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संविधान रक्षा की ममता, अदालती आदेश पर निर्ममता

सार

लोकसभा की चुनावी प्रक्रिया के दौरान बंगाल में ऐसा देखने में आ रहा है, कि जैसे वहां कानून-कायदा दूसरे स्थान पर है. पहले नंबर पर ममता बनर्जी की राजनीति चल रही है. वोट बैंक के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति शायद  सर्वाधिक बंगाल में ही हो रही है. चुनावी हिंसा बंगाल के लिए आम बात हो गई है..!!

janmat

विस्तार

    ममता बनर्जी ने बंगाल हाई कोर्ट के ओबीसी लिस्ट को निरस्त करने के फैसले को नहीं मानने का सार्वजनिक ऐलान करके ना केवल संविधान का अपमान किया है, बल्कि लोकतंत्र पर आसन्न खतरे का भी इशारा किया है. संविधान बचाने के लिए लोकसभा चुनाव में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दिखा रही हैं और संविधान के अंतर्गत दिए गए हाई कोर्ट के ऑर्डर को नहीं मानने की निर्ममता दिखा रही हैं.

    भारत में ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई है. जब मुख्यमंत्री के  पद पर बैठा हुआ व्यक्ति अदालती आदेश नहीं मानने का एलान करता है. यह सारा विवाद वोट बैंक की राजनीति से जुड़ा है.

    संविधान के अंतर्गत ओबीसी रिजर्वेशन पिछड़ी जातियों को देने की व्यवस्था की गई है. इसके अंतर्गत मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातियों को भी शामिल किया गया है. ममता बनर्जी की सरकार द्वारा पिछले वर्षों में ओबीसी लिस्ट में ऐसी 77 जातियों को शामिल किया गया है, जिनमें 71 जातियां मुस्लिम समाज से आती हैं. वर्ष 2010 के बाद शामिल की गई इन्हीं जातियों की ओबीसी लिस्ट को हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया है. हाई कोर्ट का कहना है, कि यह जो भी ओबीसी सर्टिफिकेट जारी किए गए हैं, यह संवैधानिक नहीं हैं. 

    लोकसभा की चुनावी प्रक्रिया के दौरान बंगाल में ऐसा देखने में आ रहा है, कि जैसे वहां कानून-कायदा दूसरे स्थान पर है. पहले नंबर पर ममता बनर्जी की राजनीति चल रही है. वोट बैंक के नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति शायद  सर्वाधिक बंगाल में ही हो रही है. चुनावी हिंसा बंगाल के लिए आम बात हो गई है.

    अभी कुछ दिनों पहले ही शिक्षक भर्ती घोटाले के मामले में भी हाईकोर्ट ने शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया को निरस्त कर दिया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पर रोक लगा दी गई है. शिक्षक भर्ती घोटाले की जांच की शुरुआत तब हुई थी, जब बंगाल सरकार के मंत्री के करीबियों के यहां से 50 करोड़ से ज्यादा की नगदी जप्त हुई थी. यह मामला चल ही रहा था, कि इस बीच ओबीसी रिजर्वेशन पर राजनीतिक लड़ाई चरम पर पहुंच गई. दो चरणों के चुनाव अभी बाकी हैं. बंगाल में दोनों चरणों में चुनाव होना है.

    ममता बनर्जी अपनी आक्रामक राजनीति में संविधान पर भी आक्रमण करने से नहीं चूकतीं हैं. उन्होंने इसके पहले यह भी ऐलान किया था, कि केंद्र सरकार द्वारा लागू CAA और NRC कानून बंगाल में नहीं लागू किया जाएगा. केंद्र की भाजपा सरकार के साथ उनकी टकराहट सारी मर्यादाओं और सीमाओं को तोड़ चुकी है. यहां तक कि एनडीए सरकार द्वारा पदस्थ बंगाल के राज्यपाल के खिलाफ़ ममता बनर्जी और उनकी सरकार द्वारा जिस तरह का व्यवहार और शिष्टाचार किया जा रहा है वह भी संवैधानिक मर्यादाओं के विरुद्ध लगता है.

    सभी राजनीतिक दलों को अपनी-अपनी राजनीति करने का अधिकार है. लेकिन क्या संविधान की शपथ लेकर पद पर बैठे किसी व्यक्ति को संविधान के विरुद्ध सार्वजनिक बयान देने का अधिकार है. केंद्र सरकार के कानून लागू करना राज्य सरकार की संवैधानिक बाध्यता है. इसके बावजूद ममता बनर्जी केंद्र के कानून को नहीं लागू करने का ऐलान करके अपने वोट बैंक को संतुष्ट करने की कोशिश कर रही हैं.

    ओबीसी लिस्ट के मामले में जो फैसला हाई कोर्ट का आया है, उसमें भी उनका दृष्टिकोण वोट बैंक के नजरिए से ही प्रतीत होता है. सरकारों में बैठे नेता जब संविधान के विरुद्ध आचरण करते हुए दिखाई पड़ेंगे, तो फिर संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार होने से कौन रोक सकेगा. 

