संविधान और गणतंत्र के 75 साल पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर संसद एक लंबा विमर्श कर, संविधान की समीक्षा करती तो ठीक था..!!
ग़ज़ब और शर्मनाक है यह सब। “संविधान समीक्षा के नाम पर अतीत के प्रधानमंत्रियों और उनके फैसलों को लगातार कोसना, कांग्रेस को संविधान का ‘शिकार करने वाली पार्टी’ करार देना, उसके खून मुंह लग गया है, लिहाजा संविधान को बार-बार ‘लहूलुहान’ किया गया” ऐसे कथन संविधान की समीक्षा नहीं कहे जा सकते। देश के संविधान में 125 से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं। सभी संसद में पारित किए गए। संविधान और गणतंत्र के 75 साल पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर संसद एक लंबा विमर्श कर, संविधान की समीक्षा करती तो ठीक था। संसदीय परंपरा यही रही है और उसी का अनुपालन किया जाना चाहिए था।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के 17 साल कालखंड के दौरान 17 बार संविधान में संशोधन किए गए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकालों के दौरान क्रमश: 28 बार और 10 बार संविधान में संशोधन किए गए, तो आज उन पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं? उनकी प्रासंगिकता क्या है? वे तमाम संविधान-संशोधन संसद ने ही पारित किए, तो संविधान कैसे ‘घायल’ किया गया? यदि देश की स्वतंत्रता के बाद करीब 55 साल कांग्रेस ने देश पर शासन किया, तो देश ने जनादेश दिया होगा!
क्या जनादेश का अपमान करना ही संविधान की समीक्षा है? संविधान की समीक्षा के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने 110 मिनट के संबोधन में लोकसभा में 11 संकल्प रखे। उनमें खास हैं-नागरिक और सरकार अपने कर्तव्यों का पालन करें। हर क्षेत्र और समाज का समान विकास सुनिश्चित किया जाए।
देश के कानून, नियम…देश की परंपराओं के पालन में गर्व हो। गुलामी की मानसिकता से मुक्ति हो, देश की विरासत पर गर्व हो। सिर्फ स्वार्थ के लिए संविधान को हथियार न बनाया जाए। जिन्हें आरक्षण मिल रहा है, उसे न छीना जाए, लेकिन धर्म के आधार पर आरक्षण की कोशिश पर रोक लगे। राजनीति परिवारवाद से मुक्त हो।
भ्रष्टाचार पर ‘जीरो टॉलरेंस’ और भ्रष्टाचारी सामाजिक स्वीकार्य न हो। महिलाओं के नेतृत्व में विकास के जरिए भारत एक मिसाल बने। ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का ध्येय हो।’ इन संकल्पों को लोकसभा में प्रस्ताव के तौर पर पारित किया जाता, तो वह संविधान का हिस्सा हो सकता था। वह संविधान की समीक्षा की कोशिश भी होती।
संविधान के कुछ अनुच्छेद आज अप्रासंगिक हो सकते हैं, कुछेक में अनिवार्य संशोधन या मिटाने की जरूरत होगी, तो संसद उन पर व्यापक बहस करती और अंतिम संशोधन पारित करती, तो उसे संविधान-समीक्षा माना जा सकता था। प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा, वह निरी सियासत के अलावा कुछ भी नहीं।
दूसरी तरफ लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने संविधान और ‘मनु स्मृति’ की तुलना करने का प्रयास किया। यह बुनियादी तौर पर गलत है, क्योंकि संविधान हमारे महान पुरखों की ‘संविधान सभा’ में लगातार विमर्श के बाद, बाकायदा अनुच्छेदों में, लिखा गया है। उसे राष्ट्रीय मान्यता दी गई है। ‘मनु स्मृति’ न तो कोई संवैधानिक संकलन है और न ही पुराण, वेद, उपनिषद-सम्मत कोई दस्तावेज है।
‘मनु स्मृति’ का संबंध करीब 100 साल पुराने आरएसएस, जनसंघ और भाजपा से भी नहीं है। कांग्रेस और कुछ विपक्षी दलों ने एक मान्यता गढ़ ली और वे ‘मनु स्मृति’ को संविधान के समानांतर मानते रहे हैं। यह सोच और मानसिकता भी गलत है। यदि किसी ‘मनु’ को प्रकृति का ‘आदि-पुरुष’ माना जाता है, तो वह राहुल गांधी की कांग्रेस, सपा, राजद, तृणमूल और वामपंथी दलों का भी ‘आदि-पुरुष’ होगा।