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विधायी इतिहास का हिस्सा, नहीं बनेगा अंग प्रदर्शन

सार

मध्य प्रदेश विधानसभा के बजट सत्र की शुरुआत के साथ प्रदर्शन की शुरुआत हो गई है. विधानसभा का घेराव एक राजनीतिक आंदोलन है, लेकिन सदन परिसर में साज-सज्जा के साथ अंग प्रदर्शन प्रचार की भूख कहीं जा सकती है..!!

janmat

विस्तार

    विपक्षी दल का विरोध इस बात पर है, कि विधानसभा की बैठकें कम होती जा रही हैं. इस बजट सत्र में 9 बैठकें प्रस्तावित हैं. विपक्ष को यह बैठकें कम लग रही हैं, इसी को बढ़ाने के लिए प्रदर्शन किया गया.

    विधानसभा के पिछले सत्र में विपक्ष की ऐसी ही रणनीति देखी गई थी, जिसमें हर दिन पूरी साज-सज्जा कर विधायक सदन में पहुंचते थे. जिसको मीडिया में काफी प्रचार मिला था. यहां तक कि कांग्रेस विधायक दल ने एक बार तो हाथ में कटोरा लेकर भी सदन परिसर में प्रदर्शन किया था.  विधानसभाओं का उपयोग राजनीतिक दलों के प्रदर्शन केंद्र के रूप में नहीं किया जा सकता. 

    दिल्ली में प्रदर्शन के लिए जंतर-मंतर निर्धारित है. सभी राज्यों की राजधानियों में ऐसे स्थल निर्धारित हैं. विधानसभा परिसरों को राजनीतिक स्वार्थ के लिए जंतर-मंतर के रूप में उपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगेगी, तो फिर सत्ताधारी दल हमेशा यही प्रयास करेगा कि सदन की बैठकें उतनी ही हों, जितनी सरकारी कामकाज के लिए जरूरी हैं. मध्य प्रदेश विधानसभा की बैठकें कम होने के पीछे राज्य की जनता जिम्मेदार नहीं है, बल्कि निर्वाचित प्रतिनिधियों का आचरण इसके लिए दोषी है.

    लोकतंत्र का मंदिर निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए जन सेवा का मंदिर है. अगर यह स्वप्रचार की सेवा का केंद्र बन जाएगा, तो फिर सदन की बैठकों की संख्या घटती ही जाएगी. कोई मंदिर जाए और फिर मीडिया में उसका फोटो प्रचारित करें तो इसको जन सामान्य अच्छी दृष्टि से नहीं लेता. विधानसभा परिसरों में विभिन्न वेषभूशा धारण कर हो रहे प्रदर्शनों का परसेप्शन कभी अच्छा नहीं बनता है. ऐसे प्रचार से आत्मसंतुष्टि मिल सकती है, लेकिन चुनाव में जब जनता के फैसले का समय आता है, तो फिर ऐसे प्रदर्शनकारियों को जनता हतोत्साहित करने का ही काम करती है.

    कांग्रेस द्वारा विधानसभा के घेराव के लिए जो प्रदर्शन किया गया है, वह निश्चित रूप से विपक्ष का दायित्व है. जनता विपक्षी दल से यही अपेक्षा करती है, कि जनहित के मुद्दों पर सरकार की गलती उजागर की जाए. कांग्रेस को प्रदर्शन के मुद्दों की गंभीरता पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. यह परिस्थितियां तो लगभग समाप्त हो गई हैं,  जब विपक्ष अपने रिसर्च कर मुद्दों और असफलताओं को प्रमाण और तथ्यों के साथ सरकार को कटघरे में खड़ा करता था.

    अब तो विपक्ष की भूमिका मीडिया द्वारा ही निभाई जाती है. समाचार पत्रों और मीडिया के दूसरे प्लेटफॉर्म से जो गड़बड़ियां उजागर हो जाती हैं, उन्हें ही लकीर की तरह से पीटा जाता है. जनप्रतिनिधि जमीन से जुड़े होते हैं. जमीन की आवाज सदन में पहुंचनी चाहिए. सदन में जिस तरह के प्रश्न लगाए जाते हैं, जिस तरह की चर्चाएं देखी जाती हैं, वह भी सब मीडिया से ही उपजी हुई कही जा सकती हैं. नीचे से जमीन के तथ्य तो कभी-कभी देखने और सुनने को मिलते हैं.

