अंग्रेजी तिथि के नए साल में हम प्रवेश कर रहे हैं. नया साल भी अलग-अलग है. हर संस्कृति अपना नया साल मनाती है. भारतीय संस्कृति गुड़ी पड़वा से नया नववर्ष मानती है. आधुनिकता अंग्रेजी नया साल मनाती है. वैसे तो हर दिन, हर क्षण नया होता है. चित्त नया होगा तो पुरानी चीज भी नई हो जायेंगी. सियासत का पुराना चित्त, पुरानी लड़ाई ही लड़ेगा, साल दर साल सियासी मैदान में इतिहास और वर्तमान की टकराहट बढ़ती ही जाएगी..!!
बढ़ती सियासी कटुता पर चिंता तो अक्सर व्यक्त की जाती है, लेकिन उन कारणों को ना चिन्हित किया जाता ही, ना उनको दूर करने का प्रयास किया जाता है, जिससे कटुता और टकराहट को कम किया जा सके.
पिछला साल राष्ट्रीय चुनाव का साल था. इसलिए कटुता के सारे रिकॉर्ड टूट गए. कटुता ऐसी कि,संसद में ही संवाद संभव नहीं हो पा रहा है. सांसद ही सांसद को घायल कर रहे हैं. देश के विधान, संविधान को डराने का चुनावी अभियान बना लिया गया है.
राष्ट्रीय शोक में भी कटुता की राजनीति चरम पर है. एक तरफ इतिहास को पूजा जा रहा है, तो दूसरी तरफ पूजा के इतिहास को जानने से रोका जा रहा है.
इतिहास और इतिहास के नायकों के अपमान पर देश को ठप्प किया जा रहा है. वर्तमान की बेहतरी के लिए बदलाव का अंध-विरोध किया जा रहा है.
व्यवस्था और जीवन के लिए बनी सियासत जीवन की मर्यादाओं को ही नुकसान पहुंचा रही है. हर दिन, हर साल सुधार की कोशिश से ही जीवन है, तो बदलाव प्रकृति है. इतिहास पकड़ कर वर्तमान जिया नहीं जा सकता. इतिहास से सीख कर वर्तमान के अनुरूप बदलना होगा.
राजनीतिक कटुता के बढ़ते ज्वार के लिए , क्या राजनीतिक दलों के वैचारिक टकराव को ही कारण माना जाएगा. व्यवस्था की गलतियों के कारण, नीति निर्माताओं के गलत फैसलों के कारण, बहुमत की खोज के कारण अगर इतिहास को एक तरफ मोड़ा गया है तो फिर वर्तमान को सुधारने के लिए समानता पर काम तो करना ही होगा.
साल 2024 संविधान पर विवाद के वर्ष के रूप में याद किया जाएगा. लोकसभा चुनाव में संविधान का डर फैलाया गया. आरक्षण समाप्त कर दिया जाएगा, इस डर का राजनीतिक उपयोग किया गया. साल का अंत भी अंबेडकर के अपमान को लेकर खींचतान पर समाप्त हो रहा है. नए साल में भी यह जारी रहेगा.
धार्मिक, राजनीतिक और शिक्षा की समानता के पैमाने पर संविधान में विवाद है. राजनीतिक कटुता इन विवादों के कारण ही बढ़ती जा रही है. एक विचारधारा सेकुलर की बात करती है, लेकिन संविधान में एक धर्म विशेष के धार्मिक कानून के प्रावधानों को शामिल करती है.
संविधान में समान नागरिक संहिता की जब दूसरी विचारधारा बात करती है, तो यह डर फैलाया जाता है कि, धार्मिक मान्यता के कानून संविधान से हटा दिए जाएंगे. यह कटुता सियासत के स्तर पर तो है ही, अब धीरे-धीरे सामाजिक स्तर पर भी इसकी जड़ें गहरी होती जा रही हैं.
राजनीति में कटुता का आलम कोई एक कारण से नहीं बना है. आजादी के बाद लंबे समय तक एक विचार, शासन व्यवस्था चलाता था. इसलिए प्रताड़ना के बावजूद भी दूसरा विचार सहिष्णु बना हुआ था. राजनीतिक बदलाव के बाद दूसरा विचार सत्ता में आया तो फिर दोनों विचारों की टकराहट हर दिन नए-नए रूप में नए-नए परिणाम के साथ सामने आ रही है.
यह अलग बात है कि, शासन व्यवस्था चुनावी जनादेश से संचालित होगी लेकिन यदि इससे देश की व्यवस्था को सामंजस्य के साथ नहीं चलाया जा सका, तो फिर इससे नुकसान सियासत को नहीं बल्कि देश को होगा. आज जो राजनीतिक कटुता दुश्मनी के स्तर तक दिखाई पड़ रही है, उसमें अगले साल भी कमी होते हुए नहीं लगती.
