राजनीति में दिखने का बहुत महत्व है, जो दिखता है वही बिकता है. होर्डिंग व्यवसायी इस नारे को अपने व्यवसाय के प्रचार के लिए उपयोग करते हैं. बाजार के इस युग में प्रोडक्ट से ज्यादा राजनेताओं के लिए पब्लिसिटी का उपयोग चरम पर पहुंचता जा रहा है. राजतिलक के समय वनवास की स्थितियां उस समय ज्यादा कष्टकारी होती होंगी जब राजनीति के 'फोटो-राज' और 'विज्ञापन-स्वराज' में नाम और चेहरा अचानक नदारद हो जाये. जीवन का लक्ष्य तो बिरले ही हासिल करते हैं लेकिन जीवन के भौतिक लक्ष्य हासिल करने में सारी ऊर्जा नष्ट हो जाती है..!!
सत्ता के बड़े पदों पर लंबे समय तक रहने वाले राजनेताओं पर यह शोध होना चाहिए कि बड़े-बड़े पदों के आनंद और सुख भोगने वाले पदमुक्त होने के बाद कैसी अनुभूति करते हैं? सरकार में ऐसे पदों पर काबिज होने पर जो 'फोटो-राज' और 'विज्ञापन-स्वराज' के ब्रांड एंबेसडर बन जाते हैं तो फिर ना जनधन की कोई परवाह होती है ना उपयोगिता का कोई सवाल होता है. केवल नाम और चेहरा ही लक्ष्य होता है.
सरकारों में 'फोटो-राज' और 'विज्ञापन-स्वराज' का ऐसा दौर देखने को मिल रहा है कि राजस्थान, दिल्ली, छत्तीसगढ़, यूपी पंजाब यहां तक की दक्षिण भारत के राज्यों की स्वघोषित उपलब्धियों के विज्ञापन भोपाल के पाठकों को पढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है. कमोबेश यही हाल उन राज्यों के पाठकों का भी होता होगा जब दूसरे राज्य की उपलब्धियाँ उन्हें भी पढने को मजबूर होना पड़ता होगा.
पांच राज्यों में चुनाव के समय तो मध्यप्रदेश के अखबारों में चुनावी राज्यों की सरकारों के विज्ञापनों की इतनी भरमार थी कि कई बार यह लगता ही नहीं था कि यह भोपाल के अखबार हैं या दूसरे राज्यों के अखबार हैं. चुनाव परिणाम के बाद नेतृत्व परिवर्तन का तात्कालिक एक लाभ यह हुआ है कि पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के चेहरे फिलहाल 'फोटो-राज' और 'विज्ञापन-स्वराज' के अंतर्गत भोपाल में कम ही देखने को मिल रहे हैं.
नेतृत्व के नाम और चेहरे को पब्लिसिटी की जरूरत हो सकती है लेकिन इसमें संतुलन नेतृत्व के विवेक और समझ को प्रदर्शित करता है. यह अनुभूति और साफगोई होना सुखद है कि ‘कुर्सी है तो नेतृत्व के ‘चरण कमल’ हैं, हटे तो होर्डिंग से फोटो गायब’. भले ही किसी भी भाव से यह बात कही गई हो लेकिन पद और पदमुक्त होने की इससे बड़ी सच्चाई कुछ नहीं हो सकती.
सलाहकार मंडल नेतृत्व को ईश्वरीय शक्ति और मर्यादा के समकक्ष बताने से पीछे नहीं रहता. नेतृत्व में बदलाव के बाद सलाहकार मंडल भले बदल जाते हैं लेकिन भाव कमोबेश वैसा ही होता है. राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अब पद पर नहीं है लेकिन जब पद पर थे तो अखबारों और चेनलों में उनकी उपलब्धियां के विज्ञापन सरकार की उपलब्धियां के रूप में कम उनकी लीडरशिप की उपलब्धियों के रूप में ज्यादा प्रचारित किये जा रहे थे. जैसे उनके बाद उन राज्यों का भविष्य कैसे सुरक्षित रहेगा?
मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही दौर देखा जा रहा था. नेतृत्व परिवर्तन के बाद जनधन और सरकारी पब्लिसिटी से दिखते और चमकते चेहरे 'फोटो-राज', 'विज्ञापन-स्वराज' से पूरी तरह से नदारद हैं. जिनके चेहरे हटे हैं उन्हें तो कचोटना स्वाभाविक है लेकिन इतने लंबे समय तक एक जैसे ही होर्डिंग और विज्ञापन चिपकते चिपकते वह जगहें भी शायद असमंजस में आ गई होंगी कि वह स्थाई हैं या उन पर चिपकने वाले 'नाम और चेहरा' स्थायी है. ‘नाम और चेहरा’ कभी भी स्थाई नहीं होता.
लालू प्रसाद यादव की ‘चरवाहा विद्यालय योजना’ विश्व की सबसे क्रांतिकारी योजना के रूप में प्रचारित की गई थी. लालू यादव को रेलवे में सुधार के कदमों के लिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेशनल्स को स्पीच देने मेनेजमेंट गुरु के रूप में बुलाया गया था. जब वे पदों पर थे तब उनकी विशिष्टता और प्रतिभा हर दिन मीडिया का अटेंशन खींचती थी. इसके विपरीत आज लालू यादव गड़बड़ी और अपराध के लिए अटेंशन में हैं. व्यक्तिवादी सोच और व्यक्तिवादी व्यवस्था प्रोत्साहित करने के कारण ही लोकतांत्रिक सरकारों में इस तरह की घातक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि दूसरे नेता की योजनाओं को या तो बंद कर दिया जाता है या बदल दिया जाता है.
