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जेल में मुख्यमंत्री पति, चल पड़ी पत्नियों की राजनीति

सार

लोकतंत्र के नाम पर हाहाकार मचा हुआ है. रामलीला मैदान में विपक्ष की महारैली में दिल्ली और झारखंड के मुख्यमंत्री की पत्नियों ने लोकतंत्र का ध्यान आकर्षित किया. अगर अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल नहीं जाते तो सुनीता केजरीवाल और कल्पना सोरेन चूल्हे चौके से बाहर दिखाई नहीं पड़ती..!!

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विस्तार

हेमंत सोरेन तो मुख्यमंत्री पद छोड़ चुके हैं लेकिन अरविंद केजरीवाल जेल से ही सरकार चलाने पर अड़े हुए हैं. जिस दिन से अरविंद केजरीवाल गिरफ्तार हुए हैं उसी दिन से सुनीता केजरीवाल जनता के सामने आने लगी हैं. उनका सियासत में आना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है लेकिन इसके लिए अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी. 

अब तो राजनीति में महिला आरक्षण कानून भी लागू हो चुका है, जो महिला नेत्रियाँ  समाज का नेतृत्व करते हुए लोकतंत्र को मुखर आवाज दे सकती हैं उनका आगे आना पुरुष डोमिनेटेड राजनीति को शुद्धता की दिशा में ले जा सकता है. लोकतंत्र को पति-पत्नी के मंत्र में जकड़ने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. लालू यादव जब भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गए थे तब राबडी देवी का मुख्यमंत्री बनकर राजनीति में उदय हुआ था. अब तो यह एक अघोषित परंपरा सी बन गई है कि जब भी मुख्यमंत्री किसी आरोप में फंसते हैं या कोई अनिष्ट होता है तो नेतृत्व संगठन के किसी और नेता को सौंपने की बजाय पत्नी को या परिवार के किसी व्यक्ति को सौंपना ज्यादा सुरक्षित समझा जाता है. 

राबड़ी देवी से शुरू हुआ यह सिलसिला आगे ही बढ़ता जा रहा है. राजनीतिक चर्चाओं पर विश्वास किया जाए तो सुनीता केजरीवाल ही अरविंद केजरीवाल के जेल के दौरान आम आदमी पार्टी की सरकार का नेतृत्व संभालेंगी अगले एक साल में दिल्ली विधानसभा के चुनाव होने की संभावना है. सुनीता केजरीवाल विधायक नहीं हैं यदि उन्हें अभी मुख्यमंत्री बनाया जाता है तो फिर 6 महीने के अंदर उन्हें विधानसभा का सदस्य बनना होगा. इसलिए शायद जेल से सरकार चलाने का उपक्रम तब तक चलाने की कोशिश की जाएगी, जब तक दिल्ली में नए चुनाव में छह महीने का समय बचेगा. 

अदालत में आरोप साबित हुए बिना आरोपी भले ही सरकार चलाने के लिए संवैधानिक रूप से अमान्य ना हो लेकिन ना तो पहले कभी देश में कोई भी मुख्यमंत्री जेल से सरकार चला सका है और ना ही केजरीवाल चला सकेंगे. आम आदमी पार्टी को अपना यह स्टैंड बदलना होगा. किसी न किसी नेता को दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलानी होगी. अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तारी पर यदि थोड़ी बहुत सहानुभूति मिलने की उम्मीद भी होगी तो फिर जेल से सरकार चलाने का अड़ियल रवैया उनके लिए राजनीतिक वॉटर लू साबित होगा.

लोकसभा चुनाव में दो गठबंधनों के बीच मुख्य मुकाबला है. यद्यपि कई राज्यों में क्षेत्रीय दल इंडिपेंडेंट चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन अधिकांश राज्यों में एनडीए और इंडी गठबंधन के बीच चुनावी लड़ाई केंद्रित है. पीएम मोदी ‘भ्रष्टाचार मिटाओ लोकतंत्र बचाओ’ का नारा दे रहे हैं और विपक्षी दल ‘तानाशाही हटाओ लोकतंत्र बचाओ’ का नारा दे रहे हैं. लोकतंत्र बचाने का असली दारोमदार देशवासियों पर है. भारत का लोकतंत्र जनादेश पर ही चल रहा है. देश की सारी व्यवस्था जनादेश से निर्मित सरकार के हाथों से ही संचालित हो रही है. अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी भी लोकतंत्र की संसदीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत हुई है.

