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चुनाव में करप्शन होता बदनाम, वही आता सबसे ज्यादा काम

सार

चुनावी बेला करीब आते ही बदनामी का सबसे बड़ा संकट करप्शन पर आ जाता है. चुनावी खर्च, प्रबंधन, प्रचार अभियान में काले धन के उपयोग, नगदी राशि की जब्ती हर चुनाव में बढ़ती ही जाती है. राजनेता स्वयं एक दूसरे पर करप्शन का आरोप लगाते हैं. बिना प्रमाणित तथ्यों और दस्तावेजों के करप्शन के राजनीतिक आरोपों से ना जनता दुखी होती है और ना ही जिन पर आरोप लगाए जाते हैं उन पर कोई असर पड़ता है. सबसे बड़ा कष्ट स्वयं करप्शन को होता है. इस बात को सोचकर करप्शन सहम जाता है कि जो सब में समाया है उसको ही सब मिलकर बदनाम कर रहे हैं. जो हर हाथ में सुरक्षित है, उस पर ही दोनों हाथों से कीचड़ उछाली जाती है. 

janmat

विस्तार

एमपी में चुनावी बेला शुरू हो चुकी है. राज्य में घूम-घूम कर रथों पर सवार नेता एक दूसरे के करप्शन पर वार कर रहे हैं. पोस्टर लगाए जा रहे हैं. पोर्टल पर करप्शन की कथाएं डाली जा रही हैं. पोस्टर स्कैन करने पर करप्शन नाथ की कलंक कथा और 50 % कमीशन राज की कथा देखने सुनने को मिल जाती है.

देश में करप्शन कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं बन सका है. केवल एक बार बोफोर्स तोपों की खरीदी में करप्शन के आरोपों पर जनादेश ने सरकार पलट दी थी. राज्यों की राजनीति में करप्शन मुद्दा क्यों नहीं बन पाता? करप्शन ही दर्द और दवा का काम करता है. पहले राजनीति जनता से मिले चंदे पर चला करती थी. अब तो जनता भी राजनीतिक दलों और सरकारों की रेवड़ी पर ही अपने मतों का फैसला करने लगी है. 

करप्शन पर आक्रोश का रथ जंगली इलाके से गुजर रहा था. करप्शन जंगल में दुबका हुआ भटक रहा था. सजे सजाए रथ को देखते ही करप्शन सुरक्षित जगह मानते हुए रथ में घुस गया. रथ बाकायदा होर्डिंग और नारों से सुसज्जित था. कुछ पंपलेट भी उसमें रखे हुए थे. यह पंपलेट पार्टी द्वारा जारी किए गए आरोप पत्र थे. रथों से जो भाषण दिए जा रहे थे उसमें भी करप्शन को ही गाली दी जा रही थी. खुद को तो कोई देखता नहीं है, सब दूसरों की गलतियां और कमियों को ही देखने और भुनाने में पूरा जीवन निकाल देते हैं. 

ऐसा ही करप्शन के मामले में भी हो रहा है. रथ में बैठे करप्शन को ऐसा लगा कि जितनी गति और तीव्रता से करप्शन पर हमला किया जा रहा है इससे तो ऐसा लगता है कि उसका अस्तित्व मिट जाएगा. मिटने की कल्पना से ही करप्शन चीत्कार कर उठा. करप्शन ने सोचा कि रथ के किसी कोने में छिपकर अपनी आबरू बचाए लेकिन जिधर भी करप्शन ने जाने की कोशिश की हर तरफ उसे अपने भाई बंधु खड़े-बैठे और चिपके हुए दिखाई पड़े.यहां तक की जिस डीजल से भ्रष्टाचार विरोधी रथ चल रहा था उसमें भी करप्शन को सुरक्षित रहने का मौका मिल गया.

कोई ऐसा चुनाव नहीं होता जब सभी प्रमुख दल के लोग रथों पर सवार होकर जनता को एक दूसरे की खामियां बताने की कोशिश ना करें. इन कमियों में सर्वाधिक बदनामी करप्शन को ही मिलती है. करप्शन की विडंबना देखिए कि जो सबका लक्ष्य है, जो वक्त-वक्त पर सबके काम आता है उसे ही सबसे ज्यादा बदनाम किया जाता है. 

