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पूजा स्थल डिस्प्यूट, वही सीड- वही रूट

सार

सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर - मस्जिद पूजा स्थल विवाद पर नए केस या कोई आदेश देने से देशभर की अदालतों को रोकने का बड़ा निर्देश जारी किया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, जब तक प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई जारी रहेगी, तब तक मंदिर-मस्जिद विवाद का कोई नया मुकदमा देश की किसी भी अदालत की ओर से दर्ज नहीं किया जाएगा.  चीफ जस्टिस ने कहा कि, हमने यह आदेश सामाजिक सद्भाव, शांति बनाए रखने के उद्देश्य से जारी किया है..!!  

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विस्तार

    मंदिर मस्जिद विवाद ने देश की दिशा और दशा बदली है. बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राम मंदिर का निर्माण संभव हो पाया. इसके बाद कृष्ण जन्मभूमि, काशी में ज्ञानवापी के विवाद भी न्यायालयों  में विचाराधीन है. भोजशाला का मामला भी कोर्ट में एडवांस स्टेज पर पहुंच गया है. हाल ही में संभल और अजमेर शरीफ का मामला न्यायिक प्रक्रिया में उभरने के बाद देश में चर्चा का विषय बना हुआ है.

    प्रथम दृष्टि में यह बात बिल्कुल सर्वमान्य लगती है कि, पुराने विवादों को उखाड़ कर समाज में शांति सद्भाव को खतरे में नहीं डाला जाना चाहिए. बाबरी मस्जिद के बाद कांग्रेस की केंद्र सरकार ने सन 1991 में प्लेसज ऑफ वर्शिप एक्ट कानून बनाकर राम मंदिर को छोड़कर बाकी सारे मामलों को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बहाल रखने की कानूनी प्रक्रिया निर्धारित की थी. 

    निश्चित रूप से इस कानून में कुछ कमियां हैं जिनके कारण अदालत में मामले जा रहे हैं. कोर्ट के आदेश पर पूजा स्थलों का सर्वेक्षण हो रहा है. किसी भी पूजा स्थल पर विवाद में जो भी कार्रवाई चल रही है, वह किसी भी सरकार के आदेश पर नहीं हो रही है. हर स्थान पर यह कार्रवाई अदालत की प्रक्रिया के तहत हो रही है. सुप्रीम कोर्ट पूजा स्थल एक्ट की संवैधानिकता पर सुनवाई कर रहा है. इसी बीच मंदिर मस्जिद में अदालती आदेशों से बढ़ रहे विवाद के कारण तनाव को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश आया है.

    ऐसे विवाद थमने चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं है. विवादों का जन्म और उनका निदान केवल समय की बात होती है. विवादों के बीज भले ही सदियों पहले बोए गए हों लेकिन जब तक बीज को नहीं बदला जाएगा तब तक कोई भी हल नहीं निकल सकेगा.

    मंदिर मस्जिद विवाद में ही अगर देखा जाए तो भारत में मंदिर पक्ष, मंदिर तोड़कर बनाई गई मस्जिदों को सर्वेक्षण कराकर मूल चरित्र निर्धारित करना चाहते हैं. उन्हें वापस पाना चाहते हैं. राम जन्मभूमि पर इस मामले में मंदिर पक्ष को सफलता भी मिल चुकी है. जहां मस्जिद पक्ष अपने पूजा स्थलों के वर्तमान स्वरूप को बिना इस विवाद में गए हुए कि, इन्हें मंदिर तोड़कर बनाया गया है या वह मूल रूप से मस्जिद हैं, कायम रखना चाहते हैं. 

    आजादी को अभी एक शताब्दी भी नहीं पूरा हुआ है. मतलब 77 साल पहले पाकिस्तान और  बांग्लादेश, भारत का हिस्सा था. आज इन दोनों देशों में मंदिरों के साथ क्या हो रहा है? मंदिर तोड़े जा रहे हैं. मंदिर जलाए जा रहे हैं. मतलब यह है कि, मंदिरों को तोड़ने और जलाने का बाबर, हुमायूं, तुगलक, गजनी और गौरी की सोच का जो बीज था, वह आज भी इस स्वरूप में कायम है. भले ही वह बीज अभी भारत में नहीं रोपा जा पा रहा हो, लेकिन उसके दुष्परिणाम पाकिस्तान और बांग्लादेश में साफ-साफ दिखाई पड़ रहे हैं. इन देशों में टूटे मंदिर, भारत में मंदिरों की नींव मजबूत करने का बीज बन गई है.