रामलीला मैदान की रैली में विपक्षी गठबंधन द्वारा मांगपत्र प्रस्तुत किया गया, उसमें सबसे पहली मांग थी कि अरविंद केजरीवाल को रिहा किया जाए. विपक्षी दलों के नेता यह मांग किस से कर रहे हैं? अब तो सारा मामला अदालत में ही तय होना है. रामलीला मैदान में बैठे हुए लोग रिहाई की मांग पर क्या फैसला दे सकते हैं? यहां तक कि जिस मोदी सरकार को मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी के लिए विपक्षी दल पानी पीकर गाली दे रहे हैं वह भी किसी गिरफ्तारी या जांच प्रक्रिया से किसी की भी रिहाई नहीं कर सकती है. 

राजनीति में राजनेता स्वयं नासमझ हैं या पब्लिक को नासमझ समझते हैं? यह तय करना मुश्किल है. कोई भी विपक्षी दल तथ्यों पर चर्चा नहीं कर रहा है. तथ्यों और गवाहों-सबूतों का परीक्षण और प्रतिपरीक्षण अदालतों में ही होगा. क्या राजनेताओं को देश की अदालतों पर भरोसा नहीं करना चाहिए? क्या अदालतों पर भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सवाल उठाकर लोकतंत्र की व्यवस्था को मजबूत किया जा रहा है? अदालतों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करना क्या लोकतंत्र को कमजोर नहीं कर रहा है? इससे लोकतंत्र बचेगा या इससे लोकतंत्र मिटेगा यह सबसे बड़ा सवाल है?

दिल्ली में आम आदमी पार्टी को भारीभरकम जनादेश क्या इस बात के लिए दिया गया था कि भ्रष्टाचार के आरोप लगे और गिरफ्तार होने के बाद भी जेल से सरकार चलाई जाए? यह तो लोकतंत्र को जेल में डालने जैसा हाल हो गया है. भारत के लोकतंत्र को चौराहे पर खड़ा कर दिया गया है. हर राजनेता अपने-अपने हिसाब से लोकतंत्र की परिभाषा दे रहा है. भ्रष्टाचार के आरोपी को बचाने के प्रयासों को लोकतंत्र बचाने का नाम देना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.

अरविंद केजरीवाल राजनीति में आने से पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ा आंदोलन ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ चला रहे थे. अन्ना हजारे के साथ खड़े अरविंद केजरीवाल आज अदालत से अभियुक्त साबित हुए लालू यादव के साथ खड़े दिखाई पड़ रहे हैं. भ्रष्टाचारियों को जेल भेजने का नारा देने वाले अरविंद केजरीवाल अब जेल से सरकार चलाने का नारा दे रहे हैं. झाड़ू से सफाई की बात करने वाले दारू से कमाई के आरोपी बन गए हैं.
 
पीएम मोदी सीना ठोक कर कह रहे हैं कि बड़े से बड़ा भ्रष्टाचारी भी बच नहीं पाएगा. भ्रष्टाचारियों को जेल जाना ही पड़ेगा. दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे नेता लोकतंत्र को बचाने के नाम पर एक साथ खड़े होकर लोकतंत्र के जनादेश पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं. जनादेश को मैच फिक्सिंग से जोड़ रहे हैं. EVM की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं. लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री को तानाशाह बताकर लोकतंत्र को बचाने की बात खुद को बचाने का ही प्रयास लग रहा है. 

लोकतंत्र को परिवार और पति-पत्नी का तंत्र बनाया जा रहा है. महिलाओं को राजनीति में आना चाहिए लेकिन पतियों के जेल जाने के बाद जब पत्नी राजनीति में सक्रिय होती हैं तब उनकी राजनीति परिवार की ही राजनीति बन जाती है. ऐसी राजनीति लोकतंत्र को मजबूत करने की बजाय कमजोर ही करती है. महिलाओं में नेतृत्व की क्षमता है तो उन्हें मुख्यमंत्री पतियों से आगे निकलने से कोई रोक नहीं है लेकिन ऐसी परिस्थितियों में आगे आना लोकतंत्र में जनसेवा की पहचान को विकृत करता है. लोकतंत्र में जनादेश का सम्मान जरूरी है. स्वार्थ में जनादेश को तानाशाह कहना लोकतंत्र की तौहीन ही है.