जनता भी इस बात की आदी हो गई है. वह करप्शन के राजनीतिक आरोपों प्रत्यारोपों की चालीसा को सुनती और देखती ध्यान लगाकर है लेकिन उसको मानकर कोई फैसला नहीं करती. फैसला करने के लिए जनता को भी राजनीतिक दल और नेताओं से करप्शन के धन में हिस्सेदारी ही काम आती है. सत्ताधारी दल के सामने तो सरकारी खजाना लुटाकर रेवड़ी की योजनाओं से जनादेश को अपने पक्ष में मोड़ने का हथियार होता है. भले ही मत को प्रभावित करने के लिए किए दिए जा रहे लोभ और लाभ के प्रयासों को करप्ट प्रैक्टिसेज के रूप में माना जाता हो.

एमपी में बीजेपी और कांग्रेस विकास को लेकर भी एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करती हैं. एमपी को बीमारू किसने बनाया? बीमारू प्रदेश को विकसित प्रदेश बनाने को भी बड़ी उपलब्धि बताया जाता है. निश्चित रूप से विकास का दृष्टिकोण और नजरिया विकास को गति देता है. राज्य के विकास को पीछे धकेलने के लिए दोनों दल एक दूसरे को जिम्मेदार बताते हैं.

दोनों दलों की ओर से यह दावा किया जाता है कि मध्यप्रदेश का विकास उनके द्वारा ही किया गया है. सरकारी स्तर पर शायद सभी राजनीतिक दल इस बात में एकमत होते हैं कि हर मुख्यमंत्री राज्य के विकास को नई गति देने के श्रेय का हकदार है. इसीलिए पहली बार राज्य मंत्रालय में सभी पूर्व मुख्यमंत्री की मूर्तियां स्थापित करने का काम किया गया है. पहले भी जितने मुख्यमंत्री रहे हैं वे एक दूसरे पर करप्शन और राज्य के विकास को बाधित करने के आरोप प्रत्यारोप लगाते रहे हैं. कुछ मामलों में तो अदालतों में करप्शन साबित हुए फिर भी नेता बदनाम नहीं हुए. बदनाम करप्शन ही हुआ है.
 
राज्य की बड़ी आदिवासी महिला नेता एक बार करप्शन के मामलों में तत्कालीन मुख्यमंत्री को गंभीर पत्र लिख रही थीं, उनके सामने बैठे एक व्यक्ति ने उनसे कहा कि आपके पत्र लिखने से अगर सिस्टम में करप्शन रुक गया तो फिर इसका नुकसान तो आपको भी होगा. सरकार बनाने के लिए संघर्ष कर रहीं आदिवासी नेता से उस व्यक्ति ने कहा कि जब आपको सरकार में आने का मौका मिलेगा और सिस्टम में करप्शन ही नहीं रहेगा तो फिर आपको सरकार में आने का क्या फायदा होगा? राजनीति में लक्ष्य इतना स्पष्ट होता है कि उन्हें तुरंत समझ आया और स्पष्टवादी उस महिला नेता ने स्वीकार किया कि सिस्टम से करप्शन कभी खत्म नहीं हो सकता.

राज्य का विकास चुनाव का मुद्दा बनना चाहिए. हर राजनीतिक दल को रेवड़ी और मुफ्त की योजनाओं का वादा करने से बचना चाहिए. इसके विपरीत यह बताना चाहिए कि कितनी नई सड़कें बनाई जाएगी?  नए कितने स्कूल बनाए जाएंगे? कितने नए अस्पताल बनाए जाएंगे? लेकिन चुनावी वादों में इस तरह की कोई बात ही नहीं होती. बात केवल इस पर होती है कि फ्री में उनकी सरकार क्या-क्या देगी. 

अगर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में करप्शन पर किए जा रहे हमलों में कोई गंभीरता होती तो आजादी के अमृत काल में राजनेताओं के पास से करोड़ों रुपए की नगदी कहां से निकलती? करप्शन के खिलाफ लड़ाई राजनीति का नहीं जनता का मुद्दा बनने की जरूरत है. अभी तो हालात ऐसे दिखाई पड़ते हैं कि करप्शन सबका आरोप और सबका मिशन बना हुआ है.