्कृति के बजाय सभ्यता के अंग है संस्कृति का सम्बन्ध हमारे मन और चित्त के गहरे संस्कारों से है। समाज-जीवन के शरीर को लेकर जिन वाह्य लक्षणों की सृष्टि हुई है और मानव मन की वाह्य प्रवृत्तियों तथा प्रेरणाओं से परिचालित एवं नित्य परिवर्तित क्रियाओं आदि का जो कुछ विकास हुआ है, उसे सभ्यता कहेंगे और उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों से जो कुछ शाश्वत एवं परम्परा प्राप्त क्रियाएँ निर्मित हुई हैं, उसकी सम्पूर्ण समग्रता का बोध संस्कृति है शरीर और आत्मा की भाँति सभ्यता और संस्कृति जीवन की दो भिन्न परन्तु परस्पर पूरक आयाम है।
दीपक की लौ सभ्यता है, उसके अन्दर भरा स्नेह संस्कृति है। सभ्यता जीवन का रूप है, संस्कृति उसका सौन्दर्य है, जो रूप से भिन्न भी है, अभिन्न भी है। जो उसके पीछे से झाँकता है और जीवन के अवगुण्ठन से भी बाहर फूट पड़ता है। वास्तव में किसी देश या क्षेत्र की संस्कृति तो वहाँ के निवासियों के जीवन सरणि का अपना ढंग है। प्रत्येक समाज का अपना रहन-सहन,रीति-रिवाज, परम्पराएँ. विश्वास, सौन्दर्यानुभूति, जीवन-मूल्य, धारणाएँ और ऐतिहासिक-सामाजिक-जातीय मान्यताएँ होती हैं। इन सभी का समन्वित बोध एवं क्रियात्मक प्रतिफलन ही संस्कृति है। इस कसौटी पर जब हम भोजपुरी क्षेत्र के सांस्कृतिक स्वरूप की परख करते हैं, तो हमारा ध्यान कई विशेषताओं की ओर जाता है।
गंगा, सरयू, सोन, गण्डक, नारायणी, सदानीरा और अनोमा (वर्तमान आमी नदी) आदि सरिताओं की तरंगित वारि-धाराओं से अभिसिंचित भोजपुरी क्षेत्र की भूमि चिरकाल से अपने गर्भ में एक सांस्कृतिक इतिहास छिपाये हुई है इस क्षेत्र के वैदिक एवं पौराणिक जीवन-विधि का यथेष्ट परिचय प्राचीन साहित्य में उपलब्ध है। कुछ विद्वानों के मतानुसार ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित महाराजा भोज इसी क्षेत्र के शासक थे और विश्वामित्र इन्हीं के पुरोहित थे, जिनका आश्रम व्याघ्रसर (वर्तमान बक्सर) में आज भी वर्तमान है। यह भी बताया जाता है कि इन्द्र ने इसी क्षेत्र को पवित्र एवं सुरक्षित जानकर अपने कलंकित जीवन से मुक्ति पाने के लिए इसी क्षेत्र में अनन्तकाल तक निवास किया है।
बुद्ध और महावीर के काल में भारतीय इतिहास में प्रथमतः इसी क्षेत्र में गणराज्य की स्थापना हुई। बौद्ध ग्रन्थों के उल्लेखानुसार इस क्षेत्र में 16 महाजनपदों में से निम्नांकित सात जनपदों की अवस्थिति थी- शाक्य, कोलिय, मौर्य, मल्ल, वुलि, काशी और मग्ग। महाकारूणिक विश्व लोकनायक भगवान बुद्ध ने इसी भूमि के शाक्य कुल में अवतरित होकर अपने उपदेशों से इस भू-भाग को पवित्र एवं भयमुक्त किया था। इस जनपद के प्रमुख शासकों में अजातशत्रु, ब्रह्मदत्त शिशुनाग, समुद्रगुप्त आदि. इतिहास प्रसिद्ध हैं, जिनकी सेनाओं में वर्तमान भोजपुरी क्षेत्र के योद्धाओं की पर्याप्त संख्या थी, जो अपने वीरत्व और स्वामिभक्ति के लिए विख्यात हैं। समुद्र गुप्त के सामन्त वीर सेनानी कालान्तर में लोकगाथाओं के विषय बनकर लोरिक और सँवरू के नाम से लोकप्रसिद्ध हुए ।"
