लंबी कवायद और लंबी जमावट के बाद एमपी कांग्रेस की कार्यकारिणी आबाद हो गई है. जिनको जगह मिली है और जिनको जगह नहीं मिली, दोनों ही खुश लगते हैं. तेरह उपाध्यक्ष और इकहत्तर महासचिवों की कार्यकारिणी में जगह मिले या नहीं मिले, दोनों स्थितियां एक जैसी ही हो जाती हैं..!!
पीसीसी में सारे पदाधिकारियों को बैठने के कमरे भी नहीं होंगे. कार्यकारिणी की बैठक तो कभी होती नहीं है. अध्यक्ष की मर्जी, कार्यकारिणी पर हावी होती है. अनुभव तो यही बताते हैं कि कार्यकारिणी भी आलाकमान के सामने अध्यक्ष की ताकत बताने का माध्यम बन जाती है. कमलनाथ की तुलना में जीतू पटवारी की कार्यकारिणी भले ही थोड़ी छोटी हो, लेकिन इसे किसी पॉलिटिकल संगठन की कार्यकारिणी कह पाना, थोड़ा मुश्किल होगा. इतने बड़े तो संगठन के गुटों का समूह ही हो सकते हैं. संगठन तो पार्टी कॉन्स्टिट्यूशन के मुताबिक पदाधिकारी बनाते हैं.
पीसीसी, एआईसीसी पर भारी दिखाई पड़ रही है. एआईसीसी में कुल बारह महासचिव हैं जबकि मध्य प्रदेश पीसीसी में इकहत्तर महासचिव बनाए गए हैं. महासचिवों को क्या काम मिलेंगे, यह पदाधिकारियों को भी नहीं पता? जो पदाधिकारी बनने से छूट गए हैं, उनको भी नहीं पता है? कांग्रेस में कुछ भी हो और उसका विरोध ना हो? यह तो कांग्रेस की परंपरा का विरोध हो जाएगा. पीसीसी की कार्यकारिणी का भी परंपरा के अनुसार विरोध हो रहा है. कार्यकारिणी के नए पदाधिकारियों को कांग्रेस को जिताने की चुनौती दी जा रही है.
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता, सोशल मीडिया एक्स पर अपनी पोस्ट में कहते हैं कि जितने पदाधिकारी बनाए गए हैं, अगर वह अपनी विधानसभा जितवा देंगे तो पार्टी की सरकार बन सकती है. लेकिन ऐसा होता नहीं है. नई कार्यकारिणी को लेकर असंतोष की खबरें भी सामने आ रही हैं.
कार्यकारिणी गठन में केवल अध्यक्ष की भूमिका नहीं होती लेकिन दोषारोपण केवल अध्यक्ष पर होता है. पार्टी संगठनों में आजकल अध्यक्ष को स्वयं को केवल नेतृत्वकर्ता समझने की जरूरत है. पार्टी संगठन में मालिक होने की सोच हमेशा असफल होती है. सभी गुटों और नेताओं को एकमात्र हिक्मातमली से अपने साथ जोड़कर रखना ही किसी अध्यक्ष की सफलता होती है.
कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता को भी जब प्रदेश कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं नें स्वीकार नहीं किया तो फिर युवा नेताओं को तो कम से कम अपनी कार्य शैली सहयोगी और समन्वयक के रूप में ही रखना ज्यादा बेहतर है. कार्यकारिणी की घोषणा होने के साथ ही विरोध के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं. सबसे पहले यही आँकलन शुरू हो गया कि कार्यकारिणी के गठन में किस नेता को वरीयता दी गई है? और किस नेता को नजरअंदाज किया गया है?
प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह सबसे वरिष्ठ नेता हैं. कार्यकारिणी के नामों के विश्लेषण के बाद मीडिया में भी ऐसी खबरें आई की ज्यादातर नाम दिग्विजय खेमें के शामिल किए गए हैं. कमलनाथ को नज़र अंदाज करने का सबसे बड़ा उदाहरण यही है कि उनके पुत्र नकुलनाथ को इस सूची में शामिल नहीं किया गया है.
कार्यकारिणी की संख्या के हिसाब से अगर देखा जाए तो मध्य प्रदेश के राजनीतिक दलों में कांग्रेस सबसे आगे होगी. बीजेपी संगठन में पदाधिकारियों की नियुक्ति पार्टी संविधान के अनुसार निश्चित संख्या के पदों पर ही की जाती है. कांग्रेस में जरूर हमेशा ऐसा होता रहा है कि तात्कालिक नेता की मर्जी और विभिन्न गुटों को समायोजन के लिए पदाधिकारी की संख्या घटाई और बढ़ाई जाती है. यही समीकरण इस बार की कार्यकारिणी में भी दिखाई पड़ रहें है.
