कांग्रेस ने मोदी से मुकाबले के लिए गठबंधन का चप्पू तो चलाया लेकिन पहुंचे कहीं नहीं. गठबंधन के घाट पर खड़े-खड़े ही पप्पू डबल पप्पू बन गए. हाथों का गठबंधन और पैरों से लंगडी मारने का अद्भुत नजारा भारत की गठबंधन राजनीति में दिखाई पड़ रहा है. एक राज्य में गठबंधन और दूसरे राज्य में एक-दूसरे के आमने-सामने, ये राजनीति में ही हो सकता है..!!
लोकसभा चुनाव के नतीजे तो 4 जून को आएंगे लेकिन विपक्षी गठबंधन चुनाव के मैदान में ही हार गया. महारैली में एक साथ हाथ उठाकर एकजुटता दिखाने वाले राहुल गांधी के सामने गठबंधन के दल की ही उम्मीदवार चुनाव मैदान में है. कोई भी राज्य नहीं है जहां कांग्रेस का गठबंधन फुल स्प्रिट में आगे बढ़ सका हो.
बिहार से गठबंधन की शुरुआत हुई थी. गठबंधन के सूत्रधार तो एनडीए के साथ चले ही गए. लालू यादव ने भी कांग्रेस को पप्पू ही बनाया है. पूर्णिया छोड़ने के बदले दुनिया छोड़ने की बात करने वाले पप्पू यादव के राहुल गांधी के साथ जाते ही दोनों डबल पप्पू बन गए. एक तरफ डबल इंजन की सरकार अपनी ताकत दिखा रही है तो दूसरी तरफ डबल पप्पू की चुनावी बहार है.
आम आदमी पार्टी दिल्ली में तो कांग्रेस के साथ समझौते में लोकसभा चुनाव लड़ रही है लेकिन पंजाब में एक दूसरे के सामने है. दिल्ली और पंजाब बहुत दूर नहीं हैं. दिल्ली में गठबंधन का प्यार और पंजाब में गालियों की बौछार सियासी पप्पू ही कर सकते हैं. पश्चिम बंगाल में तो ममता बनर्जी ने पूरी तरह से पप्पू बना दिया है.
बंगाल में टीएमसी अकेले चुनाव लड़ रही है. टीएमसी यह भी आरोप लगा रही है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट के एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने से बीजेपी को फायदा होगा. जिसके खिलाफ गठबंधन बनाया उसी को लाभ पहुंचाने के आरोप पप्पू पर ही लग सकते हैं. तमिलनाडु में दो लोकसभा सीट राजनीति में पप्पूवाद का ही उदाहरण है. लालू यादव कांग्रेस के सबसे पुरानी सहयोगी हैं लेकिन उन्होंने भी पप्पू बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. यूपी में अखिलेश यादव तो पप्पूवाद की राजनीति का हश्र 2019 में भी देख चुके हैं.
पप्पू नाम हर गांव, कस्बे-नगर में प्रचलित है. पप्पू का शाब्दिक मतलब होता है गोल-मटोल प्यारा सा सुंदर सा बच्चा. पप्पू कोई बुरा शब्द नहीं है. राजनीति में पप्पू का आशय अपरिपक्व राजनीति से निकाला जाता है. कई पप्पू दबंग भी होते हैं. पूर्णिया के पप्पू यादव तो अपनी दबंगई के लिए ही जाने जाते हैं. राजनीति में पप्पू अपरिपक्वता के कारण पहचाने जाते हैं. मोदी विरोधी गठबंधन की राजनीति जिस तरीके से बिखरी बिखरी अलग-अलग राज्यों में दोस्ती दुश्मनी के एक साथ नजारे वाली दिखाई पड़ रही है वह अपरिपक्वता ही कही जा सकती है.
कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव में 52 सीट जीती थी. अब जो दृश्य दिखाई पड़ रहा है उससे तो ऐसा लग रहा है कि गठबंधन की पप्पूवादी राजनीति 2024 के चुनाव में इतनी सीट भी जीतने में सफल नहीं हो सकेगी. उत्तर भारत के राज्यों में कुल 195 सीट हैं. पिछले चुनाव में बीजेपी इनमें से 175 सीट जीतने में सफल हुई थी. उत्तर भारत के राज्यों में बीजेपी उभार की तरफ ही दिखाई पड़ रही है. राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के विजय रथ पर सवार भाजपा उत्तर भारत में अपनी संभावनाओं को और उज्जवल बना सकती है.
