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लोकतंत्र की सुगंध के लिए जरूरी है, अपराधियों पर प्रतिबंध

सार

अपराधियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध पर बहस बहुत पुरानी है. सर्वोच्च न्यायालय में इस संबंध में एक याचिका पर विचार में केंद्र सरकार द्वारा आपराधिक मामलों के आरोपियों को चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने के विरुद्ध अपना मत दिया है. केंद्र सरकार ने अपने शपथ पत्र में यह स्वीकार किया है, कि यह बहुत कठोर दंड होगा. इसके साथ ही इस मामले पर न्यायालय नहीं बल्कि संसद विचार कर कानून बना सकती है..!!

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विस्तार

    सुप्रीम कोर्ट ने अभी अपनी राय अथवा निर्णय नहीं दिया है. लेकिन पूरे देश में केंद्र सरकार के इस एफिडेविट की चर्चा है. सामान्य दृष्टि से ऐसा ही माना जा रहा है, कि आजीवन प्रतिबंध के प्रावधान नहीं लागू कर राजनीति का, राजनीति द्वारा, राजनीति के लिए सुरक्षा कवच बनाया जा रहा है.

    संसद और विधानसभाओं के निर्वाचित जन प्रतिनिधियों में 43% प्रतिनिधियों के खिलाफ़ गंभीर आपराधिक आरोप हैं. जब अपराधी सरकार में बने रहने के लिए राजनीति में भाग लेते हैं, तो इसे राजनीति का अपराधीकरण कहा जाता है. यह ख़तरा लगातार बढ़ता जा रहा है. इसका कारण वोट बैंक की राजनीति है. उम्मीदवार और राजनीतिक दल अक्सर वोट ख़रीदने या प्रभावित करने के लिए ऐसे लोगों का सहारा लेते हैं, जिन्हें आमतौर पर गुंडा कहा जाता है. 

    वोट की राजनीति से राजनेताओं और उनके निर्वाचन क्षेत्र के बीच ऐसे संबंध विकसित हो जाते हैं, जिससे व्यक्तिगत लाभ के लिए सत्ता और संसाधनों को दुरुपयोग प्रोत्साहित होता है. इससे ही भ्रष्टाचार एवं अपराधिक गतिविधियों को जन्म मिलता है. मतदाताओं की भी इसे गलती माना जाएगा, कि पूर्वाग्रही दृष्टिकोण से अपराधिक पृष्ठ भूमि वाले राजनेताओं को इसलिए चुना जाता है, क्योंकि वह अपने कार्यों हेतु जवाबदेह होने की बजाय, किसी विशेष समुदाय या समूह के लिए प्रोटेक्टर के रूप में काम करते हैं. चुनाव में बाहुबल भी अपराधीकरण को प्रोत्साहित करता है.

    काला धन और माफिया द्वारा दिया जाने वाला फंड राजनीति के अपराधीकरण में महत्वपूर्ण योगदान देता है. ऐसे ही काले धन का उपयोग वोट खरीदने और चुनाव जीतने के लिए किया जाता है. राजनीति के अपराधीकरण से संसदीय व्यवस्था में अकुशल शासन बढ़ता है या अकुशल शासन राजनीति में अपराधीकरण बढ़ाने में भूमिका निभाता है, यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. भारत में चुनाव प्रक्रिया में आदर्श आचार संहिता भी किसी कानून द्वारा लागू नहीं की जाती.

    राजनीति में अपराधीकरण स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत के ना केवल खिलाफ़ है, बल्कि इससे लोकतंत्र का आधार कमजोर होता है. 

    कानून तोड़ने वाले कानून निर्माता बन जाते हैं, तब लोकतांत्रिक शासनअपनी मर्यादा खोने होने लगता है. इससे सुशासन प्रभावित होता है. राजनीति में अपराधियों के कंट्रोल की प्रवृत्तियां चुने हुए जनप्रतिनिधियों की गुणवत्ता और छवि खराब करती है. राजनीति में अपराधीकरण के कारण राजनेताओं के लिए वोट खरीदना और अपने पदों को सुरक्षित करना आसान हो जाता है. शायद इसी कारण भ्रष्ट व्यवस्था राजनीतिक प्रणाली का हिस्सा बन जाती है. इससे समाज में हिंसा की संस्कृति बढ़ती है. इसके साथ ही शासन प्रणाली के रूप में लोकतंत्र में लोगों के विश्वास में कमी आती है. 

    जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में विधायिका को चुनाव लड़ने के लिए किसी व्यक्ति को अयोग्य घोषित करने के मानदंड का उल्लेख है. इसके अनुसार 2 वर्ष से अधिक सजा याफ्ता व्यक्ति कारावास की अवधि समाप्त होने के बाद 6 वर्ष तक चुनाव में खड़ा नहीं हो सकता. वर्तमान में कानून ऐसे व्यक्तियों को चुनाव लड़ने से नहीं रोकता है, जिनके खिलाफ़ अपराधिक मामले लंबित हैं. राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए देश में बहुत पहले से विचार-विमर्श हो रहा है, लेकिन अभी तक कोई पुख्ता कानूनी व्यवस्था नहीं हो सकी है. 

    इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने भी अनेक बार निर्णय दिए हैं. इसी तरह के निर्णयों से कम से कम इतनी पारदर्शिता तो आई है, कि चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपने आपराधिक रिकॉर्ड का पूरा विवरण कानून के अंतर्गत सार्वजनिक करना पड़ता है. 

    संसदीय प्रणाली दलीय आधार पर काम करती है. यह भी आश्चर्यजनक है, कि विभिन्न राजनीतिक दल आपराधिक आरोपों वाले उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में उतारते हैं. यह शायद इसीलिए किया जाता है, क्योंकि ऐसे उम्मीदवारों के धन बल, बाहुबल और आपराधिक छवि चुनाव जीतने में मददगार होती है. राजनीतिक दलों का पहला उद्देश्य चुनाव जीत कर सत्ता हासिल करना होता है, इसलिए जिताऊ उम्मीदवार उतारते समय आपराधिक आरोपों को दरकिनार कर दिया जाता है.

    चाहे सर्वोच्च न्यायालय अपना निर्णय दे या भारत की संसद कानून बनाए, लेकिन राजनीति से अपराधीकरण समाप्त होना चाहिए. चुनाव आयोग को ऐसी शक्तियां मिलनी चाहिए, कि आपराधिक लोगों को चुनाव से अयोग्य घोषित किया जा सके. चुनाव के दौरान काले धन का उपयोग को रोकने के लिए भी कानून बनना चाहिए. न्यायिक प्रक्रिया शीघ्र पूरी हो ऐसी व्यवस्था भी करना जरूरी है. मतदाताओं को भी अपने कर्तव्य के प्रति सजग और सावधान रहने की जरूरत है. छोटे स्वार्थ के लिए आपराधिक छवि के उम्मीदवार को  चुनने की प्रवृत्ति छोड़नी पड़ेगी. जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करने की जरूरत है.

    लोकतंत्र और राजनेताओं के प्रति बढ़ता अविश्वास भी शायद इसीलिए है, क्योंकि चुनाव के समय तो मतदाता पूर्वाग्रह में अपना मत दे देते हैं, लेकिन बाद में पांच साल अपने कर्मों की सजा भुगतते हैं. मुफ्तखोरी की योजनाओं से मतदाताओं को प्रलोभन देने की जो नई शैली राजनीति में प्रारंभ हुई है, वह भी राजनीति में अपराधीकरण को ही प्रोत्साहित कर रही है. 

    नैतिकता लोकतंत्र की आत्मा होती है. अब तो सत्ता लोकतंत्र की आत्मा बन गई है. नैतिकता का तो कहीं पता नहीं है. राजनीति में नैतिकता तो जैसे परित्यक्ता हो गई है. यह जानते हुए भी, कि सारी सत्ता, सारे पद, सारी प्रतिष्ठा, सारा धन-वैभव मृत्यु छीन लेती है. केवल व्यक्ति की नैतिकता है, जो इसके बाद भी समाज का मार्गदर्शन करती है. अपराधीकरण दूसरों को नहीं स्वयं को नष्ट करता है. 

    राजनीति के अपराधीकरण को लोकतंत्र की मजबूरी नहीं बनाया जाए. व्यवस्थाओं के सहारे सूरमा बनने वाले सांसों पर संकट के समय सच का सामना करते हैं.