लोकसभा चुनाव में दो संसदीय सीटों से चुनाव लड़ने का रिकॉर्ड राहुल गांधी ने ही दर्ज किया है. पिछली चुनाव में भी दो सीटों से राहुल गांधी ने चुनाव लड़ा था. इस बार भी वह देश के अकेले नेता हैं, जो दो सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं. हवा अमेठी से लड़ने की थी, लेकिन पहुंच गए गांधी परिवार की परंपरागत सीट रायबरेली..!!
अमेठी से हार का डर गांधी परिवार का पारिवारिक समीकरण भी बिगाड़ गया है. अमेठी से अगर राहुल गांधी लड़ते तो रायबरेली से प्रियंका गांधी लड़ सकती थीं. प्रियंका गांधी राजनीति में राहुल गांधी से कम सक्रिय नहीं हैं. राजनीति में इतना सक्रिय प्रियंका गांधी चुनाव नहीं लड़ना चाहती होंगी ऐसा तो नहीं हो सकता है. अगर उनकी चुनाव में रुचि नहीं होती तो फिर राजनीति में भी उनकी रुचि नहीं होती.
प्रियंका गांधी को चुनाव लड़ने का मौका कांग्रेस क्यों नहीं दे रही है, इस रहस्य से पर्दा कभी ना कभी उठेगा. वैसे भी जैसे सब अपनी विरासत लड़कों को सौंपते हैं, शायद सोनिया गांधी अपनी राजनीतिक विरासत बेटे राहुल गांधी को ही सौंपना चाहती हैं. इसी कारण पहले राजनीति में राहुल गांधी को ही लॉन्च किया गया. राहुल गांधी के पांव जब मजबूती से जम नहीं पाए, बीच-बीच में लड़खड़ाते दिखाई पड़े, तो प्रियंका गांधी को सपोर्ट में उतारा गया.
कांग्रेस ने जो गलती 2019 में की थी, वही राहुल गांधी को दो सीटों से चुनाव लड़ाने की गलती इस बार भी कर रही है. अमेठी से राहुल गांधी की पराजय के कारणों में एक कारण यह भी था, कि अमेठी के लोगों को यह बात पसंद नहीं आई, कि राहुल को उन पर भरोसा नहीं है और राजनीतिक डर के कारण अल्पसंख्यक बाहुल्य सीट केरल की वायनाड दूसरी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. अमेठी के लोगों में नाराजगी बढ़ी और राहुल गांधी चुनाव हार गए. इस बार कांग्रेस ने वायनाड के लोगों को मतदान की तारीख तक यह छुपाए रखा , कि राहुल गांधी दूसरी सीट पर चुनाव लड़ेंगे. वहां मतदान हो चुका है. जनादेश EVM में लॉक हो चुका है.
पीएम मोदी तो कह रहे हैं, कि राहुल गांधी वायनाड से चुनाव हार रहे हैं. हार के डर के कारण दूसरी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. अमेठी में भी हार का डर था. इसलिए रायबरेली से चुनाव लड़ने जा रहे हैं. अगर यह मान लिया जाए, कि राहुल गांधी वायनाड और रायबरेली दोनों सीटों पर विजय हासिल करेंगे तो फिर उन्हें एक सीट छोड़नी पड़ेगी. जो भी सीट छोड़ेंगे उस पर दोबारा चुनाव होगा. जनधन बर्बाद होगा. दो सीट पर लड़कर राहुल गांधी और कांग्रेस मतदाताओं को क्या संदेश देना चाहते हैं. क्या नेरेटिव बनाना चाहते हैं. इसका रहस्य सामान्य मतदाताओं को तो समझ नहीं आ रहा है, वायनाड से अमेठी टू रायबरेली राहुल गांधी की अबूझ पहेली पॉलिटिकल पंडितों के लिए भी चौंकाने वाली है.
अमेठी से भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी तो साफ-साफ कह रही है कि हार के डर के कारण राहुल गांधी रायबरेली भागे हैं. कांग्रेस में अमेठी से जिस तरह से सामान्य कार्यकर्ता कोचुनाव लड़ने का मौका दिया है, उसका संदेश जरूर कार्यकर्ताओं को प्रेरित करेगा.
इस बार का लोकसभा चुनाव मोदी वर्सेस मोदी ही है. पीएम मोदी के मुकाबले दूसरा पीएम का कोई चेहरा नहीं है. राहुल गांधी विकल्प के रूप में अपने आप को स्थापित नहीं कर सके हैं. मुद्दों पर उनकी जमीनी पकड़ नहीं दिखाई देती है. जिस तरह के मुद्दे चुनाव में उनके द्वारा उठाए जा रहे हैं, वह क्रांतिकारी भले हो सकते हैं. लेकिन परिवर्तनकारी नहीं दिखाई पड़ते हैं. चुनाव को दक्षिण भारत और उत्तर भारत के बीच में विभाजित करने की कांग्रेस की सोच भी दो सीट से चुनाव लड़ने के पीछे हो सकती है.