    विधानसभा की गंभीरता और पवित्रता बनाए रखना निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का ही दायित्व है. इसमें विपक्ष और सरकार दोनों शामिल हैं. मीडिया तो हमेशा ऐसे तथ्य उजागर करता है, जो जन प्रतिनिधियों को परेशान करना चाहिए. लेकिन ऐसे तथ्यों पर कभी भी ध्यान नहीं दिया जाता. विधानसभा में मुख्यमंत्री और मंत्रियों द्वारा चर्चा और विचारविमर्श के दौरान में आश्वासन दिए जाते हैं इन अश्वासनों को कप्लायंस की गारंटी माना जाता है.

    यह दुर्भाग्यजनक स्थिति है, कि 27 साल पहले तक के  आश्वासन अभी तक लंबित हैं. लगभग ढाई हजार आश्वसनों पर कार्रवाई अपेक्षित है. निश्चित रूप से यह दायित्व सरकार के विभागों का है, लेकिन इससे विपक्ष के जनप्रतिनिधि बच नहीं सकते. अगर उन्हें आश्वासन याद होते, हर सत्र में उन आश्वासनों की पूर्ति पर बात उठाई जाती, तो फिर कोई भी सरकार इतने लंबे समय तक ऐसे आश्वासनों को बिना पूरा किए लंबित कैसे रख सकती थी.

    विधानसभाओं में राज्य के बजट बिना चर्चा के पारित होने की परंपरा सी बनती जा रही है. इस बार भी सभी विभागों की अनुदान मांगों पर चर्चा हो सकेगी, यह कठिन लग रहा है. विपक्ष ने जिस ढंग से प्रदर्शन के साथ शुरुआत की है, उससे तो यही लगता है कि हर दिन विपक्ष का अलग-अलग ढंग के साथ प्रदर्शन करने की रणनीति पहले से ही निर्धारित है. सरकार भी शायद ये जानती है, इसीलिए बहुत छोटा सत्र नोटिफाई किया है. नोटिफिकेशन के मुताबिक भी पूरे समय के लिए सत्र चल पाएगा इसकी भी कोई गारंटी नहीं ली जा सकती.

    राजपाल का अभिभाषण, राज्य का बजट, विकास और जनता की सेवा के लिए गीता, बाइबल और कुरान जैसा है. सदन में इन अवसरों पर अगर हो हल्ला और प्रदर्शन पर फोकस रहेगा, तो फिर उनकी दिशा भी आंधी, बवंडर जैसा इधर-उधर भटकेगी.

    सरकारों में भी विधानसभा संचालन के प्रति गंभीरता में कमी तो दिखाई ही पड़ती है. सदन के हर सत्र के परफॉर्मेंस के पीछे भविष्य के चुनाव की छाया देखी जा सकती है. चाहे सरकार हो, चाहे विपक्ष हो दोनों अपने कदम और चालें उसी हिसाब से चलते हैं. परसेप्शन ऐसा बनाने की कोशिश करते हैं, कि जनप्रतिनिधि अपनी भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन कर रहा है. जनादेश तो यही बताते हैं, कि पब्लिक की पूरी नजर होती है. कुछ लोग जमावट अथवा अन्य कारणों से भले हीजीत कर आ जाते हों, लेकिन जो भी दिखावे की राजनीति में फंसता है, उसको जनता अंतत: घर ही बिठा देती है.

    विधानसभा की गरिमा और मर्यादा किसी तंत्र की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हर निर्वाचित जनप्रतिनिधि की जिम्मेदारी है. जो भी जनप्रतिनिधि इसकी अनदेखी करता है, वह अपने लोकतांत्रिक धर्म का अनादर करता है. संवाद और विचार सबसे महत्वपूर्ण हैं.

    आजकल कंटेंट बिकता है. आपकी बातों, मुद्दों में अगर दम है, तो उसके प्रभाव को कोई रोक नहीं सकता. केवल प्रदर्शन करके मीडिया फोकस जो मिलता है, वह बहुत ही तात्कालिक होता है. इसका दूरगामी लाभ नहीं बल्कि नुकसान ही होता है. इतने कम दिनों के सत्र का भी प्रदर्शनों में बर्बाद होना निराशाजनक ही होगा.