जनता का मन पढ़कर और पकड़कर राज्य में बदलाव की बात करने वाली कांग्रेस प्रत्याशियों के बदलाव की बेढंगी चाल में फँस गई लगती है. चुनावी मोर्चे पर प्रत्याशियों के उतारने में ही इतनी बड़ी गफलत जमीनी हकीकत पर पकड़ नहीं होने का साफ संकेत कर रही है..!
नामांकन भरने की अंतिम तिथि तक कांग्रेस के पास प्रत्याशी बदलाव का वक्त है. अब तक 7 प्रत्याशी बदले जा चुके हैं और चर्चाओं पर भरोसा किया जाए तो प्रत्याशियों के बदलने का सिलसिला अभी रुकेगा भी नहीं. प्रत्याशियों का बदलाव इन सीटों के अलावा विरोध और असंतोष वाली दूसरी सीटों पर आक्रोश की नई लहर पैदा कर रहा है. जिस गति और सहजता से प्रत्याशी बदले जा रहे हैं उससे विरोध करने वालों की आशा बलवती हो रही है कि जोर से विरोध करेंगे तो प्रत्याशी बदल जाएंगे.
कांग्रेस में टिकटों का बदलाव जन-मन के झुकाव को देखकर नहीं हो रहा है. पहले टिकट देते समय भारी भूल की गई थी या बदलाव करके भारी भूल की जा रही है, यह तो चुनाव परिणाम ही साबित करेंगे. हाईकमान मध्यप्रदेश को वाई-फाई से कमांड कर रहा है. टिकट वितरण के सारे दावे, सारी रणनीतियां, सारे सर्वे, संगठन की सारी तैयारियां क्या केवल कागजी थीं? उनका जमीनी हकीकत से कोई लेना-देना नहीं था? टिकट वितरण में गलतियां तो हो सकती हैं लेकिन प्लानिंग के तहत जानबूझकर निहित स्वार्थ और उद्देश्यों से गलत टिकट देना और फिर उनमें बदलाव करना जनभावनाओं और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ खिलवाड़ ही कहा जाएगा.
टिकट वितरण के बाद बीजेपी में भी असंतोष और विरोध कम देखने को नहीं मिला. बीजेपी ने असंतोष को दबाने के लिए हर प्रयास किया लेकिन टिकट में बदलाव का काम नहीं किया. जहां चुनाव में अगली सरकार बनाने के लिए एक-एक सीट पर जय-पराजय बहुत मायने रख रही हो, वहां प्रत्याशियों के बदलाव का ‘पेंडोरा बॉक्स’ खोलना फायदे से ज्यादा नुकसान का सौदा ही साबित होता है.
मध्यप्रदेश में तीन से पांच प्रतिशत मतों में स्विंग होने पर पार्टियाँ सरकार बनाने की स्थिति में आ जाती हैं. कांग्रेस में प्रत्याशी बदलने में तीन प्रतिशत का स्विंग तो आ चुका है. राजनीतिक विश्लेषक ऐसा मान रहे हैं कि 5 से 7% सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी बदल सकती है. जितनी भी सीटों पर प्रत्याशी बदले जा रहे हैं उन पर कांग्रेस पार्टी के ही दो प्रत्याशी चुनाव मोर्चे पर उतारने की गलती हो रही है. जो भी प्रत्याशी पार्टी का A और B फॉर्म पाने में सफल होगा वह पार्टी सिंबल पर चुनाव लड़ेगा और जो असफल हो जाएगा वह अपना अपमान कैसे भूलेगा, इसलिए वह चुनाव लड़ेगा, भले ही निर्दलीय लड़े. ऐसी स्थिति में बदलाव वाली सीटों पर कांग्रेस अपनी संभावनाओं को अपने हाथों से ही धूमिल करने का काम करते हुए दिखाई पड़ रही है.
तीन-चार महीने पहले एमपी विधानसभा चुनाव के परसेप्शन वार में कांग्रेस आगे निकलती हुई दिखाई पड़ रही थी. अब जैसे-जैसे चुनाव करीब आते जा रहे हैं वैसे-वैसे कांग्रेस राजनीतिक गलतियों के कारण पिछड़ती जा रही है. चुनावी ओपिनियन पोल और सर्वे भी इसी ओर इशारा कर रहे हैं. भाजपा जहां अपना एक भी प्रत्याशी नहीं बदल रही है वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस प्रत्याशी ऐसे बदल रही है जैसे उसने टिकट देने के पहले उन क्षेत्रों में जन भावनाओं को टटोला ही नहीं था.
