श्रद्धेय माधव राव सिंधिया की कटनी में स्थापित प्रतिमा हटाने पर विवाद हो गया है. जिस तरीके से प्रतिमा को हटाया गया, उसे प्रतिमा की बेकद्री मानते हुए इंजीनियरों को सस्पेंड कर दिया गया है. स्थानीय सांसद और सरकार भी पूरे मामले पर संवेदनशील दिखी. इस पर सियासत भी हुई..!!
कांग्रेस ने अपने पूर्वज के सम्मान पर बयान भी दिए. सिंधिया परिवार की करीबी के सुखद क्षणों और इस परिवार के कारण कांग्रेस को लगे झटके के दुखद क्षणों को प्रतिक्रिया में महसूस किया जा सकता है.
निश्चित रूप से प्रतिमा हटाने में और अधिक सम्मानजनक तरीका अपनाया जा सकता था. इसमें कोई दो राय नहीं है, कि प्रतिमाओं का सम्मान और रखरखाव होना ही चाहिए. लेकिन इस घटना से कई सवाल खड़े हो रहे हैं?
सबसे पहला सवाल कि,सियासी नेताओं की प्रतिमाओं की कितनी जरूरत और उपयोगिता है? सरकारों में प्रतिमा स्थापना के लिए क्या कोई स्टैंडर्ड प्रोसीजर निश्चित है? प्रतिमा स्थापना के लिए नेताओं का चयन किस आधार पर किया जाता है? सत्ता समीकरण और सियासी जरूरत मात्र की प्रतिमा स्थापना और उनके महिमा मंडन के लिए जरूरी है?
सिंधिया परिवार का मध्य प्रदेश की राजनीति में अहम योगदान है. परिवार ने प्रदेश की राजनीति की धारा बदलने में भी भूमिका निभाई है. श्रीमती विजयाराजे सिंधिया ने डीपी मिश्रा की सरकार गिराई, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ सरकार का पतन सुनिश्चित किया. माधवराव सिंधिया ने कोई सरकार तो नहीं गिराई लेकिन उस समय की सरकारों में उनकी मर्जी आदेश के रूप में ही मानी जाती थी.
आजादी के बाद राजा-महाराजा तो बचे नहीं हैं, लेकिन डेमोक्रेटिक व्यवस्था में राजाओं, महाराजाओं ने अपनी भूमिका ज़रूर बदल ली. देश के लगभग सभी राजा-महाराजा, सियासत के राजा-महाराजा बन गए हैं. इन राजाओं-महाराजाओं के धन और वैभव से डेमोक्रेसी भी प्रभावित हुई है.
लोकतंत्र में चुने हुए पदों पर पहुंचने वाले नेता भी अब स्वयं को राजा-महाराजा ही समझने लगे हैं. इसी सोच के कारण शायद नेताओं की प्रतिमाओं की स्थापना के विचार का उदय हुआ.
संसदीय प्रणाली में जनादेश के परिणाम स्वरूप सत्ता का हस्तांतरण आम बात है. सत्ता में पदों पर बैठे लोग अपने और अपने पूर्वजों की प्रतिमा स्थापना की कोशिश करते हैं. सरकारी सिस्टम में नेताओं की प्रतिमाओं की स्थापना, शहरों, सड़कों, संस्थाओं,योजनाओं के नामकरण और नामों में बदलाव के विवाद लगातार बढ़ रहे हैं.
मूर्तियों और प्रतिमाओं के साथ छेड़छाड़ भी विवाद के कारण बनते रहे हैं. यह विचारधारा का ही संघर्ष रहा कि, स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा स्थापित करने में सफलता मिली.
राष्ट्रीय और सांस्कृतिक गौरव से जुड़ी प्रतिमाओं की स्थापना जरूरी है, तो लोकतंत्र में चुने गए लोकसेवकों महापुरुषों को स्थापित करने की परंपरा स्वीकार नहीं की जा सकती. पद पर पहुंचने के बाद सामान्य व्यक्ति को भी सिकंदर महान बनने में देर नहीं लगती. महानता, जनविश्वास से बनती है लेकिन यहां तो सरकारें खुद ही अपने को महान घोषित कर देती हैं.
भारत में दो प्रधानमंत्री जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैं, जिनकी सरकारों ने खुद उन्हें भारत रत्न देने का निर्णय लिया. और इसके बाद ही यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे हर राज्य में बढ़ती गई.
मध्य प्रदेश में मूर्ति स्थापना की एक नई कहानी लिखी गई है. इस कहानी के रचनाकार पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहे जा सकते हैं. मध्य प्रदेश के स्वर्गीय एवं पूर्व मुख्यमंत्री की प्रतिमा, मंत्रालय परिसर में लगाने का निर्णय लिया गया.
