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लैंगिक समानता और हरियाणा 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 17 Nov

सार

इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस राज्य को लगभग एक दशक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रमुख रूप से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना शुरू करने के लिये चुना, वहां जन्म के समय लिंग अनुपात में फिर गिरावट दर्ज की गई है, लंबे समय से लिंग असंतुलन से जूझ रहे इस राज्य को एक बार फिर चिंताजनक स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, ऐसे समय में जब इस साल के सिर्फ दो महीने की बाकी हैं, स्थिति में अधिक बदलाव की उम्मीद करना बेमानी  ही होगा..!!

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विस्तार

लिंग अनुपात असंतुलन हरियाणा राज्य के लिये असहज करने वाली स्थिति पूर्व की भाँति ही है। कालांतर सरकार के प्रयासों व जन जागरूकता के चलते स्थिति में कुछ सुधार आया था, एक बार फिर परेशान करने वाली हकीकत सामने आई है। वर्ष 2023 की तुलना में इस साल के दस महीनों की अवधि यानी जनवरी से अक्तूबर के बीच जन्म के समय लिंग अनुपात में ग्यारह अंकों की गिरावट दर्ज की गई है। 

इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस राज्य को लगभग एक दशक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रमुख रूप से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना शुरू करने के लिये चुना, वहां जन्म के समय लिंग अनुपात में फिर गिरावट दर्ज की गई है। लंबे समय से लिंग असंतुलन से जूझ रहे इस राज्य को एक बार फिर चिंताजनक स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे समय में जब इस साल के सिर्फ दो महीने की बाकी हैं, स्थिति में अधिक बदलाव की उम्मीद करना बेमानी  ही होगा। 

जैसे हालात हैं इतने कम समय में बड़ा बदलाव संभव नहीं है। तो इसे पिछले आठ वर्षों की सबसे बड़ी गिरावट के रूप में देखा जाएगा। उल्लेखनीय है कि हरियाणा में जन्म के समय का लिंगानुपात वर्ष 2015 में 876 से बढ़ने पर आशातीत परिवर्तन की शुरूआत हुई थी। इसी साल ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत भी की गई थी। कालांतर सरकारी प्रयास और जन भागीदारी से इस दिशा में आशातीत परिणाम सामने आए। जिसके चलते वर्ष 2019 में लिंगानुपात 923 के रिकॉर्ड उच्च स्तर तक जा पहुंचा था। हाल के वर्षों में इसमें फिर गिरावट देखी जा रही है। जो तंत्र को आत्ममंथन को बाध्य करती है कि इस गिरावट के तात्कालिक कारण क्या हो सकते हैं? सकारात्मक बदलाव सिर्फ सरकारी प्रयासों से ही संभव नहीं। इसके लिये समाज में व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना नितांत जरूरी हो गया है।

हरियाणा में लिंग अनुपात में आई गिरावट कहीं न कहीं सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में शिथिलता की ओर इशारा करती है। ऐसे कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिये जरूरी है कि बालिकाओं के जन्म को लेकर समाज में प्रगति की सोच विकसित की जाए। जिसका मकसद हो कि समाज में बालिकाओं के जन्म और अधिकारों को लेकर व्यावहारिक परिवर्तन लाया जाए। लोग बेटियों को लेकर किसी तरह की असुरक्षा महसूस न करें। मौजूदा स्थितियों को देखकत तो ऐसा लगता है कि हमारा तंत्र कन्या भ्रूण हत्या संकट खत्म करने के लक्ष्यों से अभी भी काफी दूर है। वहीं दूसरी ओर लिंग निर्धारण परीक्षणों में शामिल लोगों के खिलाफ दर्ज प्राथमिकियों की संख्या में इस साल आई चिंताजनक गिरावट कानून प्रवर्तन और स्वास्थ्य एजेंसियों की कार्यशैली पर एक सवालिया निशान भी है।

भ्रूण हत्या जैसे कृत्य करने वाले लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने से किसी भी स्तर पर चूक नहीं की जानी चाहिए। एक और बड़ी चुनौती समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलने की भी है। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि लिंगानुपात में विषमता उस राज्य के लिये शर्मिंदगी की ही बात है, जिसकी तमाम महिला खिलाड़ी, विशेष रूप से महिला पहलवान, महिला निशानेबाज और महिला मुक्केबाज अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में धूम मचा रही हैं। 

हाल ही में डबल इंजन सरकार को राज्य के लोगों ने लगातार तीसरी बार सकारात्मक परिवर्तन के लिये चुना है, उसका भी दायित्व बनता है कि तंत्र की कारगुजारियां समाज में बदलाव की वाहक बनें। इन हालात में हरियाणा को हमेशा लैंगिक समता के क्षेत्र में पिछड़ने के बजाय बेटियों का जश्न मनाने में अग्रणी रहना चाहिए। तभी हम एक ऐसे समाज की स्थापना करने में सक्षम हो सकते हैं जहां बेटे व बेटी में किसी भी स्तर का भेदभाव न हो। जन जागरण इसमें रचनात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकता है।