अडानी ने जवानी खपाई तब कहीं उद्योग जगत में पहचान बनाई. उद्योग जगत में कॉम्पिटीशन, आरोप-प्रत्यारोप तो समझ आता है, लेकिन आरोपों के साथ ही पॉलिटिकल जजमेंट, न्यायिक व्यवस्था पर ही अविश्वास कहा जाएगा..!!
अडानी के खिलाफ़ न्यूयॉर्क मे फेडरल कोर्ट में अभियोग पत्र वारंट की कानूनी प्रक्रिया शुरु हुई और दिल्ली में रॉकेट की गति से राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की. उन्होंने कहा कि ‘अडानी की तुरंत गिरफ्तारी होना चाहिए’ लेकिन पीएम मोदी अडानी को गिरफ्तार नहीं करेंगे.
राहुल गांधी के प्रेस स्टेटमेंट से जो समझ आया, वह यह है, कि अमेरिका में किसी कोर्ट की प्रक्रिया में ऐसा आरोप आया है, कि अडानी की कंपनियों ने भारत में किसी सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट के लिए अधिकारियों को रिश्वत दी है. हिंडनबर्ग की जब रिपोर्ट आई थी, तब भी अडानी के शेयरों में भारी गिरावट आई थी. इन आरोपों के बाद भी भारी गिरावट आई है.
अडानी समूह की भी सफाई आई है और सारे आरोपों से इनकार किया गया है. कानूनी प्रक्रिया में आरोपों का मुकाबला करने की बात कही गई है. यह भी एक संयोग है, कि हिंडनबर्ग के समय भी अडानी की कंपनियां यूएस में बॉन्ड लाने वाली थीं, उनको निरस्त किया गया था. इस बार भी अडानी को अपने बॉन्ड का प्रोसेस वापस लेना पड़ा है.
अडानी समूह पर जो भी आरोप लगे हैं, वह तब तक आरोप है, जब तक अदालत दोषी साबित नहीं कर देती. हिंडनबर्ग रिपोर्ट पर भी अडानी समूह को क्लीन चिट मिल चुकी है. आर्थिक अपराध के मामले में पॉलिटिक्स को जजमेंट देने की इतनी जल्दी क्यों होती है? राहुल गांधी स्वयं ज्यूरी बन जाते हैं. किसी भी अपराध के लिए अडानी को गिरफ्तार, क्या देश के प्रधानमंत्री को करना है?
अपराध में लिप्त किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी न्यायिक प्रक्रिया से ही की जाती है और यही प्रक्रिया अडानी के मामले में भी लागू की जाएगी. कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं हो सकता. जो व्यक्ति खुद को कानून से ऊपर मानता है, वही बिना कानून की परवाह किए, खुद जजमेंट देने की नादानी कर सकता है. ना तो अडानी को बचाने का सवाल है और ना ही फंसाने का. सवाल यह है कि, किसी भी अपराध के लिए आरोपित व्यक्ति को अदालत की प्रक्रिया के बिना क्या दोषी करार दिया जा सकता है?
अडानी के इस मामले में अपराध स्थल भारत है. अपराध, रिश्वत देकर सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट प्राप्त करने का है. जिन सरकारों और अफसरों की संलिप्तता अभियोग पत्र में बताई गई है, उनमें सभी चारों सरकारें गैर भाजपा शासित हैं. आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ सरकार के अफसरों को रिश्वत देना बताया गया है. उस समयकाल में आंध्र प्रदेश में वाईएसआर रेड्डी की सरकार थी, उड़ीसा में बीजू पटनायक की, तमिलनाडु में डीएमके और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के भूपेश बघेल सरकार सत्ता में थी.
सम्भवत: राहुल गांधी की राजनीति की एबीसीडी अडानी से ही शुरू होती है. अडानी उद्योग समूह को करप्ट बताते-बताते राहुल गांधी की जुबान नहीं थकती, इसके बावजूद कांग्रेस की राज्य सरकारें इस समूह के निवेश का दिल खोलकर स्वागत करते हैं. राजस्थान के अशोक गहलोत सरकार ने पैंसठ हज़ार करोड़ का निवेश अडानी समूह से कराया है. छत्तीसगढ़ और कर्नाटक की कांग्रेस सरकारों ने भी अडानी समूह के करोड़ों के निवेश अपने राज्य में कराए हैं. कांग्रेस की तेलंगाना सरकार में तो अडानी फाउंडेशन से कौशल विकास के लिए पूरे सौ करोड़ तक का डोनेशन हासिल किया है.