प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष जीतू पटवारी को नई कार्यकारिणी के लिए न तो पूरा श्रेय दिया जा सकता है और ना ही पूरी तौर से दोषारोपण किया जा सकता है. कांग्रेस कभी किसी एक नेता के हिसाब से नहीं चलती है. कांग्रेस विभिन्न गुटों के समन्वय से अधिक चलती है. यद्यपि कार्यकारिणी से नाराज नेता, इसके लिए जीतू पटवारी को ही दोषी बता रहे हैं. जो पदधारी होता है उसकी बड़ी मजबूरी होती है, कि वास्तविकता का विवरण सार्वजनिक नहीं कर सकता.
सियासत में धन प्रबंधन आज बड़ी आवश्यकता बन गई है. चाहे पार्टी के लिए, चुनाव प्रत्याशियों के चयन का मामला हो या संगठन में पदाधिकारी नियुक्ति का मामला, इसमें धन प्रबंधन की भी एक मजबूरी होती है. अनेक बार सार्वजनिक रूप से ऐसा कहा जाता रहा है कि कई बार ऐसे लोगों को एडजेस्ट करना पड़ता है जो धनपति होते हैं. पार्टी संचालन के लिए धनपति अनिवार्यता है, इस अनिवार्यता को कोई भी अध्यक्ष नज़र अंदाज नहीं कर सकता.
मध्य प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में जिस ढंग से कांग्रेस में प्रत्याशी घोषित होने के बाद भी उनके टिकट बदले गए थे, उस समय टिकिट चयन की सारी प्रक्रिया में मनी मैनेजमेंट के आरोप लगाए गए थे.
कांग्रेस की नई कार्यकारिणी के संख्या बल के हिसाब से मध्य प्रदेश भाजपा की कार्यकारिणी की तुलना में कमजोर दिखाई पड़ती है. चाहे उपाध्यक्षों की संख्या हो चाहे महासचिवों की. दोनों मामले में संख्या के नजरिए से बीजेपी, कांग्रेस की तुलना में कम है. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में भी इतने महासचिव नहीं है, जितने महासचिव मध्य प्रदेश के कांग्रेस में बनाए गए हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि सचिव नहीं बनाए गए हैं, इसलिए महासचिवों की संख्या भारी है.
कार्यकारिणी गठन में कांग्रेस ने वैसी ही गलती दोहराई है जैसे कमलनाथ की कांग्रेस सरकार में सभी मंत्रियों को कैबिनेट मंत्री बनाकर की गई थी. इस एक गलती के कारण वरिष्ठ नेताओं में नाराजगी बढ़ी थी और अंततः सरकार को जाना पड़ा था. कार्यकारिणी में भी ऐसी ही गलती दिखाई पड़ रही है.
बड़ी संख्या में युवाओं को मौका दिया गया है लेकिन जो पद उन्हें दिए गए हैं, वह उनकी अनुभव और परिपक्वता से ज्यादा प्रतीत हो रहे हैं. जो लोग छूट गए हैं उनमें नाराजगी का भाव खुद के शामिल नहीं होने से ज्यादा, ऐसे युवाओं को इतने वरिष्ठ पदों पर मौका मिलने से अधिक दिखाई पड़ रहा है.
मध्य प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव काफी लंबे समय के बाद होने हैं. पार्टी संगठन पांच साल इसी कवायद में लगा रहता है, कि जनता के बीच अपनी छवि और सक्रियता कायम रखें. ताकि चुनाव के मौके पर पार्टी को इसका लाभ मिले. जब भी कहीं संगठन में भीड़ ज्यादा हो जाती है, तो उनको अनुशासन में रखना नामुमकिन सा हो जाता है.
कांग्रेस और अनुशासन का तो वैसे कोई सीधा संबंध नही है. कांग्रेस कार्यकारिणी ही पार्टी में अनुशासन के हालात बता रही है. जहां सुविधा और स्वेच्छा से पदाधिकारी के लिए पद बना दिए जाते हैं. वहां अनुशासन की कोई गुंजाइश नहीं होती. जो जितना हावी, उसको उतनी ही हिस्सेदारी कांग्रेस की परम्परा है.
जीतू पटवारी की नई कार्यकारिणी को अपनी कार्यप्रणाली निर्धारित करना है. संगठन में समन्वय और सहयोग एकमात्र रास्ता है. किसी को प्रमुखता और किसी को किनारा, किसी भी संगठन को किनारे ही पहुंचाता है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस का मुकाबला भाजपा के सशक्त संगठन से है. संगठन के मामले में बीजेपी मध्य प्रदेश में हमेशा से आदर्श मानी जाती है.
यद्यपि समर्पण की कमी सब जगह देखी जा सकती है. राजनीतिक दलों के सशक्त और समर्पित संगठन लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए बेहतर है. जीत और हार अपनी जगह है. जिताऊ और हराऊ सभी का संगठन में स्वागत और सम्मान होना ही चाहिए.