रायबरेली सीट कांग्रेस की है. अभी भी इस सीट से सोनिया गांधी सांसद रही हैं. राहुल गांधी वहां से विजय हासिल कर सकते हैं. लेकिन उनके वहां चुनाव लड़ने से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को कोई भी राजनीतिक फायदा होने की उम्मीद नहीं है. केवल रायबरेली सीट ही कांग्रेस की संभावना है. इस संभावना को ही जीत में परिवर्तित करना, राहुल गांधी के बस में है. गांधी परिवार ने अमेठी सीट पर ऐसे प्रत्याशी को उतारा है, जिसकी परिवार के प्रति आस्था असंदिग्ध है.
अमेठी में मुकाबला एक तरह से गांधी परिवार और स्मृति ईरानी के बीच ही होगा. गांधी परिवार यह सीट जीतने में अगर सफल हो जाता है, तो निश्चित रूप से इसका राष्ट्रव्यापी संदेश जाएगा. लेकिन अगर स्मृति ईरानी दोबारा यह सीट जीतने में सफल होती हैं, तो गांधी परिवार की राजनीतिक साख पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा.
अमेठी से राहुल गांधी के चुनाव नहीं लड़ने का राजनीतिक संदेश हार के डर से भागने का है. प्रियंका गांधी को चुनाव लड़ाने का मौका नहीं देने का संदेश परिवार में सब कुछ ठीक नहीं होने का भी जा रहा है. रायबरेली में राहुल के उतरने का एक संदेश यह भी जा रहा है, कि उन्हें वायनाड सीट से हारने का डर सता रहा है.
रायबरेली और अमेठी में जो ज़मीनी हक़ीकत वह कांग्रेस के लिए आसान नहीं है. विधानसभा और लोकसभा चुनाव के पिछले परिणाम में जो नतीजे हैं, उनसे यह स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है,कि कांग्रेस का जनाधार लगातार कम हो रहा है. समाजवादी पार्टी में फूट के कारण बीजेपी में शामिल हुए विधायकों का लाभ भाजपा को मिलने की संभावना है. रायबरेली से भाजपा प्रत्याशी स्थानीय हैं. पिछले चुनाव में भी वह सोनिया गांधी के खिलाफ़ मैदान में रहे हैं. इस बार राहुल गांधी को पुराने प्रत्याशी दिनेश प्रताप सिंह ही बीजेपी की ओर से चुनौती दे रहे हैं.
गांधी परिवार की विरासत उनकी राजनीतिक हैसियत अब चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा नहीं बचा है. रायबरेली से इंदिरा गांधी भी एक बार चुनाव हार चुकी हैं. जितनी उम्र में बच्चा जन्म से जवान हो जाता है, उतने समय से राहुल गांधी लोकसभा के सदस्य हैं. राहुल गांधी से जिस राजनीतिक कमाल की उम्मीद कांग्रेस और गांधी परिवार को थी, वह अब तक तो सफल नहीं हुई है.
बीजेपी के सक्सेस मॉडल में राहुल गांधी की भी महत्वपूर्ण भूमिका लगती है. बीजेपी सरकार की कमजोरियों और नीतियों की खामियों को राहुल गांधी देश के सामने उजागर करने में सफल नहीं हो पाए. जिस भी तरह के मुद्दे उनके द्वारा सरकार के खिलाफ़ उपयोग किए जाते हैं, वह सरकार से ज्यादा कांग्रेस को ही नुकसान पहुंचाते हैं. वामपंथी चिंतन हावी होने से भी कांग्रेस भारत के असली मुद्दों से भटकती दिखाई पड़ती है.
शाही परिवार शहजादे और ऐसे ना मालूम कितने जुमले राहुल गांधी के लिए गढ़े गए हैं. राहुल गांधी कड़ी मेहनत करते दिखते हैं, लेकिन जितनी मेहनत करते हैं, परिणाम उतने ही खराब मिलते हैं. इसी साल हुए राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का परफॉर्मेंस चिंताजनक था. उस समय भी ऐसे ही मुद्दे उठाए गए थे, जो लोकसभा चुनाव में उठाए जा रहे हैं.
रायबरेली जीत कर वायनाड छोड़ना या वायनाड जीतकर रायबरेली छोड़ना दोनों स्थितियां राहुल गांधी के लिए जीत की नहीं, बल्कि राजनीतिक हार की होंगी. ऐसी राजनीतिक हार से राहुल गांधी कैसे बचेंगे यह तो वक्त बताएगा. लेकिन अगर दोनों जीते तो एक तो छोड़ना ही पड़ेगा.