चुनाव परिणाम के 24 घंटे बाद कांग्रेस के कुलदेवता राहुल गांधी को होश आया. ट्वीट के जरिए उनकी पहली प्रतिक्रिया सामने आई. यह प्रतिक्रिया भी उनकी अपरिपक्व सियासी समझ और उसूलों को प्रदर्शित कर रही है..!!
राहुल गांधी की नजर में जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणाम संविधान और लोकतांत्रिक स्वाभिमान की जीत हैं. इसका सीधा मतलब है, कि हरियाणा के परिणाम संविधान और लोकतंत्र का अपमान है. कांग्रेस की प्रतिक्रिया में भी कहा जा रहा है, कि यह लोकतंत्र की नहीं तंत्र की जीत है. चुनावी प्रक्रिया और EVM पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. राहुल गांधी भी कह रहे हैं, कि शिकायत से इलेक्शन कमीशन को अवगत कराएंगे.
हरियाणा के परिणाम को अप्रत्याशित बताते हुए, राहुल गांधी विश्लेषण की बात कर रहे हैं. परिणाम से ज्यादा कांग्रेस के कुलदेवता स्वयं की और पार्टी संगठन की कार्य पद्धति और कार्य प्रणाली का विश्लेषण करते होते तो लोकतांत्रिक परिणाम पर सवाल नहीं उठाते. राहुल गांधी अपनी प्रतिक्रिया में ही यह भी इशारा कर रहे हैं, कि उनकी शैली, वही रहेगी जो अभी तक चल रही है. वे कह रहे हैं, कि हक़, सामाजिक और आर्थिक न्याय का संघर्ष जारी रखेंगे.
सियासत की सच्चाई जीत है, सत्ता है. इस सच्चाई के लिए सियासत किसी भी स्तर पर जाकर कोई भी संघर्ष करने के लिए तैयार हो जाती है. राहुल गांधी सामाजिक, आर्थिक न्याय और हक़ देने की अपनी अवधारणा कई बार देश के सामने रख चुके हैं. सभाओं में भी यहां तक कि चुनावी घोषणा पत्रों में भी विभिन्न गारंटियों के नाम पर ऐसे वायदे किए जाते हैं.
कांग्रेस का सामाजिक और आर्थिक न्याय का वायदा इसलिए काम नहीं कर रहा है, क्योंकि यह सच्चाई पर आधारित नहीं है. देश के सामने दशकों तक शासन करने वाली कांग्रेस ऐसा कोई मॉडल सामने नहीं ला पाई है. यहां तक कि जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें अभी भी काम कर रहे हैं, वहां इसी तरह के न्याय की गारंटी के झूठ और भ्रम में जनादेश हासिल कर लिया गया था. लेकिन इन सरकारों का परफॉर्मेंस दूसरे राज्यों की सरकारों की तुलना में निराशाजनक ही कहा जाएगा.
हरियाणा से लगा हुआ हिमाचल प्रदेश है, जहां कांग्रेस की सरकार है,वहां भी कांग्रेस ने सामाजिक और आर्थिक न्याय की बातें की थीं, लेकिन हिमाचल में कांग्रेस की सरकार आज हिचकोले खा रही है. कांग्रेस के भीतर आपसी संघर्ष और सत्ता की बंदरबांट चरम पर है. बड़ी संख्या में विधायक पार्टी से बगावत कर चुके हैं. मुख्यमंत्री किसी तरह से अपना समय निकाल रहे हैं. हिमाचल प्रदेश में सामाजिक सौहार्द्र टूट रहा है. जन आंदोलन खड़े हो रहे हैं. समुदायों के बीच टकराहट बढ़ रही है. अगर कांग्रेस के कुल देवता का गवर्नेंस का मॉडल हिमाचल में चल रहा है, तो ऐसा मॉडल शायद देश के लोगों को पसंद नहीं है.
हरियाणा में किसी विश्लेषण की जरूरत नहीं है हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के परफॉर्मेंस को देख लिया जाए तो हार का कारण अपने आप समझ आ जाएगा. कर्नाटक में भी कांग्रेस ने इसी तरह के न्याय की गारंटियों के नाम पर जनादेश हासिल किया था.
कर्नाटक की सरकार आर्थिक संकट में है. कांग्रेस के मुख्यमंत्री आर्थिक अपराध के मामले में कटघरे में खड़े हुए हैं. मुख्यमंत्री की पत्नी द्वारा सरकारी संस्थान में एक साथ बड़ी संख्या में प्लॉट लेने का मामला जांच एजेंसी के सामने चल रहा है.
फटाफट-खटाखट लोगों को नगद पैसे देने का कुलदेवता का मॉडल वैसे तो अभी तक कहीं प्रभावशील नहीं हो पाया है, लेकिन अगर हो भी जाता है, तो कांग्रेस के कुलदेवता को यह अंदाजा ही नहीं है, कि जितनी रकम देने की वे बात करते हैं, उतनी रकम से किसी भी परिवार के जीवन में कोई भी बुनियादी बदलाव नहीं आ सकता. इसे आर्थिक न्याय कहना नासमझी के अलावा कुछ नहीं हो सकता. जितनी सरकारों में इस तरह की योजनाएं चल रही हैं. यह सब दूरगामी रूप से राज्यों और राष्ट्र के लिए खतरनाक साबित होंगे.
लोकसभा चुनाव को पूर्ण हुए अभी 6 महीने भी पूरे नहीं हुए हैं. लोकसभा परिणाम से कांग्रेस के कुलदेवता का जोश इतना हाई हो गया था, कि मोदी सरकार के पतन की तारीख घोषित करने लगे थे. कांग्रेस ने 99 सीटें जीती थीं और प्रदर्शन ऐसा किया जा रहा था, कि जैसे देश को जीत लिया गया है. कांग्रेस की जीत भी सहयोगियों के कंधों पर टिकी हुई है. जब भी बीजेपी से सीधा मुकाबला होता है, कांग्रेस चित्त हो जाती है.