आरोप लगाकर बदनामी और इमेज खराब करना, राजनीति का अनोखा ढंग हो गया है. राजनीतिक दलों और कॉर्पोरेट समूहों की सांठ-गांठ को तो भारत में अघोषित मान्यता जैसी मिल चुकी है. कोई भी राजनीतिक दल यह नहीं कह सकता कि, उसके द्वारा कॉर्पोरेट डोनेशन नहीं लिया जाता. यह डोनेशन भी एक तरह से फेवर के लिए रिश्वत जैसा ही कहा जा सकता है. इलेक्टोरल बॉन्ड जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा इल्लीगल घोषित किए गए थे, उसके बाद बॉन्ड की लिस्टिंग जब सामने आई, तब सभी राजनीतिक दलों की सच्चाई सामने आ गई थी.
दुर्भाग्य जनक स्थिति यह है कि, हमाम में कोई साफ नहीं है, फिर भी एक दूसरे की बेईमानी और गंदगी को उजागर करना राजनीतिक धर्म सा बन गया है. उद्योग जगत को आर्थिक अपराधों के लिए न्यायिक प्रक्रिया से ज्यादा राजनीतिकरण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. पॉलिटिकल ज्यूरी सबसे पहले फैसला सुना देती है. जब तक अदालत का फैसला आता है, तब तक तो बदनामी की कहानी पर फिल्म बन चुकी होती है.
राहुल गांधी की पॉलिटिकल ज्यूरी तो अपना निर्णय सुनाने में सर्वाधिक तत्परता दिखाती है. कांग्रेस मानों न्यायपालिका की भूमिका निभाने लगती है. किसी मुद्दे के कानूनी और तकनीकी पहलुओं को समझे बिना, जेल की सजा सुनाने में भी कोई गुरेज़ नहीं करते.
पीएम नरेंद्र मोदी से भयभीत कांग्रेस और गांधी परिवार दशकों से उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहा है. जब मोदी, गुजरात में मुख्यमंत्री थे, तो दंगों के लिए जिम्मेदार बताया जाता था. मौत का सौदागर कहा जाता था. गांधी परिवार अगर जनादेश का सम्मान करता होता तो मोदी की नीतियों का विरोध करता ना कि मोदी का व्यक्तिगत विरोध करता.
राहुल गांधी यह बात समझ ही नहीं पाए कि, नरेंद्र मोदी देश के पहले नेता है जो प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में देश के जनादेश से चुने गए हैं. इसके पहले कोई भी नेता भारत में जनादेश से सीधे प्रधानमंत्री नहीं चुना गया था बल्कि संसदीय प्रणाली की तहत बहुमत या गठबंधन के आधार पर चुना गया था.
तमाम राज्य सरकारों के टैक्स फ्री सहयोग के बाद भी गोधरा पर बनी फिल्म साबरमती रिपोर्ट, वह बिजनेस हासिल नहीं कर पाई, जिसकी उम्मीद थी. चाहे फिल्म हो, आर्थिक अपराध हो या फिर कोई भी विवाद हो, राजनीतिकरण होने के साथ ही उनकी गंभीरता कम हो जाती है. राजनीतिक विवाद होते ही जनादेश का जजमेंट सबसे ऊपर आता है.
राहुल गांधी के जजमेंट ऑफ़ पॉलिटिकल अरेस्ट से अडानी समूह को शायद इसीलिए कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि उनकी राजनीति इसमें साफ-साफ झलकती है.
अमेरिका में लगे अभियोग की कानूनी प्रक्रिया के परिणामों को अडानी समूह भोगेगा, इसमें कोई दो राय नहीं है. राहुल के आरोपों पर जनादेश का फैसला तो दो राज्य को चुनाव परिणाम स्पष्ट कर देंगे. संसद का शुरू होने वाला सत्र, अडानी को ही समर्पित रहेगा, यह भी ज़ज राहुल की ज्यूरी ने सेट कर दिया है.
इसे लोकतंत्र की ट्रेजेडी कहे या कॉमेडी कहें कि कार्पोरेट घरानों से डोनेशन लेकर राजनीतिक पार्टियों चलती हैं और उन्हें ही करप्ट बताने की प्रतिस्पर्धा भी चलती रहती है. पॉलिटिक्स, करप्शन, हीनता, अयोग्यता और मूर्खता का सह-जीवन ख़त्म होगा, तभी राजनीति का पाखंड और संकट कम हो सकता है.