निर्वाचन आयोग ने देश के मतदाताओं, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों, चुनाव कर्मियों, सुरक्षा कर्मियों और मीडिया आदि का, एक विज्ञापन के जरिए, ‘धन्यवाद’ किया है, लेकिन कुछ खट्टे, कड़वे अनुभव, कुछ सवाल और त्रासदियां पीछे छूट गई हैं, जिनका अब जिक्र तक नहीं होगा।
दूसरी बार साबित हो गया कि भारत की जनता को भावना की लहर में नहीं बहाया जा सकता। यह भी सबित हो गया कि संसद में आपकी कथनी और करनी का जनता संज्ञान लेती है और वो प्रजातंत्र की रक्षा के अपने कर्तव्य को भलीभाँति समझती है।
राजनेता यह भूल जाते हैं कि उन्हें कहाँ क्या कहना है और कहाँ क्या करना है। भारत के चुनावी इतिहास में ये दो घटना लिख दी गई है और ये हमेशा इन राजनेताओं को सालती रहेंगी। जैसे संसद में में “अबकी बार ४०० पार” का उदघोष या “किसी बिल के टुकड़े-टुकड़े कर डालना” । दोनों प्रमुख दलों के शीर्ष से हुए इन घटनाक्रमों का जवाब जनता ने दिया है।
चुनाव की मौजूदा प्रक्रिया सम्पन्न हो गई है । निर्वाचन आयोग ने देश के मतदाताओं, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों, चुनाव कर्मियों, सुरक्षा कर्मियों और मीडिया आदि का, एक विज्ञापन के जरिए, ‘धन्यवाद’ किया है, लेकिन कुछ खट्टे, कड़वे अनुभव, कुछ सवाल और त्रासदियां पीछे छूट गई हैं, जिनका अब जिक्र तक नहीं होगा। एक आंकड़ा ‘25’ हमेशा त्रासदी को याद दिलाता रहेगा, क्योंकि यह संख्या उप्र और बिहार के उन चुनाव कर्मियों की है, जो भीषण लू की चपेट में आकर अपनी जिंदगी गंवा बैठे। ये त्रासदियां और भी संत्रस्त करेंगी, क्योंकि इन त्रासदियों का पूर्वानुमान नहीं होना चाहिए था?
इस बार अप्रैल की शुरुआत से ही मौसम विभाग ने चेतावनी और परामर्श जारी किए थे कि इस बार गर्मी कुछ अधिक ‘असामान्य’ होगी। ऐसी गरम लू चलने की संभावनाएं जताई गई थीं कि लू की अवधि 10-20 दिन भी हो सकती है। अमूमन लू की अवधि 4-8 दिन की होती है। बेशक चुनाव आयोग ने मतदाताओं और चुनाव कर्मियों के बचाव के लिए, बूथ स्तर पर ही, बंदोबस्त सुनिश्चित किए थे, लेकिन चुनाव कर्मी हमेशा ही असुरक्षित तथा अति संवेदनशील महसूस करते हैं, क्योंकि उनका काम ऐसा ही है।
चुनाव का दायित्व अधिकतर अध्यापक, दफ्तरी या क्लर्क आदि ही निभाते हैं, लिहाजा यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि उन्हें सुरक्षित माहौल में रखे। कमोबेश जिंदगी खत्म नहीं होनी चाहिए। इस संदर्भ में आयोग को चुनाव को वैकल्पिक कलैंडर पर विचार करना चाहिए। चुनाव आयोग की निष्पक्षता, ईमानदारी, तटस्थता और व्यापकता पर कोई सवाल या संदेह नहीं है। सर्वोच्च अदालत के सामने भी मामला गया था, जिसने हस्तक्षेप या आयोग का आधार बड़ा करने का कोई फैसला सुनाने से इंकार कर दिया। चुनाव आयोग कई चरणों में मतदान के कार्यक्रम पर पुनर्विचार जरूर करे।
लोकसभा का कार्यकाल मई-जून तक तो था ही , चुनाव अप्रैल तक सम्पन्न कराए जा सकते थे । चुनाव आयोग के पास बजट और श्रम-बल की कोई कमी नहीं है। विभिन्न सुरक्षा बलों की व्यवस्था गृह मंत्रालय करता है। यदि मतदान कम समय में ज्यादा क्षेत्रों में होना है, तो मंत्रालय उसकी भी व्यवस्था कर सकता है। कई बच्चों की परीक्षाएं आड़े आती हैं।
वे भी साथ-साथ चल सकती हैं, क्योंकि सभी बच्चे मतदाता नहीं हैं। इस पहलू पर स्कूलों के साथ बैठकर तय किया जा सकता है। अब हम इतने तकनीक सम्पन्न भी हो चुके हैं कि कम अवधि में ज्यादा बड़ा चुनाव सम्पन्न करा सकते हैं। अगले संसदीय चुनाव तक ईवीएम का भी पर्याप्त बंदोबस्त किया जा सकता है। चूंकि जलवायु-परिवर्तन के कारण मौसम भी बदल रहा है।
देश में पहली बार तापमान 50-52 डिग्री सेल्सियस तक उछल गया । गर्मी-लू से देश भर में करीब 60 मौतें हो चुकी हैं। मतदान भी प्रभावित हुए थे। क्या मतदान 4-5 चरण में नहीं कराए जा सकते? क्या पहले ऐसा नहीं किया गया था ? कमोबेश गर्मियों के ‘चरम’ की स्थिति में चुनाव नहीं होने चाहिए। सात चरण के मतदान का निर्णय सवालिया लगता है, बेशक आयोग कुछ भी दलीलें देता रहे।
जलवायु-परिवर्तन भविष्य में व्यवस्था को और बिगाड़ सकता है। अभी तो शुरुआत है और उसे विश्व नियंत्रित नहीं कर पा रहा है। कार्बन-उत्सर्जन की मात्रा थोड़ी-बहुत कम हुई है, लेकिन दूसरी भी विसंगतियां हैं। जब सरकारें राजनीतिक हित के मद्देनजर अग्रिम चुनावों की अनुशंसा कर सकती हैं, तो चुनाव आयोग संवैधानिक निकाय है। संविधान ने उसे कई विशेषाधिकार दिए हैं।
देश के 23 राज्यों में ‘हीट एक्शन प्लान’ लागू हैं। पहला सवाल तो यही है कि सभी राज्यों में इसे लागू क्यों नहीं किया गया? मौसम के जानलेवा खतरों और जोखिमों से आम आदमी को बचाना सरकार का ही दायित्व है। सरकार चाहे, तो चुनाव आयोग के साथ मिल कर नए कलैंडर पर विचार कर सकती है। राज्यों में गर्मी को लेकर योजनाएं तो बनी हैं, लेकिन लागू करने में कुव्यवस्था है। बहरहाल तमाम पहलू आयोग के सामने हैं। प्रयास तो हों ।