कांग्रेस के कुलदेवता अतिवादी राजनीति को बढ़ा रहे हैं. उनको ऐसा लगता है, कि वह जैसा सोच रहे हैं, वही सबसे सही है. कभी भी वह अपनी गलती स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते. कई बार तो ऐसा लगने लगता है, कि उनका सारा आचरण सुर्खियों के लिए होता है. ऐसा देखा गया है, कि हर सेक्टर में जो प्रसिद्ध होना चाहते हैं वह ऐसे अतिवादी और निरर्थक बातों पर आगे बढ़ने लगते हैं. जिसके दुष्परिणाम अंतत उन्हें ही भुगतने होते हैं.
राहुल गांधी भी ऐसी ही सियासत कर रहे हैं. विदेश में जाकर भारत के लोकतंत्र के खिलाफ बुद्धि विलास प्रदर्शित करने में कभी कोई कमी नहीं छोड़ते. इस बार तो उन्होंने आरक्षण खत्म करने तक की बात विदेशी धरती पर कह दी. ख़ालिस्तान समर्थकों के साथ उनकी उपस्थिति भी भारत में खासी चर्चा में रही.
एक दौर था, जब ख़ालिस्तान समर्थन के लिए भिंडरावाले की पॉलिटिक्स चल रही थी. राहुल गांधी की दादी ने भी भिंडरावाले को उनके अंजाम तक पहुंचाया. भिंडरावाले सियासत में नहीं थे, लेकिन उनके आसपास सियासत थी. सियासत में भिंडरावाले जैसी शैली सुर्ख़ियों तक तो ठीक है, लेकिन इसका कोई भी परिणाम ना तो कुलदेवता को मिलेगा और ना ही कांग्रेस कुल को मिलेगा.
कांग्रेस को अपनी विचारधारा पर पुनर्विचार करना होगा. समाज में विभाजन पर टिकी सियासत लंबी नहीं चल सकती. जातिवाद का ज़हर फिर से फैलाया जा रहा है, जातिगत जनगणना के नाम पर कांग्रेस के कुलदेवता जातिवाद के पुरोधा बनने की कोशिश कर रहे हैं, जो कांग्रेस को रसातल में पहुंचाने के लिए पर्याप्त होगी.
खेत-खलिहान, स्टेशन, रेस्टोरेंट और सड़क पर चाय पीने से फोटो अपॉर्चुनिटी तो मिल सकती है, लेकिन इससे देश की सियासत में कुलदेवता कोई बदलाव नहीं ला सकते. पहले तो राहुल गांधी को खुद भारत को समझना होगा, भारतीयता को समझना होगा, फिर सियासत का कुलदेवता बनने का सपना देखना चाहिए. अभी तो कांग्रेस के कुलदेवता हास्य कवियों के कुलदेवता बने हुए हैं.
कांग्रेस की हरियाणा की हार देश को बचाने के लिए है. बीजेपी को तो उसका लाभ मिल गया है. देश ऐसा चाहता था, कि उसे जातियों में ना बांटा जाए. सामाजिक न्याय के नाम पर देश के प्रगतिशील तत्वों को नकारात्मक रूप से नहीं रखा जाए. कांग्रेस अगर राजनीति में अपना रुतबा वापस चाहती है, तो फिर उसे जहां भी शासन का मौका मिला है वहां गुड गवर्नेंस का मॉडल पेश करें. जैसे ही कहीं सत्ता का मौका मिलता है वहां बंदरबांट चालू हो जाती है.
ईगो की टकराहट कांग्रेस की बेसिक समस्या है. सत्ता बंटवारे में यह समस्या सामने आती ही है. लोकसभा चुनाव परिणाम से कांग्रेस इतनी उत्साहित हो गई, कि उसे लग रहा था भारत ने राहुल गांधी की इस सियासत को मंजूरी दे दी है, जबकि लोकसभा की जीत भी कांग्रेस की जीत नहीं है. सहयोगियों के कंधों पर परस्थितिजन्य कारणों से कांग्रेस को लाभ मिल गया. कांग्रेस का लोकसभा परिणाम पर विश्लेषण भी सत्य पर आधारित नहीं था. इसीलिए हरियाणा के नतीजों ने कांग्रेस को मूर्छा में डाल दिया है.
मलाई खाने और सामाजिक न्याय की लड़ाई दिखाने का मॉडल अब भारत में शायद ही चल सकेगा. कांग्रेस को यह देखना होगा, कि उसका मुकाबला पीएम नरेंद्र मोदी से है. सियासी जीत-हार मोदी को भी झेलनी पड़ती है, लेकिन इसके बावजूद जन स्वीकार्यता और विश्वसनीयता के मामले में मोदी का दूर-दूर तक कोई मुकाबला करने की स्थिति में नहीं दिखाई पड़ता.
मोदी मैजिक गुब्बारे में हवा भरकर नहीं स्थापित की गई है. बल्कि ज़मीनी हकीकत पर खड़ी है. सियासी हार-जीत का गणित जीवन के गणित से अलग नहीं है, जो जीवन की कठोर सच्चाइयों में तपकर निकलेगा, वही सियासत की तपस्या में भी खरा निकलेगा. परिवार के कारण कुलदेवता का पद मिल जाने से कोई देश का कुलदेवता बनने का सपना देखे तो मुंगेरीलाल के सपनों की कहावत नए सिरे से गढ़नी पड़ेगी. अपनी खामियां देखने वाला दूसरों के विश्लेषण का हक़ रखता है.