बीजेपी से सीधे मुकाबले में हारती कांग्रेस, इंडिया गठबंधन के लिए लायबिल्टी बन गई है. गठबंधन के दूसरे सहयोगी अपने राज्यों में बीजेपी का मुकाबला करने में सफल हो रहे हैं लेकिन कांग्रेस हर उस राज्य में फेल हो रही है, जहां उसका बीजेपी से सीधा मुकाबला रहा..!!
लोकसभा चुनाव में गठबंधन का लाभ उठाकर राहुल गांधी ने भले नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर लिया हो लेकिन उनका नेतृत्व जरूर गठबंधन के लिए लायबिलिटी बन गया है. गठबंधन का नेतृत्व बदलने की मांग उठ रही है.
ममता बनर्जी ने गठबंधन का नेतृत्व करने की इच्छा जाहिर की है. गठबंधन के सभी बड़े सहयोगी ममता बनर्जी को समर्थन देते हुए दिख रहे हैं. कांग्रेस भले इसका विरोध कर रही हो लेकिन इंडिया गठबंधन तो राहुल गांधी की अगुआई से फिसलता दिखाई पड़ रहा है.
यह गठबंधन संसद में ही बंटा हुआ दिखा. राहुल गांधी और कांग्रेस जो मुद्दे उठाना चाहती है उस पर गठबंधन के सभी सहयोगी सहमत नहीं हैं. सहयोगी दल अपने अलग-अलग मुद्दे पर संसद में प्रदर्शन कर रहे हैं.
गठबंधन को कांग्रेस से उतनी ज्यादा दिक्कत नहीं दिखती, जितनी राहुल गांधी की लीडरशिप परेशान कर रही है. राहुल गांधी जैसी सियासत कर रहे हैं? जिस तरह के मुद्दे उठाने में लगे हैं? वह पब्लिक इंटरेस्ट से ज्यादा पर्सनल इंटरेस्ट में दिखाई पड़ते हैं. शायद इसीलिए गठबंधन के सहयोगी छिटक रहे हैं.
राजनीति में इस समय यह तो एक सच्चाई है कि, मुख्यधारा बीजेपी का गठबंधन बन गया है. विपक्ष का गठबंधन इसी मुख्य राजनीति के खिलाफ ही खड़ा हुआ है. राष्ट्रीय दल के रूप में तो मुख्य विपक्ष कांग्रेस ही है लेकिन क्षेत्रीय दल कांग्रेस के इंटरेस्ट और मुद्दे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है.
अडानी के मुद्दे पर राहुल गांधी का साथ देने के लिए गठबंधन के सभी दल तैयार नहीं दिख रहें हैं. इसी प्रकार जॉर्ज सोरेस के मामले में जिस तरह से राष्ट्र विरोधी साजिश के आरोप लगाए जा रहें हैं, उससे भी कांग्रेस गठबंधन सहयोगी अपने को नहीं जोड़ना चाहते.
नेता प्रतिपक्ष का पद कांग्रेस के पास ही रहेगा लेकिन अगर गठबंधन में बिखराव ऐसे ही बना रहा तो संसद में विपक्ष की ताकत जरूर विभाजित हो जाएगी. राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस के वजूद को नकारा नहीं जा सकता है लेकिन क्षेत्रीय दल कांग्रेस को अपने कंधे पर ढोकर कम से कम राज्य में लोकतंत्र की ताकत देने के लिए तैयार कैसे होंगे?
गठबंधन सहयोगियों की बागी लैंग्वेज का अगर अध्ययन किया जाए तो ऐसा लगता है कि लोकसभा में क्षेत्रीय दलों के कारण कांग्रेस को मिले फायदे से उन्हें अपनी भविष्य की चिंता अधिक हो रही है.
विपक्षी गठबंधन का एक बड़ा आधार मुस्लिम वोट बैंक है. सभी राज्यों में यह वोट बैंक क्षेत्रीय दलों के साथ है. लोकसभा में जिन क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, वहां कांग्रेस के हिस्से की सीटों पर मुस्लिम समर्थन कांग्रेस को मिला. इसके कारण कांग्रेस के सीटों की संख्या बढ़ी.
ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाममोर्चा के साथ गठबंधन ही नहीं किया. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार में सपा, एनसीपी, शिवसेना (यूडीटी) और राजद से कांग्रेस को गठबंधन का फायदा मिला.
हरियाणा और महाराष्ट्र हाल के चुनाव में कांग्रेस की दुर्दशा से क्षेत्रीय दल चिंतित हो गए हैं. उन्हें ऐसा महसूस हो रहा है कि, उनके दलों को कांग्रेस की गलत नीतियों और मुद्दों के कारण सियासी नुकसान हुआ है.
चुनाव परिणाम के तुरंत बाद यह आवाज उठने लगी कि, राहुल गांधी का नेतृत्व इंडिया गठबंधन से बदला जाए. ममता बनर्जी ने अपनी इच्छा जाहिर की तो सबसे पहले शरद पवार ने उसका समर्थन किया. शिवसेना (यूबीटी) समर्थन में उतर आई.