    दिल्ली के मुख्यमंत्री कह रहे हैं, कि जेल में रहकर वह सरकार चलाएंगे. भले ही संविधान में इस पर कोई रोक नहीं हो, लेकिन परंपरा और मर्यादा निश्चित रूप से इसको रोकती है. ममता बनर्जी बीजेपी और केंद्र के साथ अपने राजनीतिक विवादों में संविधान और अदालत का भी अपमान करने की सीमा तक पहुंच रही हैं.

    नक्सलवादी विचार भारत में बंगाल से ही निकला है. नक्सलबाड़ी  से शुरू हुआ यह विचार कई राज्यों में फैला. नक्सली गतिविधियों को काफी सीमा तक अब तो नियंत्रण में कर लिया गया है. ग्रामीण क्षेत्र से ज्यादा अर्बन नक्सलिज्म की समस्या सिर उठाती दिख रही है. इसमें राजनीतिक क्षेत्र की भूमिका भी बढ़ती जा रही है.

     नक्सली सोच इसी आधार पर काम करती है, कि ना संविधान मानना है ना कानून मानना है. नक्सली जो सही मानते हैं, इस पर ही आगे बढ़ना है. राजनीतिक क्षेत्र में इस तरीके की विचारधारा लगातार बढ़ती जा रही है. नक्सली विचारधारा और वामपंथी विचारधारा सह अस्तित्व पर टिकी हुई है.

    ममता बनर्जी वामपंथी विचारधारा की सरकार को पराजित कर ही बंगाल में सत्ता पर काबिज हुई हैं. ऐसा लगता है, कि नक्सलिज्म का जो बीज है, वह टीएमसी में भी इसी ताकत के साथ घुस गया है. नक्सली अपराधों को तो रोकने के लिए सशस्त्र बलों का उपयोग किया जाता है. राजनीतिक नक्सलिज्म को रोकने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जा सकती है.

    चुनाव में तो ऐसे-ऐसे क्रांतिकारी विचार और सरकार विरोधी विचार रखे गए हैं जिनको नक्सली सोच कहा जा सकता है. आरोप-प्रत्यारोप तो बीजेपी की ओर से कांग्रेस के नेताओं के विचारों को भी नक्सली विचारधारा बताया गया है. टुकड़े-टुकड़े गैंग की परिभाषा भी अर्बन नक्सलिज्म को ही उजागर करने के लिए गढ़ी गई है.

    संविधान और कानून की बातें सभी राजनीतिक दल करते हैं, लेकिन जब भी फैसले उनके खिलाफ़ जाते हैं, तो फिर ममता बनर्जी जैसा ही रुख अपना लेते हैं. राजनीतिक भ्रष्टाचार, राजनीतिक व्यभिचार और नोटों का पहाड़ उजागर होने के बाद भी ईमानदार सरकार का दावा राजनीति का नक्सलिज्म ही कहा जाएगा. ममता बनर्जी ऐसी नेता हैं, जिन्होंने वामपंथियों से इन्हीं परिस्थितियों के खिलाफ संघर्ष किया है.

    सबसे दुर्भाग्यजनक बात यही है, कि आज उनके शासन में भी इसी तरह की परिस्थितियां विद्यमान हैं. अदालत के आदेश को नहीं मानने की बात ममता बनर्जी की राजनीतिक समझ पर भी सवाल खड़े करती है. वह चाहतीं तो मर्यादित शब्दों में अपने वोट बैंक को मैसेज भी दे सकती थीं और अदालत के सम्मान के विरुद्ध कोई बात भी नहीं करतीं.

    बचे दोनों चरणों के चुनाव में ओबीसी लिस्ट निरस्त करने के कोर्ट के आदेश के संभावित प्रभाव को देखकर शायद ममता बनर्जी ने इस तरह की असंवैधानिक बात कही है, जो दीर्घकाल में उन्हें राजनीतिक नुकसान पहुंचा सकती है. सियासी ममता मजबूरी हो सकती है, लेकिन संविधान के साथ निर्ममता लोकतंत्र में स्वीकार नहीं हो सकती.

   अदालत के फैसलों के खिलाफ़ राजनेताओं की टिप्पणियां लगातार बढ़ती जा रही हैं. मर्यादाएं चारों तरफ से टूट रही हैं. न्यायाधीशों को भी सियासी दृष्टिकोण से दूरी बनाकर रखना चाहिए. बंगाल में तो अप्रत्याशित घटनाक्रम के तहत हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश को रिटायरमेंट के बाद बीजेपी की ओर से लोकसभा में प्रत्याशी बनाया गया है. 

    बंगाल में शायद मर्यादाओं की बात बची नहीं है. अब तो दोनों तरफ से आर-पार की लड़ाई हो रही है. बंगाल के लोगों के भविष्य की चिंता करना स्वाभाविक है. सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बंगाल को सियासी कंगाल बनाने की सुनियोजित साजिश राज्य के अमंगल का ही संकेत है. संविधान के ओबीसी रिजर्वेशन को वोट बैंक के लिए  सियासी डोनेशन बनाना चोर दरवाजे से संविधान के विरुद्ध काम करना है.