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दुष्काल : नार्मल होता देश, पर सतर्कता जरूरी

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Sat , 22 Feb

सार

लोग या न भूलें कि सख्त नियम, फ्रंट लाइन वर्करों की तत्परता और आम लोगों के धैर्य-संयम ने कोरोना संक्रमण को मात देने में बड़ी भूमिका निभायी है।

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विस्तार

दो साल बाद अब एक अप्रैल से  कोरोना दुष्काल सम्बन्धी आपदा प्रबंधन अधिनियम से जुड़े प्रावधान हटने जा रहे हैं  । जिंदगी फिर पटरी पर आ रही है। कोरोना दुष्काल की पहली लहर के दौरान देश में चौबीस मार्च २०२०  को लगा लॉकडाउन अब हमारी स्मृतियों में दु:स्वप्न की भांति विद्यमान रहेगा |विशेषकर  उन लोगों के लिये जिन्होंने इन भयावह कोरोना लहरों में अपने प्रियजनों को खोया है। पहली लहर के बाद सख्त लॉकडाउन लगते वक्त हर कोई एक सदी बाद आई एक अज्ञात महामारी से भयाक्रांत था। एक ऐसा संक्रामक रोग जिसके बारे में चिकित्सा विज्ञान व वैज्ञानिक कुछ भी ठीक-ठीक कह पाने में असमर्थ थे। इस महामारी को मौत के पर्याय के रूप में देखा जा रहा था। देश के पास इस अप्रत्याशित महामारी से निबटने के लिये न कुशल तंत्र था और न ही चिकित्सा सुविधाएं।

देश आज दुष्काल  के दंश से मुक्त होकर सामान्य जीवन की और अग्रसर हैं तो इसके  लिए देश के अग्रिम मोर्चे पर डटे कोरोना योद्धाओं को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए। सर्वविदित है ऐसे में लॉकडाउन व आपदा प्रबंधन कानून ही उपलब्ध सुरक्षा कवच था जिसने असंख्य जानें बचायीं भी। लॉकडाउन व आपदा प्रबंधन के सख्त नियमों के चलते करोड़ों लोगों का विस्थापन, रोजगार संकट व पलायन का दंश देश ने झेला। दुष्काल  के दौर में तात्कालिक उपाय ये ही हो सकते थे। आज जब देश में संक्रमित लोगों की संख्या कुछ हजारों में है, वातावरण में वैसा भय नहीं है जैसा पहली लहर के बाद कुछ सौ संक्रमितों की उपस्थिति के दौरान उत्पन्न हो गया था। आज हम गर्व कर सकते हैं कि देश में लगभग १८२  करोड़ वैक्सीन की डोज दी जा चुकी हैं। वृद्धों, बुजुर्गों, वयस्कों, किशोरों के टीकाकरण के बाद अब देश में बच्चों को टीका लगाने का काम शुरू हो चुका है। देश में टीके की खोज व स्वदेशी उत्पादन की उपलब्धता ने देश को नया आत्मविश्वास दिया है।
 
यह सुखद वेला  है कि देश बाकी पाबंदियों को विदा करने जा रहा है, मगर फिर भी मास्क व शारीरिक दूरी अपरिहार्य ही हैं। इसकी वजह यह है कि चीन, हांगकांग,कोरिया समेत कई देशों में कोरोना संक्रमण फिर उफान पर है। यही वजह है कि मास्क लगाने व सार्वजनिक स्थलों में शारीरिक दूरी की अनिवार्यता की बात कही जा रही है। यदि हम सार्वजनिक जीवन में सामान्य दिनचर्या का अवलोकन करें तो स्थिति बिल्कुल उलट नजर आती है। कुछ लोग आधे-अधूरे ढंग से मास्क लगाते तो नजर आ रहे हैं, लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो मान चले हैं कि देश से कोरोना वायरस वापस वुहान जा चुका है। सार्वजनिक परिवहन, ट्रेनों व बाजारों में न मास्क नजर आ रहे हैं और न ही शारीरिक दूरी का ख्याल रखा जा रहा है। दो साल की घुटन से मुक्त होने की जल्दी लोगों में साफ नजर आ रही है। बहुत कम लोग हैं जो इसे न्यू नार्मल के रूप में देख रहे हैं। वहीं जिन लोगों पर निगरानी की जिम्मेदारी थी, वे भी शिथिल नजर आते हैं। शायद उन लोगों को भी इस बात का भान नहीं है कि मास्क व शारीरिक दूरी की बात सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी की संस्तुति के बाद की है।

लोग या न भूलें कि सख्त नियम, फ्रंट लाइन वर्करों की तत्परता और आम लोगों के धैर्य-संयम ने कोरोना संक्रमण को मात देने में बड़ी भूमिका निभायी है। इतनी बड़ी आबादी और सीमित संसाधनों के देश में सामूहिक भागीदारी से यह सफलता मिली है। इसे लापरवाही से नहीं गंवाना चाहिए। देश की सार्वजनिक चिकित्सा का जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में सजगता व सतर्कता ही हमारे उपचार हैं जो भविष्य में किसी नये वेरिएंट के आने पर हमारे सुरक्षा कवच बन सकते हैं। ऐसे प्रयासों  से ही हमने करोड़ों भारतीयों का जीवन बचाया भी है। यह सुखद ही है कि देश फिर से खुल रहा है। स्कूल, सिनेमा हॉल, सार्वजनिक आयोजन स्थल, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों की रंगत लौटना सुखद ही है।