जब भी सरकार की सफलता को मानने का मन करने लगता है, तब ही कुछ ऐसा हो जाता है, कि चारों तरफ अंधेरा दिखने लगता है. कोई ऐसी ख़बर जो सरकार की ओर से सामने आना चाहिए, वह अगर चौथे स्तंभ से बाहर आती है, तो खुशी भी होती है, लेकिन ग़म इस बात का होता है, कि ना मालूम कितने समय से शिक्षा जैसा पवित्र काम भाड़े पर मिल-बांटकर बर्बादी की ओर धकेला जा रहा है..!!
जो शिक्षक हैं, वह तो सियासत कर रहे हैं. मंत्री महोदय के साथ खीर खा रहे हैं. शिक्षक की तनख्वाह तो ले ही रहे हैं. बेरोजगार दूसरे को थोड़े रुपए देकर अपनी ड्यूटी करा रहे हैं. ऐसी ख़बर को तो सरकार को पुरस्कृत करना चाहिए. क्योंकि सरकार का निगरानी तंत्र अगर सजग होता तो ऐसी घटनाएं सबसे पहले सरकार को पता चलनी चाहिए थीं. जिम्मेदार सो रहे हैं.
निगरानी तंत्र मिल-जुलकर काम कर रहा है. शिक्षक तो इलेक्शन एजेंट जैसी भूमिका निभा रहे हैं. नेताजी भी खुश, शिक्षक भी खुश और शिक्षककर्मी भी खुश क्योंकि उसे भी कुछ ना कुछ मिल ही रहा है. बर्बाद पीढ़ियां हो रही हैं. शिक्षा की गुणवत्ता बर्बाद हो रही है. सरकार के प्रयास और जनता का धन बर्बाद हो रहा है. सबसे बड़ा सवाल बर्बादी की चिंता किसे है? सबसे पहली ज़रूरत चुनाव में आबाद होने की है. उसके लिए जो भी मददगार बन सकता है, उसके सौ खून माफ हो सकते हैं.
ख़बरें भी सुविधा अनुसार ही सामने आती हैं, लेकिन कभी-कभी प्रकृति अपना काम करती है और सच सामने आ जाता है. स्कूलों मे शिक्षक अपने शिक्षककर्मी रखे हुए हैं. सरकारी तंत्र बेख़बर है. बेख़बर कहें या यह मान लिया जाए, कि मिल-जुलकर हो रहा है. जब स्कूलों में थंब इंप्रेशन अटेंडेंस सिस्टम लगाया गया है, तो फिर कैसे दूसरा शिक्षक किसी स्कूल में पढ़ा सकता है. इसका मतलब यह सिस्टम फर्जी है. किसी भी सरकार के लिए इससे ज्यादा गंभीर और महत्वपूर्ण ख़बर हो नहीं सकती.
शिक्षा पर हमले का मतलब है, कि हम खुद ही खुद का गला घोंट रहे हैं. ख़बर के सामने आने के बाद पांच शिक्षक और तीन जन शिक्षक सस्पेंड कर दिए गए हैं. या तो शासन तंत्र इन हालातों की गंभीरता नहीं समझ पा रहा है या हमेशा की तरह गंभीर से गंभीर मामलों में भी लीपा-पोती की जा रही है.
स्कूल शिक्षा विभाग का इतना बड़ा तंत्र है. शासन में इससे बड़ा कोई सरकारी तंत्र नहीं हो सकता. दावा तो यह किया जाता है, कि सारी व्यवस्था डिजिटल हो चुकी है. एक क्लिक पर सारी नब्ज़ देखी जा सकती है. इसके बावजूद ऐसे हालात कि शिक्षक सियासत कर रहे हैं और उनके भाड़े पर रखे हुए शिक्षककर्मी पढ़ा रहे हैं.
वैसे तो सरकारी तंत्र में कुछ भी संभव हो सकता है. आए दिन घटनाएं सामने आती हैं, जहां फर्जी अफसर बनकर लोगों को ठगा जाता है. गुजरात की राजधानी में एक डीप फेक जज पकड़ा गया. छत्तीसगढ़ में एक एसबीआई शाखा ने स्थानीय लोगों को कर्ज में फंसा दिया, जबकि वह शाखा फर्जी थी.
सरकारी तंत्र में फर्जी नियुक्ति आदेश से काम करने की शिकायत तो आती ही रहती है. भाड़े पर शिक्षा के मामले पहले भी उजागर होते रहे हैं. लेकिन फिर दब जाते हैं. शिक्षकों की सियासत में आवश्यकता और भागीदारी के कारण सभी मामले अंततः दबा दिए जाते हैं. जो भी निगरानी तंत्र काम करता है, वह सब बच निकलते हैं.
इस बार भाड़े पर शिक्षा के कुछ मामले प्रमाण सहित सामने आए हैं. इन्हें हांडी के एक चावल के रूप में देखना चाहिए. सरकार को पूरे प्रदेश में इस तरीके की विशेष तौर पर निगरानी करवानी चाहिए, जिससे सुनिश्चित हो सके, कि जो शिक्षक तैनात है वहीं शिक्षण का कार्य कर रहे हैं.