    मंदिर-मस्जिद का विवाद इतनी जल्दी सुलझने वाला होता तो, अब तक हल हो चुका होता. संविधान के सभी अंगों में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को विवाद के बीज पर चिंतन - मनन करना होगा. 

    सवाल पूजा स्थल का नहीं है. सवाल, पूजा की मान्यता का है. पूजा के धार्मिक विचारों में मानवता का है. शास्त्रों, ग्रंथों और धार्मिक पुस्तकों में मानवीयता और अमानवीयता में अंतर करने का है. इस अंतर को समझकर शास्त्रों और धर्मग्रंथो को पुन: परिभाषित करने का है. यह विवाद भले ही इंसानों के बीच दिखाई पड़ रहा हो, लेकिन असली विवाद के बीज तो धार्मिक मान्यताओं से उत्पन्न हो रहे हैं.

    हर दिन, हर चीज बदल रही है. प्रकृति बदल रही है, इंसान बदल रहा है. विचार बदल रहे हैं लेकिन अगर कोई सोच सदियों पुरानी मान्यता पर चल रही है, तो फिर अतीत और वर्तमान में टकराहट स्वाभाविक है. कोई शास्त्र, धर्म ग्रंथ ऐसा मानता है कि, उसका धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है, उसके धर्म के अलावा किसी दूसरे धर्म के अनुयाई को काफ़िर मानकर उसको समाप्त करने तक का धार्मिक अधिकार प्राप्त है. यही तक नहीं, इस तरह के अमानवीय कृत्य को न केवल धार्मिक मान्यता बल्कि इससे जन्नत की परिकल्पना मानवता को कहां पहुंचा देगी. 

    किसी एक मंदिर मस्जिद या पूजा स्थल का विवाद निपटाने से ऐसे विवादों का बीज तो समाप्त नहीं होगा. इस बीज को समाप्त करने पर कैसे आगे बढ़ा जा सकता है. यह पहल समाज की ओर से होगी, संविधान और न्यायपालिका के अंतर्गत होगी या अन्य और किसी प्रक्रिया से होगी लेकिन ऐसे विवादों का हल बिना बीज को बदले हुए तो संभव हो नहीं सकता.

    धर्म निजी है. धर्म का संबंध व्यक्ति से है. धर्म की चेष्टा यही है कि, व्यक्ति इतना जागरुक हो कि, वह भीड़ से मुक्त होकर स्वयं के भीतर धर्म की प्रतिष्ठा कर सके. जिन मस्जिदों पर विवाद की स्थिति बनी हुई है, उनको कभी तोड़ा गया था या नहीं? यह सुनिश्चित किया जाएगा या नहीं? यही अदालतों में तय हो रहा है.

    कभी भारत की ही सीमा रहे पाकिस्तान और बांग्लादेश में तो आज भी तोड़े जा रहे हैं. इसके लिए तो किसी सर्वे की जरूरत नहीं पड़ी. रोज मीडिया में चित्र आ रहे हैं. इसका मतलब की मंदिर तोड़ने की सोच का बीज सदियों पहले भी था और आज भी है. एक पक्ष अगर अपने पूजा स्थलों को पाने के प्रयास छोड़ देगा तो इसकी क्या गारंटी है कि, जिस इस तरह के हालात कभी भारत का हिस्सा रहे देशों में हो रहे हैं वैसे हालत भारत में फिर निर्मित नहीं हो सकते. 

    इसलिए यह कोई सामान्य मामले नहीं है. यह सोच, बीज और धार्मिक मान्यताओं को बदलने का गंभीर विषय है. इतने बड़े बदलाव का साहस कौन उठा सकता है, इस पर सोचने की जरूरत है? यह स्वीकारने की जरूरत है, कि बदलाव प्रकृति है, जो एक बार हो गया, इस पर टिके रहना प्रगति नहीं हो सकती. बदलाव ही एक तरह की प्रगति है. इसलिए मंदिर-मस्जिद विवाद की सोच के बीज को बदलने का वक्त आ गया है. गंगा भी भारत, जमुना भी भारत और विडम्बना ही है, कि भारत को ही तहजीब का पाठ पढाया जाता है.