मध्यप्रदेश के सीधी जिले में मानवता को कलंकित करने वाली घृणित घटना के लिए अपराधी को जितना भी कठोरतम दंड दिया जाए वह कम ही होगा. कोई व्यक्ति सामान्य स्थिति में किसी भी व्यक्ति पर पेशाब करने का अमानवीय कृत्य नहीं कर सकता, जैसा वायरल वीडियो में दिखाया गया है. निश्चित रूप से ऐसा अपराधी विक्षिप्तता और घोर अहंकार के वशीभूत होकर ऐसा कर सकता है. जितना यह अपराध अकल्पनीय है इस पर हो रही सियासत भी उतनी ही अकल्पनीय है.
कांग्रेस तो अपना आदिवासी समर्थन बढ़ाने के लिए इस घृणित अपराध को सत्ता और आदिवासी समाज से जोड़कर लोकतंत्र को कलंकित करने से भी परहेज नहीं कर रही है. निश्चित रूप से यह अपराध घृणित है लेकिन इस पर सियासत इससे भी ज्यादा घृणित है. कमलनाथ और कांग्रेस को तो ऐसा लगने लगा है कि यह घृणित अपराध उनको सत्ता की चाबी के रूप में मिल गया है. कमलनाथ इस घटना पर जो बयान दे रहे हैं, उसमें एक एक शब्द सियासत के अलावा कुछ भी नहीं कहा जा सकता.
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अपने वीडियो में कह रहे हैं कि आज मेरा मन मध्यप्रदेश के आदिवासी भाई-बहनों के अपमान की घटनाओं से बहुत दुखी है. सीधी जिले में एक आदिवासी युवक के ऊपर भाजपा नेता के पेशाब करने का वीडियो देखकर रूह कांप जाती है. क्या सत्ता का नशा इस कदर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर चढ़ गया है कि वह इंसान को इंसान नहीं समझ रहे हैं? यह घटना आदिवासी अस्मिता पर प्रहार है.
उन्होंने घटना को मध्यप्रदेश के करोड़ों आदिवासी भाई बहनों का अपमान बताते हुए आदिवासी समाज पर हो रहे अत्याचारों को सरकारी संरक्षण बंद करने की चेतावनी दी है. उनका कहना है कि कांग्रेस पूरी तरह से आदिवासी समाज के साथ खड़ी है और उन्हें न्याय दिलाकर रहेगी. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भी इस घटना पर प्रतिक्रिया दी है.
वहीं भाजपा ने इस मामले पर जाँच समिति बना दी है लेकिन वह आरोपी को अपना कार्यकर्ता नहीं मान रही है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस घृणित घटना पर कांग्रेस और कमलनाथ क्या और कैसा न्याय चाहते हैं? सरकार की ओर से बताया गया है कि अपराधी को गिरफ्तार कर लिया गया है, उस पर एनएसए लगाया जा चुका है. अपराधी के घर पर बुलडोजर चला दिया गया है. इसके बाद इस शर्मनाक घटना पर निंदा और कानूनी रूप से दंड की कार्यवाही के अलावा सियासी बयानबाजी से क्या हासिल होगा?
आदिवासी समाज को वोट बैंक की राजनीति के रूप में ही देखा जाता रहा है. अब धीरे-धीरे आदिवासी समाज जागरूक और राजनीतिक रूप से सक्रिय होता जा रहा है. मध्यप्रदेश के आदिवासियों को अब दबाना और सताना किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं है. आदिवासी अंचलों में आदिवासी युवा राजनीति की कमान अपने हाथों में ले रहे हैं. इसके कारण राजनीति पर कब्जा जमाए हुए नेताओं के सामने अब अस्तित्व का संकट नज़र आने लगा है. आदिवासियों के नाम पर नेताओं ने बहुत लंबे समय तक सत्ता की मलाई खाई है. आदिवासियों को अब इस तरह के घृणित और अनर्गल मुद्दों में भरमा कर उनके राजनीतिक और आर्थिक हितों को अँधेरे में नहीं रखा जा सकता है.
