भगवती भुवनेश्वरी
उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है। तीन नेत्रों से युक्त देवी के मुख पर मुस्कान की घटा छाई रहती है। उनके हाथों में पाश, अंकुश, वरद एवं अभय मुद्रा शोभा पाते हैं।' देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी हल्लेखा (ह्रीं) मंत्र की स्वरूपा शक्ति और सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा— आदिशक्ति भगवती भुवनेश्वरी भगवान शिव के समस्त लीला-विलास की सहचरी हैं। जगदम्बा भुवनेश्वरी का स्वरूप सौम्य और अंगकांती अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दस महाविद्या में ये पाँचवें स्थान पर परिगणित हैं। देवीपुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्वरी है। ईश्वर रात्रि में जब ईश्वर के जगरूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है, तब ईश्वर छात्र की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्वरी कहलाती हैं। अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध । अंकुश नियन्त्रणका प्रतीक है और पाश राग अथवा आसक्तिका प्रतीक है। इस प्रकार सर्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्वरी हैं, जो विश्वको वमन करनेके कारण वमा, शिवमयी होनेसे ज्येष्ठा तथा कर्म-नियन्त्रण, फलदान और जीवोंको दण्डित करनेके
कारण रौद्री कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्वरी कहलाता है। भुवनेश्वरी के संग से ही भुवनेश्वर सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है।
महानिर्वाणतन्त्र के अनुसार सम्पूर्ण महाविद्याएँ भगवती भुवनेश्वरी की सेवा में सदा संलग्न रहती हैं। सात करोड़ महामंत्र इनकी सदा आराधना करते हैं। दशमहाविद्या ही दस सोपान हैं। काली तत्त्व से निर्मित होकर कमला तत्त्वत की दस स्थितियां हैं, जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्मांड का रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलय में कमलासे अर्थात् व्यक्त जगत से क्रमशः लय होकर के रूप में मूल प्रकृति बन जाती हैं। इसलिये इन्हें कालकी जन्मदात्री भी कहा जाता है।
इस प्रकार बृहन्नील तन्त्र की यह धारणा पुराणों के विवरणों से भी पुष्ट होती है कि प्रकारान्तर से काली और भुवनेशी दोनों में अभेद है। अव्यक्त प्रकृति भुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली हैं। देवी भागवत के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य का अत्याचार से सन्तप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर सर्वकारण स्वरूपा भगवती भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्वरी तत्काल प्रकट हो गयीं। वे अपने हाथों में बाण, कमल-पुष्प तथा शाक-मूल लिये हुए थीं। उन्होंने अपने नेत्रों से अश्रुजल की सहस्त्रों धाराएँ प्रकट कीं। इस जल से भूमण्डल के सभी प्राणी तृप्त हो गये। समुद्रों तथा सरिताओंमें अगाध जल भर गया और समस्त औषधियों सिंच गयीं। अपने हाथमें लिये गये शाकों और फल -मूल प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्वरी ही 'साक्षी' तथा 'शाकम्भरी' नाम से विख्यात हुईं। इन्होंने ही दुर्गमासुर को युद्ध में मारकर उसके द्वारा अपहृत वेदों को देवताओं को पुनः सौंपा था। उसके बाद भगवती भुवनेश्वरीका एक नाम दुर्गा प्रसिद्ध हुआ।
भगवती भुवनेश्वरी की उपासना पुत्र प्राप्ति हेतु विशेष फलप्रदा है। रुद्रयामल में इनका कवच, नील सरस्वती तन्त्र में हृदय तथा महातन्त्र अर्णव में सहस्रनाम संकलित है। भुवनेश्वरी शक्तिपीठ गुजरात के गोंडा में स्थित है।