विपक्षी दल दलित वोट बैंक को भाजपा से अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए अंबेडकर के जरिए पुरजोर कोशिश में जुटे हुए हैं..!!
भारत के राजनीतिक दलों के लिए दलित वोट बैंक शुरू से ही सत्ता बटोरने का साधन रहा है। हकीकत में दलितों की दयनीय हालत को बदलने के बजाय राजनीतिक दल ऐसा कोई मौका नहीं छोडऩा चाहते जिससे यह साबित कर सकें कि वे ही दलितों के असली मसीहा हैं। यही वजह है कि संसद में अंबडेकर को लेकर जोरदार हंगामा बरपा रहा। विपक्षी दल दलित वोट बैंक को भाजपा से अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए अंबेडकर के जरिए पुरजोर कोशिश में जुटे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में देश के करीब आधे दलित रहते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार दलितों पर अत्याचारों के लिए कुख्यात रहे हैं। इन दोनों राज्यों में भाजपा से पहले कथित दलित हितैषी कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की सरकारें रही हैं। वर्ष 2019 के आंकड़ों के मुताबिक केंद्रीय मंत्रालयों के 19 विभागों में कुल 123155 लोग काम करते हैं। इनमें से अनुसूचित जाति के 15.34प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के 6.18 प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्ग के 17.5 प्रतिशत लोग कार्यरत हैं।
हाल के लोकसभा में भाजपा गठबंधन के हाथों लगातार तीसरी बार पराजय झेल चुके विपक्षी दल केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के इस्तीफे की मांग से हार की क्षतिपूर्ति करना चाहते हैं। असलियत में इन दलों को न अंबेडकर के उसूलों की परवाह है और न ही दलितों के हितों की। संविधान पर संसद में चल रही बहस के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने अपने भाषण के दौरान कहा था कि आजकल अंबेडकर का नाम लेना एक फैशन बन गया है।
प्रधानमंत्री ने कहा कि अमित शाह ने संसद में अंबेडकर को अपमानित करने के काले अध्याय को एक्सपोज किया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के अंबेडकर के प्रति किए गए पापों की लंबी फेहरिस्त है, जिसमें उन्हें दो बार चुनावों में हराना भी शामिल है। अमित शाह के इस बयान पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर राहुल गांधी ने लिखा कि मनुस्मृति मानने वालों को अंबेडकर जी से तकलीफ बेशक होगी ही। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने कहा कि गृह मंत्री अमित शाह ने भरे सदन में बाबा साहेब का अपमान किया है। उससे फिर एक बार सिद्ध हो गया है कि बीजेपी और आरएसएस तिरंगे के खिलाफ थे। दलित वोट बैंक के आकर्षण से इस विवाद में कूदने में कोई भी दल पीछे नहीं रहा।
उधर उद्धव ठाकरे ने कहा कि अमित शाह की टिप्पणी भाजपा के अहंकार को दर्शाती है और इसने पार्टी के असली चेहरे को उजागर किया है। उन्होंने यह भी पूछा कि भाजपा के सहयोगी दल, जैसे जनता दल (यूनाइटेड), तेलुगू देशम पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, क्या अंबेडकर के बारे में अमित शाह की टिप्पणी से सहमत हैं?
आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने कहा कि शाह की टिप्पणी बेहद अपमानजनक है। केजरीवाल ने कहा कि बाबा साहेब का अपमान हिंदुस्तान नहीं सह सकता। वे इस देश के लिए भगवान से कम नहीं हैं। राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने कहा कि गृह मंत्री को राजनीति छोड़ देनी चाहिए और चले जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव कहा कि बहुत लंबा भाषण था। पत्रकारों से बेहतर कौन जानता होगा कि जुमले से किसको जाना जाता था। आज हमको 11 जुमलों का संकल्प सुनने को मिला। उत्तर प्रदेश के नगीना से सांसद चंद्रशेखर ने भी अमित शाह के बयान को अंबेडकर के संघर्ष का अपमान बताया। इन बयानों में राजनीतिक दलों की कोरी चिंताएं झलकती हैं।
दलितों के साथ इस देश में किस तरह की राजनीति की गई है, इसका बड़ा उदाहरण बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती हैं। मायावती के उत्तर प्रदेश में शासन के दौरान सरकारी लूट-खसूट में कसर बाकी नहीं रही। मायावती ने पूरे प्रदेश में चुनाव चिन्ह हाथी और अंबेडकर के साथ खुद की मूर्तियां सरकारी खर्च पर लगवाईं। वर्ष 2013 में लोकायुक्त ने जांच करके एक रिपोर्ट दी थी। लोकायुक्त ने रिपोर्ट में कहा था कि 14 अरब से ज्यादा का घोटाला है। आश्चर्य यह है कि गैर भाजपा राज्यों में दलितों पर हुए अत्याचार विपक्षी दलों को नजर नहीं आए। राजस्थान में कांग्रेस के शासन के दौरान दलित युवतियों से सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटनाएं हुर्इं।
अंबेडकर की दुहाई देने वाले विपक्षी दल आज तक यह खुलासा नहीं कर सके कि किस प्रदेश में दलितों ने सर्वाधिक तरक्की की है? दलितों के सामाजिक-आर्थिक जीवन स्तर में कितना बदलाव आया है? दरअसल भ्रष्टाचार की गाज दलितों की योजनाओं पर भी गिरी है। विपक्षी दलों का लक्ष्य भाजपा को अंबेडकर और दलितों के नाम पर घेर कर दलित वोट को मोडऩा है ताकि चुनाव के दौरान उसका फायदा उठाया जा सके।
राजनीतिक दलों को वाकई दलितों की चिंता होती तो हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दलितों में महादलितों की पहचान कर अलग से आरक्षण और क्रीमीलेयर को आरक्षण से बाहर किए जाने पर एकराय बन चुकी होती। हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद किसी भी राजनीतिक दल ने निर्णय को मानना तो दूर, उस पर चर्चा करने की हिम्मत तक तक नहीं दिखाई। सारे दलों को यही लगता है जैसा चल रहा है, चलता रहे।