मध्यप्रदेश में उमा भारती की 'पंच ज’ और बाबूलाल गौर की ‘गोकुल ग्राम योजना’ के साथ भी ऐसा ही हुआ था. ऐसा हर राज्य में देखने को मिलता है. यह इसीलिए होता है कि व्यक्तिवादी चेहरे पर सरकारों का संचालन प्रारंभ हो जाता है. सिस्टम व्यक्ति केंद्रित हो जाता है. शायद इसीलिए राज्यों में मंत्रियों के नाम और चेहरे याद रखना लोगों के लिए कठिन हो गए हैं. सरकारी प्रचार पर हो रहे जन-धन के दुरुपयोग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों के ‘फोटो राज और 'विज्ञापन-स्वराज’ में फोटो और कंटेंट के प्रकाशन के लिए कुछ प्रतिबंध भी लगाए. इन प्रतिबंधों में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को मुक्त रखा गया लेकिन मंत्रियों को सरकारी धन से फोटो छपवाने से रोक दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने कंटेंट को लेकर भी आदेश दिए थे लेकिन उसका पालन शायद ही हो रहा है.
दिल्ली राज्य सरकार के विज्ञापन देश के दूसरे राज्यों में प्रकाशित करने से किसको लाभ होगा? कभी सरकारों ने इस बात का आकलन नहीं किया कि 'फोटो-राज और 'विज्ञापन-स्वराज' की कागजी विकास की नीति पर अमल से कितने जन-धन का दुरूपयोग किया गया? जो भी संदेश दिया जा रहा है वह कम खर्च पर भी दिया जा सकता है लेकिन यह बात जरूर है कि फिर चेहरे छोटे ही रहते.
पदों से हटने के बाद जब इस तरीके के भाव सार्वजनिक होते हैं तब सवाल उठने स्वाभाविक हैं. जब लंबे समय तक सरकारी पदों पर रहने के बाद भी पद से हटने पर दुख होता है तो फिर कम समय तक पदों पर रहने वाला भी दुखी ही होगा. इसका मतलब ही होता है कि पदों से सुख नहीं मिलता. सुख मिलता है जीवन के लक्ष्यों की सही समझ और आचरण से. किसी पद से शक्ति नहीं मिलती, शक्ति स्व में प्रतिष्ठित होने से मिलती है.
अगर किसी को रात में चैन से सोना है तो उसे दिन में कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ेगी. यह जगत द्वन्द पर चलता है. जीवन में ऐसा संभव नहीं है कि दिन में भी मेहनत न की जाये और फिर रात में चैन से सोया जाये. पद के कारण ज्ञान की अधिकता भी पद मुक्त होने के बाद कष्टकारी साबित होती है.
बहुत बारीकी से देखा जाए तो जीवन में सफलता और विक्षिप्तता में जो पीड़ा, जो तनाव, जो चिंता और जो डर होता है उसमें कोई अंतर नहीं होता. सफलता के लिए जितनी पीड़ा उठानी पड़ती है जितनी चिंता करनी पड़ती है जितना डर-तनाव झेलना पड़ता है. ठीक उसी तरह की अनुभूति से ही विक्षिप्तता में भी गुजरना पड़ता है. बड़े पदों पर रहते हुए अगर विवेक का संतुलित उपयोग किया जाए तो फिर पद मुक्त होने के बाद भी किसी प्रकार की पीड़ा का कोई सवाल ही नहीं है.
'फोटो-राज' और 'विज्ञापन-स्वराज' में जब 24 घंटे अपना नाम और फोटो देखने की ही आदत बन जायेगी तो फिर पद से हटने के बाद नाम और फोटो गायब होने से पीड़ा होना स्वाभाविक है. यह कोई व्यक्ति विशेष की बात नहीं है. यह पदों पर बैठे हर व्यक्ति की जीवन की वास्तविकता है. पद का उपयोग अगर लोगों के कल्याण और बेहतरी के लिए भूमिका के निर्वहन के रूप में किया जाएगा और निजी जीवन में स्व में ही प्रतिष्ठित रहा जाएगा तो व्यक्तित्व अपनी गरिमा से निकलेगा. पदों से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.
सरकारी धन से फोटो राज और विज्ञापन स्वराज में नाम और चेहरा आजीवन न किसी का चला है ना कभी चलेगा. अभिनेता अभिनय करते-करते चरित्र को अपने मस्तिष्क पर हावी कर ले तो उसका संतुलित जीवन यापन ही कठिन हो जाएगा. राज्यों के सामने आर्थिक संकट के हालात हैं. जनधन के सदुपयोग के लिए सोच विचार और चिंतन लगातार होना चाहिए. सिस्टम आधारित व्यवस्था नेतृत्व के लिए भी बेहतर होती है और जनता को ज्यादा लाभ होता है. जीवन का सत्य तो शमशान वैराग्य में ही समझ आता है लेकिन सत्ता के अभिनय में शाश्वत का बोध, समय के साथ कष्ट का कारण ही बनता है.