भोजपुरी क्षेत्र का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि मौर्य काल से लेकर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक इस क्षेत्र के यशस्वी निवासी अपनी आन-बान और शान के लिए बारम्बार जूझे। यहाँ के लोग स्वभाव से प्रचण्ड वीर, अक्खड़ और स्वाभिमानी होते रहे हैं। भोजपुरी संस्कृति और सभ्यता के मूल में प्रधान रूप से इस वीर-प्रसविनी भूमि की संस्कारसिद्ध वीर प्रवृत्ति नैसर्गिक रूप से निहित हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए लिखा है कि भोजपुरी उस शक्तिशाली, स्फूर्तिपूर्ण और उत्साही जाति की व्यावहारिक भाषा है, जो परिस्थिति और समय के अनुकूल अपने को बनाने के लिए सदा प्रस्तुत रहती है और जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान के प्रत्येक भाग पर पड़ा है।
इस प्रकार के युद्धप्रिय एवं संघर्षशील जाति से यह आशा कम की जानी चाहिए. कि उसकी अभिरुचि कलाओं एवं नाटकों की ओर होगी, लेकिन जब हमारा ध्यान भोजपुरी क्षेत्र के निवासियों की सांस्कृतिक एवं कलात्मक अभिरुचि की ओर जाती है, तो हमारी यह धारणा निर्मूल हो जाती है। इस क्षेत्र की कलागत उपलब्धियों के मूल में भोजपुरी क्षेत्र की प्राकृतिक संरचना का भी कम योगदान नहीं है। हिमालय के उत्संग मानिसृत गण्डक, सरयू, तमसा, गोमती, नारायणी, गंगा तथा विन्ध्याचल की उपत्यकाओं में प्रवाहित महानद शोण के द्वारा सिंचित मृत्तिका से निर्मित भोजपुरी क्षेत्र की धरित्री नाना प्रकार के वीरूषों एवं वन्य जीवों से परिपूर्ण हैं। ऐसे वातावरण में भोजपुरी क्षेत्र के लोग चिरकाल से निःसर्ग सिद्ध लोकगीतों, लोकगाथाओं, लोकोक्तियों एवं लोकनाट्यों द्वारा अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति करते रहे हैं | लोकगीत, लोकगाथाएँ और लोकोक्तियाँ जहाँ उनके मनोरंजन के सामान्य माध्यम रहे हैं, वहाँ लोकनाट्य उनके हृदय की अन्त सलिला भावधारा से अभिसिंचित होकर पूरे जनमानस को रससिक्त कर देने वाली कलाशक्ति एवं प्रेरणा का माध्यम बनता रहा है।
भोजपुरीजन जहाँ स्वभाव सिद्ध योद्धा रहे हैं, वहीं उनकी प्रकृति उत्सवप्रिय भी रही है। पालि ग्रन्थों एवं शिलालेखों से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि गणराज्यों से लेकर समुद्रगुप्त के शासनकाल तक भोजपुरी क्षेत्र के लोग दौड़ की प्रतियोगिता, कन्दुक क्रीडा, साँप व बन्दर नचाना आदि क्रीड़ाओं में उत्साह लेते थे। पालि साहित्य के अनुसार इस क्षेत्र में अभिनय एवं तमाशों का प्रचलन था, जिन्हें समज्जा नाम से अभिहित किया जाता था तत्कालीन भारत की सबसे शक्तिशाली मगध राज्य की राजधानी राजगृह में एक बहुत बड़ी समज्जा होने का उल्लेख मिलता है, जिसे 'गिरग्ग समज्जा कहते थे। कदाचित् गिरि के अग्र अर्थात् पर्वत शीर्ष पर आयोजित होने के कारण इसका यह नाम पड़ा। इस गिरग्ग समज्जा के लिए बड़ी तैयारी होती थी। खुले स्थानों में अभिनय एवं तमाशे होते थे, जिनको देखने के लिए लोग एकत्र होते थे और साधारण दर्शक भी बैठने के लिए मचान बनाते थे। राजगृह की गिरग समज्जा में गाने-बजाने तथा उसके साथ किसी प्रकार के अभिनय का मेला भी लगता था।
मध्य युग में जब संस्कृत की नाट्यधारा मुस्लिम आक्रमण एवं प्रभाव के कारण अवरूद्ध हो गई, तब भी भोजपुरी क्षेत्र की जनता नाना प्रकार के अनुकरणात्मक अभिनय, स्वांग, रहस, भाँड़-भड़ैती आदि के आयोजनों द्वारा अपना मनोरंजन करती रही। भोजपुरी के बहुत से लोकधर्मी नाट्य इसी युग से प्रचलित हुए हैं भोजपुरी अंचल के मध्ययुगीन नाटकीय मनोरंजनों का उल्लेख हमें कबीर, तुलसी और जायसी के काव्य-साहित्य में भी मिलता है। उनके काव्यों में अनेक प्रकार के नाटकीय मनोविनोदों. भ्रमणशील नटों तथा अभिनेताओं के सन्दर्भ मिलते हैं। भोजपुरी की उत्सवप्रिय जनता इन स्वांग-तमाशों को देखने में कितनी तल्लीन रहती थी, इस बात का परिचय कबीर के इस पद से होता है