हिंदुत्व और सेकुलर राजनीति का द्वंद तो अभी शुरू हुआ है. तुष्टिकरण की राजनीति संतुष्टीकरण तक पहुंच गई है. इमाम के साथ पुजारी और ग्रंथियां को भी हर महीने सम्मान निधि देने की आम आदमी पार्टी की घोषणा, सियासत में नए टकराव पैदा करेगी.
वर्ष 2024 जातिगत जनगणना का सियासी लाभ लेने का साल भी रहा है. अगले साल भी जातिवाद की कटुता कम होने की कोई उम्मीद नहीं है. मुफ्त खोरी की योजनाएं शासन व्यवस्था को खोखला कर रही हैं, इससे भी सियासी कटुता बढ़ रही है.
एक देश - एक चुनाव का विचार सियासी कटुता के कारण ही शायद अगले साल भी कोई आकार ना ले सके. धार्मिक और कानूनी समानता के बिना संविधान की समानता की परिकल्पना कैसे लागू हो सकती है? जब तक शिक्षा व्यवस्था में समानता नहीं होगी तब तक भेदभाव तो बना ही रहेगा.
अमीरों और गरीबों की शिक्षा अलग-अलग है. हर राज्य में अलग-अलग बोर्ड है. अलग-अलग पाठ्य पुस्तकें हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति सियासी कटुता के कारण पूरे देश में लागू नहीं हो पा रही है. सियासी कटुता का आलम यह है कि, आम लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाएं दलगत राज्य के अनुसार सभी राज्यों में क्रियान्वित नहीं हो पा रहीं.
राजनीति में हिंदू, मुस्लिम हितों की बात, सेकुलर और हिंदुत्व की राजनीति कटुता का बड़ा कारण बन रही है. इतिहास की गलतियों से धर्मस्थलों को तोड़ने और उनका स्वरूप बदलने की घटनाओं पर वर्तमान में सत्यता खोज की जंग बढ़ती जा रही है. प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट भी कटुता का माध्यम बन गया है. नए साल में इस पर सर्वोच्च न्यायालय से कोई दिशा निर्देश की उम्मीद की जा सकती है.
अब तो यह लगने लगा है कि, राजनीतिक कटुता दो दलों से ज्यादा इतिहास और वर्तमान के कामों की टकराहट बन गई है. सत्ता की वर्तमान विचारधारा जो कुछ भी नया करने की कोशिश करती है, उसका कट्टर विरोध इतिहास में सत्ता चलाने वाली विचारधारा का धर्म बन गया है.
सियासी वैचारिक टकराहट और कटुता का निदान निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं पड़ रहा है. आजादी के समय भारत का स्वरूप धार्मिक विभाजन के बाद बना. विभाजन के अणु, विभाजन के साथ खत्म नहीं हुए. सियासत उन अणुओं को एटम बम बनाकर बहुमत का बम बनाने में जुटी हुई है.
प्रतिक्रियावादी राजनीति पूरी व्यवस्था और समाज को सृजनात्मकता से दूर कर रही है. प्रतिक्रियावाद पोषित किया जा रहा है. कौन दोषी है और कौन निर्दोष, यह तो समझना ही मुश्किल हो गया है.
नया साल 2025 राजनीतिक कटुता कम कर पाएगा इसमें तो संदेह ही है. कटुता के कारण बढ़ते ही जा रहे हैं. सबसे पहले तो गलतियां माननी पड़ेगी. गलतियों को सुधारने के लिए सामूहिक प्रयास करना होंगे. सियासी गठबंधन को सामाजिक सरोकारों, राष्ट्र की प्रभुता एवं अखंडता से जोड़ना होगा.
सत्ता की सियासत मानवता से ऊपर नहीं हो सकती. जिससे मानवता पर संकट आए, उसको छोड़ना होगा. इतिहास और वर्तमान में संतुलन बनाना होगा. कटुता की राजनीति छोड़नी होगी, उन नीतियों को बदलना होगा, जिनके कारण समाज में समानता की धारणा खंडित होती है.
बहुमत के लिए विभाजन की सियासी सोच को व्यवस्था की सोच बनाने से बचना होगा. जो पहले हो चुका है, उसको धीरे-धीरे ही सुधारना पड़ेगा. महापुरुषों और प्रतीकों की राजनीति से किनारा करना होगा, जिससे कटुता बढ़ती है. वर्ष 2024 सियासी कटुता का सर्वोच्च काल कहा जाएगा तो नए साल में इसकी गति और प्रभाव में कमी ही सियासत की सफलता मानी जाएगी.