कांग्रेस को ज्यादा उम्मीद दक्षिण भारत से है. यद्यपि बीजेपी का भी इस चुनाव में दक्षिण भारत पर पूरा फोकस है. कांग्रेस जहां लूला लंगड़ा गठबंधन बनाए हुए है वहीं बीजेपी सोची समझी रणनीति के तहत कई राज्यों में गठबंधन से बाहर निकल गई है. पंजाब में शिरोमणि अकाली दल से बीजेपी का गठबंधन नहीं हुआ. काफी चर्चाओं के बाद भी उड़ीसा में बीजेडी और बीजेपी का गठबंधन आकार नहीं ले पाया. इसी प्रकार तमिलनाडु में एआईडीएमके के साथ गठबंधन में शामिल भाजपा ने चुनाव से पहले ही गठबंधन तोड़ दिया. राजनीतिक हल्कों में ऐसा माना जा रहा है कि इन राज्यों में बीजेपी की संभावना मजबूत हो रही है. सीटों की संख्या के बारे में तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इन राज्यों में बीजेपी का मत प्रतिशत हर हालत में बढ़ने जा रहा है.
कांग्रेस के लिए ना उत्तरप्रदेश में कोई उम्मीद है ना ही उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में जीत की कोई संभावना है. जो सीट पिछले चुनाव में कांग्रेस जीतने में सफल हुई थी उन पर भी कांग्रेस के लिए हार का खतरा मंडरा रहा है. मध्यप्रदेश में छिंदवाड़ा और उत्तरप्रदेश में रायबरेली सीट कांग्रेस का गढ़ रही हैं लेकिन इस चुनाव में इन दोनों सीटों पर कांग्रेस का जीतना आसान नहीं दिख रहा है.
राजनीति में एक दौर था जब कांग्रेस के विरोध में गठबंधन बना करते थे. जब से कांग्रेस गठबंधन की राजनीति पर आगे बढ़ी है तभी से उसका राजनीतिक जनाधार समाप्त हुआ है. उत्तरप्रदेश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस का मत प्रतिशत भी घट रहा है.
राहुल गांधी कांग्रेस के खेवनहार और सबसे बड़े नेता माने जाते हैं. उनके राजनीतिक वक्तव्य भी पप्पूवादी राजनीति का इशारा करते हैं. पिछले दिनों रामलीला मैदान में विपक्षी गठबंधन की रैली में राहुल गांधी चुनाव नतीजे के बाद देश में आग लगने की बात कर रहे थे. लोकतंत्र में कोई भी नेता देश में आग लगने की आशंका भी व्यक्त करता है तो उसके पीछे पप्पूवादी सोच ही हो सकती है, राजनीतिक अपरिपक्वता ही हो सकती है. मतदाताओं के जनादेश से जो भी हालात बनेंगे वह तो देश की ही आवाज होगी. देश ने ही उसको चुना होगा तो फिर आग लगने की बात तो लोकतंत्र के खिलाफ ही कही जाएगी. इस तरीके की भाषा लोकतंत्र में तो स्वीकार्य नहीं है.
जब तक कोई खुद अपनी ताकत पर खड़ा नहीं होगा तब तक सहारे पर खड़े होने की कोशिश बहुत लंबे समय तक सफल नहीं हो सकती. हाथ पैर से कमजोर कोई व्यक्ति किसी भी सहारे पर कितने समय तक खड़ा रह सकता है? कोई भी क्षेत्रीय दल कांग्रेस को गठबंधन में जोड़े तो रखना चाहता है लेकिन उसे अपने इलाकों में खड़े नहीं होने देना चाहता। गले भी मिलेंगे और खंजर भी भोकेंगे. यह अप्रोच तो पप्पूवादी गठबंधन में ही संभव हो सकती है. महाराष्ट्र में भी गठबंधन बिखर गया है. प्रकाश अंबेडकर की पार्टी अलग से चुनाव लड़ रही है. अंबेडकर के संविधान को बचाने का दावा करने वाले राजनीतिक दल प्रकाश आंबेडकर से भी समन्वय बनाने में सफल नहीं हुए.
गठबंधन के नाम को देश के नाम से जोड़ने की रणनीति भी पप्पूवादी ही कही जाएगी. यह भी कोई परिपक्वता की निशानी नहीं है. उच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई भी चल रही है. चलते चुनाव में ऐसा भी हो सकता है कि गठबंधन का नाम देश के नाम से बनाने पर गठबंधन को झटका लग जाए. गठबंधन की नाव घाट पर ही बंधी है. पप्पूवादी बंधी नाव पर ही चप्पू चला रहे हैं. डबल इंजन सरकार के मुकाबले गठबंधन डबल पप्पू पैदा कर रहा है.