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बदलिए ! ग़ुलामी की और ले जाती कार्य संस्कृति को 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Wed , 19 Jan

सार

औद्योगिक समूह के चेयरमैन सुब्रह्मण्यम की इच्छा है कि कंपनी के कर्मचारी सप्ताह में 90 घंटे काम करें। वे रविवार को भी दफ्तर आएं..!!

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विस्तार

समय आ गया है अब नौकरी बनाम परिवार और खुद की जिंदगी के समीकरणों पर बात हो। इससे भारत में औद्योगिक सोच और शोषण की प्रवृत्ति भी स्पष्ट हो जाएगी। यह सवाल भी खुलता जाएगा कि हमारी कंपनियां, अंतत: विश्वस्तरीय क्यों नहीं हैं? 

लार्सन एंड टुब्रो (एल एंड टी) एक बहुराष्ट्रीय समूह है और देश की शीर्ष 100 कंपनियों में उसका नाम आता है। कंपनी में 59,000 से अधिक कर्मचारी काम करते हैं। उनके अलावा, दिहाड़ीदार मजदूर भी कंपनी की परियोजनाओं से जुड़े रहते हैं। कंपनी का सालाना टर्नओवर कई लाख करोड़ रुपए का है। 

ऐसे औद्योगिक समूह के चेयरमैन सुब्रह्मण्यम की इच्छा है कि कंपनी के कर्मचारी सप्ताह में 90 घंटे काम करें। वे रविवार को भी दफ्तर आएं। एक शीर्ष उद्योगपति का यह विचार निरर्थक नहीं हो सकता। उन्होंने बेमतलब ही यह विचार व्यक्त नहीं किया है। बेशक वह अत्यंत प्रतिभाशाली, बौद्धिक, मेहनती, अन्वेषक उद्योगपति हैं, जिन्होंने इतनी बुलंदियां छुई हैं, लेकिन उनकी इच्छा में कई सवाल भी निहित हैं। 

कर्मचारी 90 घंटे, सातों दिन, काम करें, लेकिन वेतन वही रहेगा। सालाना बढ़ोतरी भी औसतन 1.7 प्रतिशत ही होगी, लेकिन चेयरमैन का वेतन 51.05 करोड़ रुपए सालाना है। अर्थात 14 लाख रुपए हर रोज..! उनकी वेतन-वृद्धि भी 43 प्रतिशत है। औसतन कर्मचारी का सालाना वेतन 9.7 लाख रुपए है और महिला कर्मचारी को 6.7 लाख रुपए ही मिलते हैं। दरअसल हमारी चिंता और सरोकार किसी औद्योगिक समूह के कर्मचारियों के वेतन तक ही सीमित नहीं हैं। हम किसी मजदूर आंदोलन के पैरोकार भी नहीं हैं और न ही कथित वामपंथी हैं।

सवाल यह है कि देश के शीर्ष उद्योगपतियों की औसत कर्मचारी को लेकर सोच क्या है? उन्हें कामगार चाहिए अथवा जरखरीद गुलाम चाहिए? बहुराष्ट्रीय कंपनी इंफोसिस के संस्थापक उद्योगति नारायणमूर्ति ने भी कुछ साल पहले बयान दिया था कि यदि देश को तरक्की करनी है, तो कर्मचारियों को सप्ताह में कमोबेश 70 घंटे काम करना चाहिए। एल एंड टी के चेयरमैन की इच्छा 90 घंटे के कर्मचारी की ही नहीं है, बल्कि वह कामगारों के घर में ताक-झांक कर तंज भी कसते हैं- घर में बैठकर क्या करोगे? कितनी देर तक पत्नी को निहारोगे और पत्नी तुम्हें निहारेगी? चलो, दफ्तर आओ और काम करो। 

सवाल यह है कि आज का कर्मचारी क्या ‘जंगली प्राणी’ है, जिसके कुछ पारिवारिक दायित्व ही नहीं हैं? यदि वह सप्ताह में 90 घंटे नौकरी ही करेगा, तो रोजाना की नींद लेने, रोजाना के कार्यों से निवृत होने, नाश्ता और डिनर करने, बच्चों को स्कूल छोडऩे, बीमार माता-पिता को डॉक्टर तक ले जाने, घर से दफ्तर और दफ्तर से घर लौटने के घंटों के बाद उसके पास अपने लिए कितना समय बचेगा? शायद जिंदगी ही छोटी पड़ जाए! 

क्या सुब्रह्मण्यम ने अपनी जिंदगी के बारे में कभी आत्मचिंतन किया है? चिकित्सा के विभिन्न शोधों के निष्कर्ष हैं कि यदि मनुष्य लगातार काम ही करता रहेगा, तो वह हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक, मानसिक असंतुलन सरीखी बीमारियों का शिकार हो सकता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में करीब 62 प्रतिशत लोग बर्नआउट (तनाव) का शिकार होते हैं। 

हमारे श्रम-कानून में भी प्रावधान है कि कामगार से सप्ताह में 48 घंटे से अधिक श्रम नहीं करा सकते, लिहाजा जो सुब्रह्मण्यम ने कहा है, क्या वह कानून का उल्लंघन नहीं है? एल एंड टी समूह के जानकार विशेषज्ञों का कहना है कि कंपनी में जो कर्मचारी फील्ड, साइट पर काम कर रहे हैं, वे औसतन 12 घंटे हर रोज से ज्यादा काम कर रहे हैं। यदि एक रविवार को काम किया, तो कर्मचारी अगले रविवार भी आधा दिन काम करेगा। यह कैसी कार्य-संस्कृति है?