कथा होय तहें सोता सोवे, वक्ता मूढ पचाया रे।
होय जहाँ कहूँ स्वांग तमाशा, तनिक न नींद सताया रे।।
जायसी ने तो मध्यकालीन उत्सवप्रिय जनता के कलात्मक जीवन का पूरा चित्र ही खींच दिया है
कतहूँ कथा कहें कछु कोई। कतहूँ नाच कोउ भल होई।।
कतहूँ छरहरा पेखन लावा। कतहूँ पाखण्ड काठ नचावा।।
कतहूँ नाद सबद होइ भला। कतहूँ नाटक चेटक कला।।
तुलसी कठपुतली के नाच का दार्शनिक प्रसंग में उल्लेख करते हैं -
उमाँ दारू जोषित की नाई, सबहिं नवावत राम गुसाई।।
'आईने अकबरी में अनेक प्रकार के कलाकारों का उल्लेख मिलता है, जो अनेक रीतियों से नाटकीय प्रदर्शन करते हुए उत्तरी भारत की जनता का मनोरंजन करते रहते थे। इसमें नट, बहुरूपिये, बाजीगर, नटवा, कलावंत, कीर्तनियाँ, भगतिया और भाँड आदि कलाकारों की विशेष पेशेवर जातियों के नाट्य प्रदर्शनों का यथेष्ट विवरण मिलता है। स्वांग प्रदर्शित करने वाली ये पेशेवर जातियाँ आज भी भोजपुरी क्षेत्र में विलुप्त नहीं हुई हैं।
आगामी अध्यायों में भोजपुरी लोकनाट्यों के विकासात्मक अध्ययन के क्रम में इस तथ्य पर विचार किया गया है कि किस प्रकार सिद्धों के काल (सातवीं शताब्दी) से लेकर अद्यतन भोजपुरी लोकनाट्य विभिन्न रूपों में भोजपुरी जनमानस को आन्दोलित करते रहे है। भोजपुरी क्षेत्र की लोक सांस्कृतिक धारा बड़ी प्रशस्त एवं वैविध्यपूर्ण है। लोकानुरंजन इस धारा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। भोजपुरी क्षेत्र के लोकजन अपनी जीवन्त स्वभाव के अनुसार लोकजीवन के सम्पूर्ण अवसरों पर नाच, गान, वाद्य आदि कला-प्रकारों के द्वारा अपना मनोरंजन करते रहे हैं भोजपुरियों का पारिवारिक और सामाजिक जीवन लोक-कलात्मक, आमोद-प्रमोद से परिपूर्ण है, इसीलिए विवाह, पर्व-त्योहार, मेला आदि लोकोत्सवों के अवसर पर भोजपुरियों की मस्ती, नृत्य-गान के रूप में देखते ही बनती है। लगता है कि सदा प्रसन्न और आनन्दमय रहने वाला इनका यह गुण भोजपुरी मिट्टी की विरासत है।
प्रकृति के यौवन के अक्षय श्रृंगार से अलंकृत भोजपुरी क्षेत्र की माटी लोककला के पराग से गमकती रहती है ऐसी माटी में पालित भोजपुरी क्षेत्र के परिश्रमी कृपक फसल के कट जाने पर पर्वो और विवाह इत्यादि के अवसरों पर जहाँ नाच और सामूहिक गान के द्वारा अपने उल्लास को कलाओं द्वारा व्यक्त करते हैं, वहीं भोजपुरी क्षेत्र की नारियाँ भी लोकगीतों में अपने मन की टीस, कसक और प्रेमभाव को उड़ेलती है और ट-जटिन, जलुआ तथा श्यामा चकेवा इत्यादि लोकनाट्यों द्वारा विभिन्न भाव-भंगिमाओं जट के साथ पुरुष जाति के प्रति अपने मन की दमित इच्छाओं तथा वासनाओं को स्वच्छन्द रीति से व्यक्त करती हुई और अपना मनोरंजन भी करती हैं।
निष्कर्ष यह है कि भोजपुरी क्षेत्र के जनों की कलात्मक अभिव्यक्ति का क्रम लगभग हजार वर्ष से गीत-नृत्य और स्वांग के रूप में एकरस बना हुआ है। कुछ नाट्य रूपों में केवल गीत की प्रधानता है। इस प्रकार गीत, नृत्य और स्वांग तीनों त्त्वों के योग से भोजपुरी में अनेक लोकधर्मी नाट्य परम्परायें प्रचलित हैं।
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