कांग्रेस के कट्टर सहयोगी लालू प्रसाद यादव भी ममता बनर्जी के पक्ष में खड़े हो गए हैं. आम आदमी पार्टी तो परिस्थितियों के कारण कांग्रेस के साथ गठबंधन में थी लेकिन अब उसे दिल्ली चुनाव में कांग्रेस का ही मुकाबला करना है, तो वह तो चाहेंगे कि, गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस से हटे.
यूपी में भी 2027 में चुनाव हैं. समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को यह महसूस हो रहा है कि, उनके जनाधार का कांग्रेस को ज्यादा लाभ हो रहा है. गठबंधन की राजनीति में अगर मुस्लिम वोट बैंक खिसक गया, तो फिर यह सपा के लिए वाटरलू साबित होगा.
कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के कांधों पर चढ़कर अपने राजनीतिक अस्तित्व का विस्तार करना चाहती है. यही सहयोगी दलों को परेशान कर रहा है. अखिलेश यादव के ममता बनर्जी के साथ सौहाद्रपूर्ण रिश्ते हैं, इसलिए उनके नेतृत्व के लिए उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी.
उत्तर भारत में इंडिया गठबंधन के जो सहयोगी हैं उनके राज्य में कांग्रेस को महत्व देना, उन्हें पसंद नहीं आ रहा है. राहुल गांधी का नेतृत्व बदलने की सोच के पीछे यह दृष्टि काम कर रही है कि, गठबंधन का नेता कोई ऐसा हो जिसका उत्तर भारत के राज्यों में कोई जनाधार न हो.
यद्यपि ममता बनर्जी राष्ट्रीय स्तर पर तो इंडिया गठबंधन का नेतृत्व कर सकती हैं, लेकिन उनका पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाम मोर्चे के साथ गठबंधन नामुमकिन है.
राहुल गांधी को कांग्रेस को अपना भविष्य मानती है लेकिन उनके गठबंधन सहयोगी राहुल और उनके मुद्दों को भविष्य के लिए खतरनाक मानते हैं.
राहुल गांधी नेतृत्व के लिए फेल क्यों मान लिए जाते हैं? राहुल गांधी का प्राइवेट फेस क्या पॉलिटिकल नहीं है? पब्लिक फेस भी गठबंधन की सहयोगियों को क्यों नहीं पसंद आ रहा है?
अगले लोकसभा चुनाव के पहले फिर गठबंधन की बात उठेगी. अभी तो गठबंधन की आवश्यकता केवल संसद में भाजपा गठबंधन का सियासी मुकाबला करते हुए अपने मुद्दों को एकजुट होकर उठाने तक सीमित रह गया है. इसमें जरूर इंडिया गठबंधन फेल हो रहा है. राहुल गांधी जिन मुद्दों के लिए जिद करते हैं, वह मुद्दे अक्सर जनहित में नहीं होते. इसके कारण गठबंधन के सहयोगी परेशान हो जाते हैं.
लोकतंत्र का दृष्टा, राहुल गांधी की राजनीति दो दशकों से ज्यादा समय से देख रहा है. उनकी राजनीति का तरीका, उनके मुद्दे उठाने का ढंग, उनका वैचारिक कमिटमेंट, उनकी संगठन क्षमता, संसदीय परफॉर्मेंस पर लोकतंत्र के दृष्टा का डिसीजन तो समय-समय पर चुनाव परिणाम में दिखाई पड़ता है. जिन भी राज्यों में बीजेपी के सीधे मुकाबले में कांग्रेस उतरती है तो वहां राहुल गांधी की रणनीति वहां फेल हो जाती है.
राहुल गांधी जातिगत जनगणना जैसे जो विचार रखते हैं. वह कांग्रेस के ही पूर्वजों के नीतियों के खिलाफ साबित हो जाता है. राहुल की ‘संविधान राजनीति’ भी सिर्फ पाखंड ही साबित हो रही है. इंडिया गठबंधन के सहयोगी अपनी सियासी ताकत और मेहनत पर राहुल ‘पानी’ और ‘नादानी’ नहीं फेरना चाहते.
सियासत में सबसे बड़ी कमी हारना है. राहुल गांधी की सरपरस्ती में कांग्रेस ने चुनाव हारने का रिकॉर्ड कायम किया है. कांग्रेस हमेशा गठबंधन का उपयोग करती है. गठबंधन पोषित करना उसकी नीति नहीं है.
इंडिया गठबंधन के जितने भी सहयोगी हैं, वह सब कभी ना कभी कांग्रेस से सताए हुए रहे हैं. कांग्रेस के गठबंधन का अमृत निकल गया है, अब तो विष बचा है. देखना दिलचस्प होगा कि, कौन सा नया नेता यह विष पान करता है?