टिकट वितरण के बाद ‘कपड़ा फाड़ो’ अभियान की शुरुआत शिवपुरी सीट से चालू हुआ था. वह सीट अभी भी अनिर्णय की स्थिति में बनी हुई है. वीरेंद्र रघुवंशी कांग्रेस से टिकट की आशा में बैठे हुए हैं. इस पूरे इलाके में रघुवंशी मतों की बहुतायत है. वीरेंद्र रघुवंशी को नाराज बनाए रखना कांग्रेस के लिए नुकसानदेह हो सकता है. इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि उन्हें किसी न किसी सीट से टिकट दिया जाएगा.
कांग्रेस द्वारा की जा रही रणनीतिक गलतियां राजनीतिक पंडितों को चौंका रही हैं. कमोबेश 20 साल से सरकार चला रही भाजपा बिखराव और कन्फ्यूजन नियंत्रित करने में जहां सफल हुई है. वहीं कांग्रेस में टिकट वितरण के साथ बिखराव और कन्फ्यूजन चरम पर पहुंचता दिखाई पड़ रहा है. कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता चुनावी मैदान में होने के कारण परिदृश्य से गायब दिखाई पड़ रहे हैं. कई नेताओं ने टिकट वितरण में किनारे लगाए जाने के बाद चुप्पी साध ली है.
दो पूर्व मुख्यमंत्री टिकट बांटने और असंतोष को साधने का काम करने में लगे हुए हैं जब असंतोष का कारण टिकट वितरण में गड़बड़ी है तो फिर गड़बड़ी करने वाले ही असंतोष को दबाने में कैसे सफल हो सकेंगे? कांग्रेस में संगठन का सिस्टम हमेशा अप्रसांगिक रहा है. हाईकमान की भूमिका इस बार के चुनाव में पहले के चुनाव की तुलना में ज्यादा कमजोर दिखाई पड़ रही है.
कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ़ में टिकट वितरण में सामंजस्य और आम सहमति बनाने में मध्यप्रदेश से ज्यादा सफल दिखाई पड़ रही है. इन दोनों राज्यों में कांग्रेस में असंतोष मध्यप्रदेश से ज्यादा दिखाई पड़ रहा था लेकिन टिकट वितरण के बाद विरोध की डेंसिटी मध्यप्रदेश में ज्यादा है. एमपी कांग्रेस की पूरी रणनीति और कमान राज्य के लीजेंड नेताओं के पास ही है. दर्द भी उन्होंने ही दिया है तो दवा भी उनको ही देना पड़ेगा. बाकी नेताओं ने जैसे अपने हाथ खींच लिए हैं. वे अपनी सीटों या घर तक सिमट गए हैं.
बगावत और भितरघात इस चुनाव में बड़ा फैक्टर साबित होने जा रहा है. चुनावी पंडितों के गणित भी गड़बड़ा गए हैं. जो लोग कांग्रेस और बीजेपी के बीच में कड़ी टक्कर के आधार पर चुनावी नतीजों का गणित लगा रहे थे, वह भितरघात और विद्रोह के कारण गड़बड़ा गया है. कुछ गलतियां तो ऐसी की गई है कि जिससे लगता है कांग्रेस ने लड़ाई का अपना मन ही बदल दिया है. चुनाव पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक भौचक्के हैं कि कैसे कोई राजनीतिक दल अपनी संभावनाओं और एडवांटेज को अपने हाथों से मिटाने में लगा हुआ है.
कांग्रेस लगातार यह बयान देती रही है कि जनता ने सरकार के बदलाव का मन बना लिया है. कांग्रेस प्रत्याशी चयन के लिए जन-मन को पढ़ने में ही नाकाम हो गई और ऐसे प्रत्याशियों को मोर्चे पर उतार दिया जिन्हें बदलना पड़ रहा है तो इससे साफ है कि कांग्रेस का जमीनी हकीकत और नब्ज पर हाथ नहीं है और केवल भाजपा के खिलाफ एन्टीइन्कम्बेंसी के आसरे सत्ता में वापसी सपना देख रही है. ऐसे में केवल कहने के लिए और चुनावी नारों के लिए भले ही कुछ भी कहा जा रहा हो लेकिन हकीकत टिकटों के बदलाव से ही समझी जा सकती है.
बदलते टिकट कांग्रेस के भाग्य को बदलते नज़र आ रहे हैं. टिकटों में बदलाव जब रुकेगा तब कांग्रेस जनता में बदलाव की नब्ज को नापने की कोशिश करेगी. दूसरी तरफ बीजेपी युद्धस्तर पर प्रचार में जुट गई है. कांग्रेस टिकट बदलाव के युद्ध में व्यस्त है और बीजेपी जन-मन को अपने साथ जोड़ने में मस्त है. चुनाव हकीकत है कोई फिल्म नहीं है. रीटेक फिल्मों में होता है. राजनीति रीटेक का मौका नहीं देती. बेढंगी चाल कदमताल बिगाड़ देती है पता तब चलता है जब व्यक्ति लड़खड़ा कर गिर जाता है.