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हे ! किसान पुत्र, किसान दरिद्र हो चुका है  

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 22 Feb

सार

चुनावी नतीजों में किसानों का मोहभंग निश्चित रूप से झलकता है, सत्तासीन दल को न केवल किसानों के प्रति उपेक्षा और उदासीनता बल्कि उनके विरोध-प्रदर्शनों के समक्ष मनमानी और पुलिस दमन का भी परिणाम भुगतना पड़ा..!!

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विस्तार

नई सरकार में किसानी  ‘ किसान पुत्र’  के हाथों में हैं। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री रहते हुए शिवराज सिंह अपने को किसान पुत्र कहलाने में गौरव महसूस करते थे। उन्हें यह तो याद होगा कि पिछले 10 वर्षों में ग्रामीण मज़दूरी स्थिर है या घटती रही है, और खेती घाटे का सौदा बनी हुई है। ऐसे में चुनावी नतीजों में किसानों का मोहभंग निश्चित रूप से झलकता है। सत्तासीन दल को न केवल किसानों के प्रति उपेक्षा और उदासीनता बल्कि उनके विरोध-प्रदर्शनों के समक्ष मनमानी और पुलिस दमन का भी परिणाम भुगतना पड़ा। बताते हैं कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में किसानों के प्रभाव वाले कम से कम 38 संसदीय सीटें कांग्रेस के खाते में गई हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की दिक्कतों को स्वीकार किया, जब उन्होंने परिणाम के बाद भाजपा मुख्यालय में विजय भाषण में कहा : ‘हम बीजों की खरीद के स्तर से लेकर बाज़ारों में बिक्री के स्तर तक कृषि को आधुनिक बनाने के कार्य को प्राथमिकता देते रहेंगे। दालों से लेकर खाद्य तेलों तक, हम अपने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए लगातार काम करेंगे।’ लेकिन आगे बढ़ने से पहले, यह समझना ज़रूरी है कि कृषि संकट नाकाफी आधुनिकीकरण के कारण है या इसलिए है कि कृषि को जान-बूझकर दरिद्र रखा गया है। हम किसानों को गारंटीशुदा कीमत न देने के सवाल पर आंखें मूंदकर नहीं बैठ सकते, ताकि पहले आजीविका के गंभीर मुद्दों पर ध्यान दिया जा सके।

कई विशेषज्ञ कहेंगे कि इसका समाधान फसल विविधीकरण में है, परंतु जो बात बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर दी जाती है वो यह कि विविधीकरण के लिए पहली जरूरत है यह यकीनी बनाना कि मुहैया कराये जा रहे विकल्पों से होने वाली शुद्ध प्राप्ति किसानों को गेहूं और धान फसल चक्र से होने वाली कमाई से कम न हो। हालांकि किसानों को गेहूं और धान पर एमएसपी मिलता है, लेकिन यह अपेक्षित लागत और लाभप्रदता के अनुरूप नहीं होता है। किसी भी हालत में पहला कदम तो स्वामीनाथन कमीशन के फॉमूले के अनुसार कीमत गारंटी यकीनी बनाना होना चाहिये।इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सघन खेती की पद्धतियों के चलते कृषि कार्यों में स्थिरता का संकट है, लेकिन दशकों से कृषि आय में उतरोतर तीव्र गिरावट ने खेती को अलाभकारी बना दिया है। यह बात बड़े ही आराम से छुपा दी जाती है। 

किसी भी गांव में चले जाइये, आपको किस्से सुनने को मिलेंगे कि विदेश के सपनों को पूरा करने के लिए जमीन बेची जा रही है। खेती से ज्यादा कुछ नहीं प्राप्त हो रहा, और शहरों में जॉब के अवसर सीमित होने के चलते किसानों के पास जमीन बेचकर अपने बच्चों को विदेश भेजने के अलावा विकल्प कम ही बचता है। यहां तक कि बच्चों को विदेश भेजने का क्रेज अनुसूचित जाति के परिवारों में भी बढ़ रहा है, जिनमें से कई ने तो बच्चों को बाहर भेजने के लिए भारी-भरकम कर्ज भी लिया है। गये हैं।’

जगह-जगह दिखाई दे रहे ‘आइल्ट्स कोर्सेज’ के साइन-बोर्ड, और युवाओं को झटपट वीसा व रोजगार दिलाने को लेकर लुभाते बिलबोर्ड्स एक चिंताजनक प्रवृत्ति है। विदेश में रोजगार की ललक यहां तक है कि एक राज्य से बड़ी तादाद में उम्मीदवार युद्ध ग्रस्त इस्राइल में कम वेतन वाली नौकरियों के लिए पहुंचे, बावजूद इस जानकारी के कि वहां उनकी जान का खतरा है। यहां तक कि जान जोखिम में डालने वाली नौकरियों के लिए भी बेताबी साफ नजर आती है। निश्चित तौर पर कोई असहमत हो सकता है परंतु यह परेशान करने वाला प्रवास का रुझान पलट सकता था यदि कृषि आर्थिक तौर पर व्यवहार्य और लाभकारी उद्यम के रूप में उभर जाती। 

कई फसलें ऐसी है जो किसान लागत पूरी करने में असमर्थ हैं, परंतु अन्य विभिन्न उदाहरणों पर नजर डालने से पूर्व, एक उदाहरण दे दूं कि खेती कितनी गैर-फायदेमंद हो चुकी है। सीसीएस हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के डॉ. विनय मेहला का अध्ययन इस बारे में आंखें खोलने वाला है। यह स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि कृषि लगातार एक पतली डोर से अनिश्चित रूप से लटकी हुई है। यह सर्वविदित था कि कृषि आय पिरामिड के निचले स्तर पर है, लेकिन यह अध्ययन चौंकाने वाला है। इसके अनुसार, छोटे किसानों पर हर साल औसतन 1.31 लाख रुपये का कर्ज होता है।

एनडीए की नयी गठबंधन सरकार को खेती-किसानी के मोर्चे पर जारी गड़बड़ी पर नये सिरे से विचार करना चाहिये। अब 75 से भी अधिक वर्षों में विभिन्न उपायों से कृषि उत्पादन बढ़ा है, लेकिन कृषि संकट गहराता जा रहा है। साल 2047 तक विकसित भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए खेती को लाभदायक व आर्थिक तौर पर व्यवहार्य बनाना जरूरी है।