जन-धन खर्च कर प्रतिमाओं के निर्माण प्रक्रिया प्रारंभ की गई. प्रतिमाओं के स्वरूप को लेकर एक मत नहीं होने से प्रक्रिया में विलंब जरूर रहा लेकिन काम तो चल ही रहा है. एक मुख्यमंत्री द्वारा उसकी सरकार में पूर्व मुख्यमंत्रियों की प्रतिमा, लगाने की परिकल्पना के पीछे यह सोच हो सकती है कि, कालांतर में यह सुविधा उस नेता को भी मिलना एक दम तय है.
चुनावी संघर्ष में जिन नेताओं को बंटाधार और ना मालूम क्या-क्या कहा जाता है, उन्हीं की प्रतिमा जनधन से स्थापित करना कितना उचित है?
यह प्रवृत्ति भी जनहित के खिलाफ ही कही जाएगी कि, सरकारी तरीके से पूर्व मुख्यमंत्री को बंगले और साधन सुविधा दी जाती हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनावी प्रक्रिया में लोक सेवक के रूप में जो भूमिका अदा की गई है, उसके लिए पेंशन तो स्वीकार्य है लेकिन किसी विशेष पद को विशेष प्रकार की सुविधा देना भी प्रतिमाओं को ही सम्मानित करने जैसा है.
सम्मान प्रतिमाओं का नहीं बल्कि प्रतिमानों का होना चाहिए. लोकतंत्र में लोक सेवक के रूप में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने अपने सेवाकाल में जो प्रतिमान स्थापित किए हैं, वही उनकी स्मृतियां हैं और उन्ही स्मृतियों की पूंजी उनका सम्मान है. प्रतिमाएं तो पत्थर की हैं, लेकिन प्रतिमान उनके जीवन के चैतन्य की उपलब्धियां हैं. प्रतिमाएं तो केवल अभिनय कहीं जा सकती हैं.
जीवित ब्रम्ह इंसान की गरिमा रोज खंडित हो रही है. प्रतिमाओं के सम्मान के नाम पर जितनी संवेदनशीलता दिखाई पड़ती है, उतनी ही आम आदमी के जीवन के प्रति उदासीनता दिखाई देती है. झांसी मेडिकल कॉलेज में नवजात बच्चे आग से कालकलवित हो गए. अक्सर ऐसे दृश्य दिखाई और सुनाई पड़तें हैं, कि अस्पतालों में लोगों को स्ट्रेचर नहीं मिला! पार्थिव शरीर ले जाने के लिए वाहन उपलब्ध नहीं हो सका!
विडम्बना ही कहिए कि लोग साइकिल पर डेड बॉडी ले जाने के लिए मजबूर हैं. ठेलों पर प्रसव हो जाते हैं. भाड़े पर शिक्षक काम कर रहें है! अब तो हालात ऐसे बन गए हैं, कि, इस तरह की खबरों पर संवेदना ही शून्य होने लगी है. जितनी संवेदना प्रतिमाओं पर दिखाई पड़ रही हैं, उतनी संवेदना अगर डेमोक्रेटिक गवर्नेंस सिस्टम में पैदा हो जाए तो फिर सेवा के नए प्रतिमान बन सकते हैं.
प्रतिमाएं और मूर्तियां तो टूटने के लिए ही स्थापित होती हैं. आज बांग्लादेश की आजादी के महानायक की मूर्तियां भी तोड़ दी गई हैं. पूरी दुनिया में कितने स्थान पर ना मालूम कितनी ही मूर्तियों को तोड़ दिया गया है. बदलते वक्त के साथ लोकसेवा और उसके तौर तरीके भी बदलते हैं. जो कल सही था, वह आज भी सही है और कल भी सही होगा? ऐसा सोचने और मानने वाले पिछड़ते ही जाते हैं. प्रतिमाओं का भविष्य प्रतिमानों से ज्यादा ना रहा है और ना रह सकता है.
चुने हुए जिम्मेदार नेताओं को प्रतिमाओं से ज्यादा अपने प्रतिमानों पर ध्यान देने की जरूरत है. प्रतिमान अगर अलोकप्रिय होंगे, तो फिर स्थापित प्रतिमाएं भी वांछित सम्मान हासिल नहीं कर पाएंगी. माधवराव सिंधिया का मध्य प्रदेश के विकास में योगदान निश्चित रूप से महत्वपूर्ण था.
उनकी प्रतिमा को जैसे हटाया गया, वो उचित नहीं माना जा सकता. लेकिन पत्थर तो पत्थर है. पत्थर को हटाने का तरीका मजदूर को कौन सिखाएगा? मजदूर को सिखाने का प्रतिमान सरकारें ही बनाएंगी. तभी प्रतिमाओं के अनादर के दृश्यों की पुनरावृत्ति नहीं होगी.