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अभियान और नारे, भ्रम के सहारे

सार

कांग्रेस ने शिवराज सरकार के खिलाफ चुनावी अभियान और पोस्टरों में मुख्य मुद्दा शिवराज के 18 साल के शासन को बनाया है. पूरे केम्पेन को इस थीम पर डिजाइन किया गया है कि ‘शिवराज 18 साल बस बहुत हुआ’.

janmat

विस्तार

पीसीसी प्रेसिडेंट कमलनाथ इस केम्पेन को लीड कर रहे हैं. किसी भी लीडर का 18 साल सरकार में रहने को बहुत हुआ कहना स्वाभाविक है लेकिन यह कौन कह रहा है इस पर सवाल उठना भी स्वाभाविक है. 40 साल से अधिक समय तक सांसद, मंत्री, विधायक, मुख्यमंत्री रहने के बाद भी जिस लीडर की पॉवर की हवस कम नहीं हो, कम से कम उसकी लीडरशिप में तो किसी भी पार्टी को किसी भी पार्टी के दूसरे नेता के लिए ‘18 साल बस’ कहने का नैतिक अधिकार नहीं हो सकता.

मध्यप्रदेश में सर्वाधिक समय तक केंद्रीय मंत्री रहने का रिकॉर्ड जिल नेता ने बनाया है वहीं किसी नेता की समयसीमा पर सवाल उठा रहा है. कथनी और करनी में इतना बड़ा अंतर राजनीति की आज सबसे बड़ी त्रासदी है. चेहरे पर सेवा की क्रीम लगाकर सत्ता की कालिख से मालामाल होने की लालसा और लिप्सा राजनीति से खीझ पैदा कर रही है.

एक नेता किसी क्षेत्र से 40 सालों से जनप्रतिनिधि के रूप में चुना जाता हो वह दूसरे नेता को केवल 18 साल होने के कारण आलोचना का शिकार बनाए, यह तो ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ ही कहा जाएगा. महत्वपूर्ण काल अवधि नहीं है महत्वपूर्ण है सेवा की उत्कृष्टता, पद पर अधिकारों के उपयोग की ईमानदारी, पारदर्शिता, अंदर और बाहर एक जैसा व्यक्तित्व, सच्चाई के प्रति समर्पण, आत्मज्ञान की जागृति और त्याग की जिजीविषा. 

राजनीति के अभियान और नारे वास्तविकता से परे भ्रामक और आकर्षक वातावरण बनाने की परंपरा से बन गए हैं. सरकारों की ओर से विकास और जन कल्याण के तथ्यात्मक सरकारी आंकड़े, रिपोर्ट कार्ड सार्वजनिक रूप से विज्ञापन के रूप में रोज प्रकाशित किए जाते हैं. इन तथ्यों पर विपक्षी राजनीति कोई सवाल खड़े नहीं करती.

एमपी सरकार भी लंबे समय से कांग्रेस की सरकार और बीजेपी की सरकार के दौरान किए गए विकास और निर्माण के तुलनात्मक आंकड़े अखबारों में प्रकाशित कर रही है. कांग्रेस की तरफ से एक बार भी इन आंकड़ों पर कोई भी तथ्यात्मक उत्तर नहीं दिया गया है. इसका मतलब है कि या तो विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस के नेताओं के पास राज्य के विकास के वर्तमान हालातों की जानकारी नहीं है या सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों को कांग्रेस तथ्यात्मक मानती है. 

एमपी में विपक्ष के रूप में कांग्रेस अभियान और पोस्टरों से भ्रामक वातावरण बनाने की कोशिश कर रही है तो राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसी तरह का काम विपक्ष के रूप में बीजेपी भी कर रही है. उन राज्यों में भी सरकारों द्वारा विकास और कल्याण के तथ्यात्मक आंकड़े सार्वजनिक रूप से दिए जा रहे हैं लेकिन विकास की इन उपलब्धियां की सत्यता या असत्यता पर विपक्षी पार्टी के रूप में कोई भी प्रतिक्रिया नहीं आना यही स्थापित करता है कि राजनीति केवल भ्रामक नारों और वातावरण से जनादेश की वैतरणी पार करना चाहती है.

बीजेपी कार्यकर्ता महाकुंभ में पीएम मोदी और सीएम शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस पर मध्यप्रदेश को बीमारू बनाने का आरोप लगाया. राज्य के विकास के बंटाढार के लिए बीजेपी कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराती है. कांग्रेस की यह नैतिक जवाबदारी है कि बीमारू और बंटाढार के आरोपों पर तथ्यात्मक रूप से अपना पक्ष प्रस्तुत करे. सरकार की ओर से विकास के अपने दावे के प्रचार प्रसार में कोई कमी नहीं छोड़ी जाती लेकिन राज्य के विकास के लिए खुद की पीठ थपथपाने वाली कांग्रेस कोई तथ्य प्रस्तुत नहीं करती है.

कांग्रेस किस नैतिक बल के साथ सियासत में समय सीमा की बात कर रही है? कांग्रेस की प्रचार थीम के अनुसार मुख्यमंत्री के रूप में 18 साल का समय बहुत है. यह कार्यकाल निश्चित रूप से बहुत की श्रेणी में आएगा लेकिन यह बात वहां से आ रही है जहां झूलते कंधे और डगमगाते पांव भी पद और पॉवर की लालसा कम नहीं कर पा रहे हैं. कांग्रेस पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि युवाओं को पीछे धकेला जाता है. अशोक गहलोत और सचिन पायलट का मामला ऐसी ही मानसिकता को दिखाता है. यही हालत मध्यप्रदेश में भी बने हुए हैं.

कांग्रेस में युवा नेताओं की लंबी फौज है. जीतू पटवारी, कमलेश्वर पटेल, ओंकार सिंह मरकाम, उमंग सिंघार और जयवर्धन सिंह जैसे प्रभावी प्रतिभावान युवा नेतृत्व कांग्रेस के युवा चेहरे के रूप में जनता में आशा और विश्वास बढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं. एमपी कांग्रेस नेतृत्व को कथनी और करनी में एकरूपता रखने के लिए युवा चेहरों को आगे बढ़ाना चाहिए.

उम्र के लिहाज से बीजेपी का नेतृत्व तो कांग्रेस के नेतृत्व की तुलना में युवा है. जो पार्टी बुजुर्ग नेतृत्व पर ही आगे बढ़ रही है, जिस चेहरे पर एंटी इनकन्वेंसी का लंबा बोझ है, ऐसे चेहरे पर आगे बढ़ना राजनीतिक मजबूरी है या वित्तीय प्रबंधन की क्षमता के आधार पर उस चेहरे को नेतृत्व दिया गया है?

लोभ और लाभ की लिप्सा की जब सामान्य जीवन में ही कोई सीमा निश्चित नहीं हो पा रही है तो फिर राजनीति में किसी को भी समय की सीमा में बांधकर ‘बस कहने की’ कथनी तो करनी से मेल नहीं खाती है. अभियान और नारे जब तक जनमत को भ्रमित करते रहेंगे तब तक राजनीति और विकास का चेहरा बनावटी ही रहेगा. इनकी सच्चाई तलाशने और उजागर करने की जरूरत बनी रहेगी.