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हे ! कौव्वे तेरी ख़ैर नहीं 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 12 Sep

सार

विदेश से मिली खबरों के अनुसार केन्या के वन्यजीव प्राधिकरण ने देश के तटीय शहरों मोम्बासा, मालिंदी, वाटमू और किलिफी में साल 2024 के अंत तक दस लाख घरेलू कौव्वों को खत्म करने की घोषणा की है..!!

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विस्तार

भारत जैसे धर्म परायण  देश में कौव्वों के दर्शन अब पितृपक्ष में भी दुर्लभ हो  सकते हैं। देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां अब कौव्वे आसानी से नहीं दिखते। जानकारों के मुताबिक, पहले भारत में घरों के आसपास बड़े आकार के पेड़ होते थे, जहां कौव्वे घोंसला बनाकर रहते थे। लेकिन शहरों में पेड़ कम हुए हैं व कौव्वों के प्राकृतिक आवास का संकट हो गया है।

विदेश से मिली खबरों के अनुसार केन्या के वन्यजीव प्राधिकरण ने देश के तटीय शहरों मोम्बासा, मालिंदी, वाटमू और किलिफी में साल 2024 के अंत तक दस लाख घरेलू कौव्वों को खत्म करने की घोषणा की है। यह घोषणा एक बैठक में की गई, जिसमें होटल उद्योग के प्रतिनिधि, कौव्वा नियंत्रण विशेषज्ञ चिकित्सक और दूसरे हितधारकों की मौजूदगी थी। एक साथ इतने कौव्वों को मारे जाने की यह घोषणा वन्यजीव प्रेमियों व आम लोगों को भी ग्लानिबोध कराने वाली है। स्थानीय वन्यजीव कार्यकर्ताओं समेत पूरी दुनिया के पक्षी प्रेमी भी इसका विरोध कर रहे हैं।

केन्या के वन्यजीव प्राधिकरण का कहना है कि विदेशी मूल का पक्षी कौव्वा देश के तटीय शहरों के होटल उद्योग के लिए संकट है। केन्या में इन कौव्वों की वजह से पर्यटक खुले मैं बैठकर भोजन का आनंद नहीं ले पाते। केन्या वन्यजीव सेवा (केडब्ल्यूएस) के मुताबिक़ कौव्वे को खत्म करने का कार्यक्रम सार्वजनिक हित को देखते हुए बनाया गया है। केन्या के वन्यजीव विभाग का कहना है कि कौव्वा उनके प्राथमिक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा नहीं है व स्थानीय पक्षियों की आबादी को काफी प्रभावित कर रहे हैं। गौरतलब है कि केन्या में कौव्वे 18वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप से ले जाए गये थे।

कौव्वों पर अकेले केन्या में ही कहर नहीं टूट रहा, ये भारत में भी ये संख्या में कम हो रहे हैं। यहां वे पारिस्थितिकी के साथ माइथोलॉजी का भी हिस्सा हैं, यहां तक कि कौव्वों के दर्शन पितृपक्ष में जरूरी हैं। देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां अब कौव्वे आसानी से नहीं दिखते। जानकारों के मुताबिक, पहले भारत में घरों के आसपास बड़े आकार के पेड़ होते थे, जहां कौव्वे घोंसला बनाकर रहते थे। लेकिन शहरों में पेड़ कम हुए हैं व कौव्वों के प्राकृतिक आवास का संकट हो गया है। कुछ लोगों का मानना है कि गौरैय्या की तरह कौव्वों पर भी मोबाइल टावर का नकारात्मक असर पड़ता है। कौव्वे कुछ ही फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन खेतों में कीटों और मेढ़क आदि का भी ये सफाया कर पैदावार बढ़ाने में भूमिका निभाते हैं। लेकिन कौव्वों से लोग सहानुभूति बहुत कम रखते हैं। कई धारणाएं बना रखी है। मसलन, कौव्वा कंधे पर बैठ जाए तो अपशकुन है।

कौव्वे दक्षिण अमेरिका और अंटार्टिका को छोड़कर दुनियाभर में पाये जाते हैं और हालांकि इनकी अलग-अलग प्रजातियां हैं। चाहे गुलाबी चोंच और पाउडर ग्रे वाले कौव्वे हों या बेहद काले कलूटे, सभी में कई गुण एक जैसे होते हैं। ये घरेलू और सांसारिक होते हैं व इंसान के साथ रहना पसंद करते हैं। न्यू गिनी के इस ग्रे कौव्वे की मोटी गुलाबी चोंच और पाउडर ग्रे रंग के पंख होते हैं। इंडोनेशिया में बैंगनी व भारतीय महाद्वीप में काले और काले-ग्रे होते हैं।

कौव्वा बाकी पक्षियों से काफी हटकर प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है। जैसे कौव्वे अपने किसी साथी के मर जाने पर कांओ कांओं की आवाज करते हैं व इलाके के सैकड़े कौव्वे मृत कौव्वे के इर्दगिर्द इकट्ठा होते हैं, उसे चोंच मार-मारकर जगाने की कोशिशें करते हैं। कौव्वे अकसर आकस्मिक मौत या दुर्घटना का शिकार होते हैं, लेकिन अब यही कौव्वे केन्या में बड़ा संहार झेलेंगे।.