जहां तक पिछले पांच साल के दौरान हुई प्रगति का सवाल है तो नीति आयोग का कहना है, ताजा सर्वे के सभी आंकड़े जारी होने के बाद इसके आधार पर बनाई जाने वाली दूसरी एमपीआई रिपोर्ट में वह भी कवर हो जाएगी, लेकिन असली चुनौती केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह है कि वे अपनी नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों को नीति आयोग द्वारा मुहैया करवाई गई इस कसौटी पर कसते हुए आगे बढ़ें।
एक वक्त राज्यों के आर्थिक-सामाजिक हालातों के अध्ययनों के ए तहत एक शब्द ईजाद हुआ था बीमारू। यह शब्द दरअसल कुछ पिछड़े राज्यों के प्रथम अक्षरों से तैयार हुआ था। लेकिन कुछ दशक पहले जो राज्य इसमें शामिल थे, कमोबेश वे अब तक इसमें शुमार होते हैं।
यह बात नीति आयोग की ओर से जारी की गई पहली मल्टी डाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स रिपोर्ट भी कहती है। यह रिपोर्ट अलग-अलग राज्यों के हालात का ब्योरा देती है, वहीं नीति निर्धारकों के लिए एक नई और बेहतर कसौटी भी मुहैया कराती है। रिपोर्ट के मुताबिक, 51.9 फीसदी गरीब आबादी के साथ बिहार गरीब राज्यों की सूची में सबसे ऊपर है तथा 0.71 फीसदी गरीब आबादी के साथ केरल सबसे नीचे है। अपने आप में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ऊपर और नीचे के कुछ और राज्य देखें तो अपेक्षा के अनुरूप ही बिहार के साथ झारखंड, यूपी और मध्यप्रदेश खडे मिलते हैं, जबकि केरल के साथ गोवा, सिक्किम और तमिलनाडु का नाम है।
बिल्कुल स्पष्ट है कि आम लोगों तक आवश्यक सुविधाएं पहुंचाने और उनका जीवन स्तर ऊंचा करने के मामले में कुछ राज्यों ने खासी सफलता पाई है, जबकि कुछ अन्य राज्य बहुत पीछेरहे। इसका ठीक अंदाजा हमें पूंजी निवेश या प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों से नहीं मिलता। इसीलिए ऐसे खास मानकों की जरूरत होती है, जिससे पता चले कि सरकारों द्वारा शुरू की गई और चलाई जा रही योजनाओं और नीतियों का जमीन पर कैसा और कितना प्रभाव पड रहा है, उससे आम नागरिकों के जीवन में किस तरह के और कितने बदलाव आ रहे हैं।
हालांकि इसके लिए जरूरी आंकडे नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की 2015-16 की रिपोर्ट से लिए गए हैं और इस लिहाज से ये पांच साल पहले के हालात पेश करते हैं। लेकिन इसकी असल अहमियत इसकी मेथडॉलाजी में निहित है। एमपीआई समान महत्व के तीन कारकों- स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर के आधार पर आकलन करता है और इसके लिए 12 इंडिकेटर्स का उपयोग हुआ है। यह महज गरीबी रेखा के आधार पर गरीबी नापने के पारंपरिक तरीके से काफी अलग है। बल्कि 193 देशों द्वारा अपनाए गए सस्टेनेबल डेवेलपमेंट गोल के वैश्विक फेमवर्क के अनुरूप है।
जहां तक पिछले पांच साल के दौरान हुई प्रगति का सवाल है तो नीति आयोग का कहना है, ताजा सर्वे के सभी आंकड़े जारी होने के बाद इसके आधार पर बनाई जाने वाली दूसरी एमपीआई रिपोर्ट में वह भी कवर हो जाएगी, लेकिन असली चुनौती केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह है कि वे अपनी नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों को नीति आयोग द्वारा मुहैया करवाई गई इस कसौटी पर कसते हुए आगे बढ़ें।
चाहे देश में पूंजी निवेश बढ़ाने की बात हो या जीडीपी की रफ्तार तेज करने की जरूरत हो, इन सबका आखिरी लक्ष्य यही होता है कि उससे देश के सामान्य लोगों के जीवन तक कितनी सुविधाएं पहुंचीं, उसमें कितनी गुणवत्ता आ सकी। दरअसल सरकारें लोकलुभावन वादों और मुफ्त सौगातों के फेर में ज्यादा है। कई राज्यों में इसकी बानगी मिलती है। अधिकतर मामलो में यह सौगातों चुनावी गरज से ज्यादा प्रेरित होती हैं। इसके चलते कई बार सही हालात नजर में नहीं आते।
ऊपरी तौर पर अक्सर कुछ खुशहाली या हालात सुधरने नजर आते हैं लेकिन हकीकतन ऐसा होता नहीं है। इसीलिए जरूरी है कि सरकार की उपलब्धियों को ऐसे मानकों पर कसने का सिलसिला किसी भी वजह से रुकने न पाए। क्योंकि जब कोई हमारी कमियों की ओर इशारा करेगा तो उसमें सुधार के जतन भी करने होंगे और जब यह सुधार सही मन से और ठोस होगा तो निश्चित तौर पर राज्यों में गरीबी, बेरोजगारी के हालात बदलेंगे।