यह घटना एक अपराध है. मानवता को कलंकित करने वाला अपराध है. इससे मध्यप्रदेश बदनाम हुआ है. अपराधी किसी राजनीतिक दल या नेता से जुड़ा हुआ है तो भी सामान्य स्थिति का व्यक्ति ऐसा कृत्य नहीं कर सकता. ऐसे अपराधी को विक्षिप्त ही कहा जाएगा. किसी विक्षिप्त अपराधी के कृत्य को सियासत के हथियार के रूप में उपयोग करने की प्रवृत्ति लोकतंत्र में कैसे स्वीकार की जा सकती है?
इस घटना के पहले आदिवासियों पर अत्याचार के विरोध में कांग्रेस कितने आंदोलन खड़ी कर सकी है? अगर यह घटना नहीं होती तो क्या आदिवासियों का सम्मान हो रहा था? कांग्रेस को क्या इस घटना के पहले आदिवासियों का अपमान दिखाई नहीं पड़ रहा था? इस अमानवीय कृत्य पर पूरा मध्यप्रदेश आक्रोशित है. मध्यप्रदेश को बदनाम करने वाली इस घटना पर सियासत का जो खेल खेला जा रहा है, वह भी लोकतंत्र पर पेशाब करने जैसा ही है.
सियासत आज इस दौर में पहुंच गई है कि कांग्रेस जैसी महान पार्टी के नेता पेशाब करने की अमानवीय और अपराधिक घटना पर सियासी बयान और ट्वीट कर रहे हैं. मीडिया ऐसे मामले को महिमामंडित करके प्रचारित कर रही है. घृणित अपराधी के नाम और फोटो मीडिया में प्रकाशित और प्रसारित किए जा रहे हैं. ऐसी घटनाओं को प्रचार माध्यमों को भी प्रचारित प्रसारित करने से बचना चाहिए. इससे समाज में कोई सकारात्मक संदेश नहीं जा रहा है. घटना की सूचना के रूप में इसको महत्व मिलना चाहिए. इसको बहुत अधिक महत्व देना सही नहीं कहा जा सकता.
आदिवासी समाज के नाम पर ही मध्यप्रदेश की राजनीति होती रही है. मध्यप्रदेश में आदिवासी परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ ही रहे हैं. मध्यप्रदेश में कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रही लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में किसी भी आदिवासी को मौका देकर आदिवासियों को सम्मान देने के बारे में सोचा तक नहीं गया. प्रदेश का राजनीतिक इतिहास इस बात का गवाह है कि आदिवासी जनप्रतिनिधियों को हमेशा पीछे धकेला गया है. किसी भी जाति या धर्म के नाम पर सियासी लाभ-हानि का जोड़ तोड़ लोकतंत्र को अपूरणीय क्षति पहुंचा रहा है. लोकतंत्र में गिरावट के जो दृश्य दिखाई पड़ रहे हैं उसके पीछे ऐसे ही सियासी सोच और अप्रोच जिम्मेदार है.
सियासत किसी भी मुद्दे पर विभाजित कर वोट बैंक की राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं समझती. सियासत ना तो ईमान जानती है ना भावना का सम्मान करती है. सियासत तो सत्ता पर ही टिकी रहती है. पूर्वोत्तर में मणिपुर के हालात सियासत की आंख खोलने वाले हैं. वहां आदिवासी समुदाय को ही जातियों में बांट कर एक दूसरे के खिलाफ होने के पीछे सियासत ही जिम्मेदार है.
मध्यप्रदेश में चुनाव हो जाएंगे. जिनको जनादेश मिलेगा उनकी सरकार बन जाएगी. सरकार बनाने के लिए राज्य में कम से कम ऐसे काम नहीं करें कि समाज में विभाजन हो जाए. अपराध को जाति और समुदाय के नजरिए से देखना विभाजनकारी मानसिकता ही कही जाएगी. कमलनाथ जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता से इस तरह के मुद्दों को सियासत में उपयोग करने की अपेक्षा नहीं थी. सत्ता का नशा सबसे नशीला होता है लेकिन कोई भी रास्ता अंततः मरघट ही पहुंचता है.