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हाई कोर्ट के विचार, सरकार की सीआर

सार

मध्य प्रदेश के फॉरेस्ट ऑफीसर उनकी सीआर, आईएएस अफसरों द्वारा लिखे जाने के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ रहे हैं. प्रदेश की जनता जंगलों की अवैध कटाई के खिलाफ़ हाईकोर्ट में केस लड़ रही है. मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की लार्जर बेंच ने फॉरेस्ट अफसर और सरकार की वास्तविक सीआर लिख दी है..!!

janmat

विस्तार

    चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली बेंच ने अपने फैसले में कहा, कि जिस तरह फिल्म पुष्पा में तस्करों और व्यापारियों का सिंडिकेट इतना दबदबा बनाने लगता है, कि पुलिस वन विभाग और अंततः विधायक तक शासन का कोई भी हिस्साअछूता नहीं रह जाता. यह दर्शाता है, कि कैसे अवैध लकड़ी का व्यापार करने वाले राक्षस माफिया घने जंगलों में घुस जाते हैं और राज्य मशीनरी के साथ मिली-भगत करके जंगल की प्राकृतिक संपदा को लूट सकते हैं. कार्यपालिका वन उपज विक्रेताओं के ऐसे सिंडिकेट के प्रभाव और दबदबे के आगे झुक जाती है. मध्य प्रदेश में भी यही स्थिति है. 

    हाई कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 24 सितंबर 2019 को जारी उस नोटिफिकेशन को निरस्त कर दिया है, जिसमें 53 प्रकार के पेड़ों की प्रजातियों की कटाई और परिवहन को अनुमति के दायरे से बाहर कर दिया गया था. हाई कोर्ट ने जंगलों को लेकर इतनी सख्त और कठोर टिप्पणी इसके पहले शायद कभी नहीं की होगी. इसकी गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है, कि पिटीशन में उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर हाईकोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा. वैसे सरकारें पिटीशन के रिप्लाई में तो ऐसा कोई दस्तावेज हाई कोर्ट को नहीं देती, जिनके आधार पर अदालत यह निष्कर्ष निकाल सके, कि राज्य में वास्तविक हालात क्या बने हुए हैं. कागजों को देखकर अवैध कटाई को लेकर हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी यह दर्शाती है, कि ज़मीन पर हालात इससे भी भयानक हैं.

    भारत के हृदय प्रदेश मध्य प्रदेश के जंगल केवल राज्य के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए लंग्स का काम करते हैं. पिछले वर्षों में जंगलों के प्रबंधन में माफिया और सियासी घुसपैठ इतनी बढ़ी है, कि अब हालात बद् से बद्तर होते जा रहे हैं. 

    सियासी सरकारें चुनाव जीतने को अपना सीआर मान लेती हैं. जंगलों में वन भूमि के पट्टे के नाम पर कानून का खुला दुरुपयोग होता है. सियासी ताकतें जंगलों में लोगों को जबरन कब्जा करवाती हैं, फिर पट्टे देने की राजनीति शुरू होती है. पूरा पर्यावरण प्रभावित हो रहा है. जलवायु परिवर्तन का संकट हमारे सामने है. जैव-विविधता के सामने ख़तरा बना हुआ है. वन्य प्राणियों की बसाहट पर कब्जे हो रहे हैं. मानव बसाहटों में वन्य प्राणियों के आने की घटनाएं इसके ही उदाहरण हैं.

    2019 में जब 53 पेड़ों की प्रजातियां को कटाई और परिवहन की अनुमति के दायरे से बाहर किया गया था, तब मध्य प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी. उस समय के वन मंत्री पार्टी के भीतर ही वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह से राजनीतिक युद्ध लड़ रहे थे. जिस आदेश के खिलाफ़ हाईकोर्ट ने इतनी सख्त टिप्पणी की है, जिस नोटिफिकेशन ने राज्य के जंगलों को इतना बड़ा नुकसान किया है, कि हाई कोर्ट को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा है, कि मध्य प्रदेश में पुष्पा फिल्म जैसा विधायक तस्कर और अफसर का माफिया अवैध कटाई में लगा हुआ है. जिन सरकारों ने, जिन नेताओं ने, जिन मुख्यमंत्री ने और जिन मंत्री ने ऐसा नोटिफिकेशन अनुमोदित किया था, उनके खिलाफ़ भी सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए. 

    वन विभाग पर पार्टियों का राजनीतिक साया हमेशा से बना हुआ था. इस विभाग का नेतृत्व अधिकांश समय जनजाति समाज के व्यक्ति को दिया गया. इसके पीछे तर्क यह बताया गया, कि जनजाति समाज जंगलों का वफादार और हकदार है. वन मंत्रियों का इतिहास अगर देखा जाएगा, तो छाया की तरह माफिया का साया दिखाई पड़ेगा. कुछ मंत्री रहे हैं जो वर्तमान में राजनीति में सक्रिय हैं. उनका व्यक्तित्व और इमेज वन विभाग की दुर्दशा की कहानी कह रहा है. वन विभाग सियासत के लिए धन विभाग बन गया है.

    हर बात पर सियासत खेलने वाले हाईकोर्ट के कमेंट पर चुप्पी साधे हुए हैं. ना नोटिफिकेशन जारी करने वाली सरकार के नेता कमलनाथ कुछ बोल रहे हैं, ना उस समय के मंत्री कुछ बोल रहे हैं. दूसरों को भ्रष्ट बताने के सिद्ध हस्त लोग अपने करप्शन पर चुप हो जाते हैं. यही हाल सरकार की तरफ से भी है. सरकार भी जंगलों की हत्या करने वाले नोटिफिकेशन जारी करने के लिए जिम्मेदार नेताओं और अफसर के खिलाफ़ ना तो कुछ बोल रही है और ना ही कुछ करते हुए दिखाई पड़ रही है. 

     दलाल तो वही हैं, माफिया भी वही हैं, सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माफिया और दलाल नहीं बदलते. दलालों का कोई दल नहीं होता. यही दलाल सरकार और विपक्ष के बीच गठबंधन के सूत्रधार बन जाते हैं. 

    राज्य में आईएफएस और आईएएस अफसर सीआर को लेकर भिड़े हुए हैं. राज्य सरकार ने 29 जून 2024 को एक आदेश जारी कर आईएएस अधिकारियों की सीआर के लिए वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन रिपोर्ट के लिए आईएएस अधिकारियों को अधिकृत कर दिया है. इसके खिलाफ़ आईएफएस संगठन लगातार संघर्ष कर रहा है. वर्तमान मुख्यमंत्री मोहन यादव को भी संगठन ने आदेश निरस्त करने के लिए अभ्यावेदन दिया है.

    हाई कोर्ट ने जो कमेंट किया है, उसके बाद फॉरेस्ट अफसर की सीआर की जमीनी हकीकत उजागर हो गई है. जनता तो हमेशा से ऐसा ही मानती रही है, जैसा हाई कोर्ट ने कहा है, लेकिन जनता की कोई सुनवाई नहीं होती. हाई कोर्ट की टिप्पणी पर भी अगर सरकार सख्त नहीं हुई तो फिर पूरे सिस्टम की जंगलों के लिए तो उपयोगिता समाप्त हो जाएगी.