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गलत सूचना फैलाने को खुला निमंत्रण

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 15 Jan

सार

लंबे समय तक ट्रंप से वैचारिक टकराव मोल लेने वाले अमेरिका से संचालित मेटा ने ट्रंप की ताजपोशी से ठीक पहले अपनी नीति में बड़ा बदलाव किया है,मेटा ने अपने उस तथ्य जांच कार्यक्रम से हाथ खींचने का फैसला किया है जो ऑनलाइन गलत सूचनाओं और दुष्प्रचार को नियंत्रित करने का एक महत्वपूर्ण साधन था..!!

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विस्तार

संयुक्त राज्य अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी से पहले की जा रही उग्र बयानबाजी से पूरी दुनिया में हलचल है। अब चाहे कनाडा को अमेरिका में मिलाने का उनका दावा हो या ग्रीनलैंड व पनामा नहर पर प्रभुत्व का बयान, शेष दुनिया के लिये चिंता की बात यह है कि निष्पक्ष वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर होने का दावा कर रहे अमेरिका संचालित बहुचर्चित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी ट्रंप के निरंकुश व्यवहार से गहरे तक प्रभावित हो रहे हैं। 

लंबे समय तक ट्रंप से वैचारिक टकराव मोल लेने वाले अमेरिका से संचालित मेटा ने ट्रंप की ताजपोशी से ठीक पहले अपनी नीति में बड़ा बदलाव किया है। मेटा ने अपने उस तथ्य जांच कार्यक्रम से हाथ खींचने का फैसला किया है जो ऑनलाइन गलत सूचनाओं और दुष्प्रचार को नियंत्रित करने का एक महत्वपूर्ण साधन था। निश्चित रूप से सूचना की विश्वसनीयता के लिये निर्धारित व्यवस्था के खत्म होने से ऑनलाइन झूठ व दुष्प्रचार के खिलाफ वैश्विक अभियान को झटका लगेगा। 

निश्चित तौर पर यह नाटकीय बदलाव वर्ष 2016 में सोशल मीडिया दिग्गज द्वारा शुरू किए स्वतंत्र थर्ड पार्टी तथ्य जांच कार्यक्रम के अंत का प्रतीक है। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि यह निर्णय अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव जीतने वाले डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी से ठीक पहले आया है। ट्रंप मेटा के मुखर आलोचक रहे हैं। ट्रंप आरोप लगाते रहे हैं कि सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी आवाज को सेंसर किया जाता रहा है। वहीं मेटा के सीईओ मार्क जुकरबर्ग का कहना है कि उनके इस निर्णय की मुख्य प्रेरणा मुक्त अभिव्यक्ति को प्रश्रय देना है। उनकी इस दलील से कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता। अमेरिका में तो दक्षिणपंथी रुझानों वाला ऐसा वर्ग भी है जो सोशल मीडिया पर सूचना सामग्री में किसी भी हस्तक्षेप का विरोध करता है। जिसके चलते फर्जी खबरों के कारण विवादों की श्रृंखला को जन्म मिल सकता है।

आशंका है कि तथ्यों की जांच की व्यवस्था समाप्त करने से झूठ और अफवाहों का तंत्र कालांतर कानून व्यवस्था के लिये भी बड़ी चुनौती बन सकता है। जिससे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों की सूचनाओं की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठेंगे। मेटा के इस कदम के बाद अन्य सोशल मीडिया प्लेट फॉर्म भी दबाव में ऐसे कदम उठा सकते हैं। 

राष्ट्रपति का पद संभालने जा रहे ट्रंप से खराब रिश्ते सुधारने हेतु मार्क जुकरबर्ग का कदम व्यावसायिक दृष्टि से तो समझ में आ सकता है, लेकिन सोशल मीडिया पर सूचनाओं की दृष्टि से यह एक गैरजिम्मेदार कदम है। जो दुनिया में विश्वसनीयता व सूचना अखंडता के लिये अच्छा संकेत नहीं है। विडंबना ही है कि सूचना सामग्री को मॉडरेट करने के लिये पेशेवर तथ्य-जांचकर्ताओं पर भरोसा करने के बजाय मेटा एक्स के रास्ते पर जा रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण ही है। 

पहले जांच-पड़ताल करके दी जाने वाली पोस्ट पाठकों व दर्शकों का भरोसा जगाती थी कि सूचना सामग्री विश्वसनीय है, लेकिन अब इस नियमन में ढील के निहितार्थों को लेकर गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। आशंका है कि अब फेसबुक, इंस्टाग्राम व थ्रेड्स पर गलत सूचनाओं को नियंत्रित करना संभव नहीं हो पाएगा। जिससे ऑनलाइन झूठ को बढ़ावा मिल सकता है। खासकर भारत के संदर्भ में देखें तो नफरत फैलाने वाले भाषण न केवल लोगों तक विश्वसनीय जानकारी की पहुंच को कमजोर कर सकते हैं बल्कि लोगों की राजनीतिक नेताओं का सामना करने की क्षमता को भी कमजोर कर सकते हैं।

हम विगत में देखते रहे हैं कि ‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’ की धारणा लगातार गलत तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत करती रही है। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करती है। जो सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को खुली छूट देने के नुकसान को ही दर्शाती है। यदि झूठ की जहरीली बाढ़ को कम नहीं किया गया तो इसका समाज पर घातक असर पड़ सकता है। ऐसे में सामाजिक समरसता व शांति के लिये अधिक तथ्य जांचकर्ताओं की आवश्यकता महसूस की जा रही है। निश्चय ही जांच की व्यवस्था न होने का मतलब है शून्य जवाबदेही और झूठ व गलत सूचना फैलाने का खुला निमंत्रण।