डिजिटल अरेस्ट आजकल बड़े अपराध के रूप में लोगों को ठग रहा है. शिक्षक कर्मी भी फिजिकल अरेस्ट के रूप में काम कर रहे हैं. डिजिटल अरेस्ट में तो एक पक्ष दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन शिक्षक कर्मी में तो दोनों पक्ष मूल शिक्षक और शिक्षककर्मी सामने हैं. कोई छुपा हुआ नहीं है. मूल शिक्षक को सियासत में भी सब सक्रिय देख रहे हैं.
यह भी देख रहे हैं, कि उसके बदले कौन पढ़ा रहा है. लेकिन सब चुप हैं. निगरानी के लिए जिम्मेदार लोगों को सब कुछ पता है. वह ना केवल आंखें मूंदें हुए हैं, बल्कि लेन-देन का कुछ हिस्सा भी प्राप्त कर रहे हों, तो कोई आश्चर्य नहीं हो सकता.
सरकार अगर इसे गंभीरता से नहीं लेती वरिष्ठ स्तर पर इसके लिए जिम्मेदारी तय नहीं होती, जिम्मेदार लोगों के खिलाफ़ कार्रवाई नहीं की जाती, तो फिर धीरे-धीरे सरकारें अपनी भूमिका कमजोर करती जाएंगी.
सरकारों में अकाउंटेबिलिटी नहीं होने का संकट बढ़ता जा रहा है. अजीब-अजीब घटनाएं हो जाती हैं, लेकिन किसी पर भी जवाबदारी तय नहीं होती. मध्य प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था शिक्षाकर्मी के बज्र बाण से पहले से ही घायल है. धीरे-धीरे शिक्षकों की भर्तियां भी हुई हैं. भर्तियों में घोटाले भी हुए हैं.
शिक्षक ही किसी सरकार की सबसे मजबूत कड़ी हैं, तो सबसे कमजोर कड़ी भी हैं. आज भी शिक्षकों की व्यवस्था विभिन्न रूपों में प्रदेश में काम कर रही है. भले ही शिक्षकों को नियमितता प्रदान कर दी गई हो, लेकिन अभी भी शिक्षक सरकारी शिक्षक के समान वेतन नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं. शिक्षा की बदहाली ठीक करने की बातें होती जरूर रहती हैं, लेकिन उसका कोई भी समाधान संभव नहीं हो पाता.
सरकारी शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता पर तो हमेशा सवाल उठते हैं. निजी शिक्षण संस्थान जहां दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हैं, वहीं सरकारी संस्थान पुराने ढ़र्रे पर ही चलते हैं. मध्य प्रदेश सरकार ने स्कूल शिक्षा में एक्सीलेंस के लिए भी बहुत सारे प्रयास किए हैं. लेकिन इसके कोई भी सार्थक परिणाम सामने नहीं आए. सीएम राइज़ स्कूल की कल्पना भी इसी उद्देश्य से की गई. इस पर बहुत संसाधन भी खर्च किए गए, लेकिन इसके परिणाम भी बहुत उत्साहजनक तो दिखाई नहीं पड़ रहे हैं.
शिक्षा और स्वास्थ्य समाज के लिए सबसे जरूरी क्षेत्र है. यही क्षेत्र सबसे ज्यादा बदहाली का भी शिकार है. सरकारें इनमें सुधार के प्रयास भी करती हैं. जनता का धन भी इसमें निवेश किया जाता है, लेकिन सब कुछ धीरे-धीरे मॉनीटरिंग के अभाव में बिगड़ जाता है.
जब उद्घाटन और लोकार्पण होते हैं, तब सरकारों में बहुत सुंदर उपलब्धियां बताई जाती हैं. लेकिन ज़मीन पर हक़ीक़त वक्त के साथ ही पता चलती है. एक तरफ नई शिक्षा नीति की बात होती है. शिक्षा की गुणवत्ता में क्रांति की बात होती है और दूसरी तरफ भाड़े के शिक्षककर्मी पर शिक्षा सिमट गई है.
मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली शिक्षा शिक्षकों को ही कर्तव्यहीन और अनैतिक बना रही है. शिक्षा में करप्शन को बढ़ाया जा रहा है. हालात यही बता रहे हैं, कि बातें ज्यादा हो रही हैं और काम कम हो रहा है. सरकारी दस्तावेज तो दावा ऐसा करते हैं, कि राज्य की स्कूल शिक्षा में स्कूल और लर्निंग मैनेजमेंट सिस्टम स्थापित किया गया है.
क्रिटिकल थिंकिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डिजाइन थिंकिंग, कोडिंग जैसे आधुनिक पाठ्यक्रमों को शिक्षा में शामिल किया गया है. इसके लिए जो टीचर बनाए गए हैं, अगर वह अपनी ड्यूटी भाड़े पर किसी और को दे रहे हैं, तो फिर सारे पाठ्यक्रम भाड़ा थिंकिंग पर ही सिमटकर रह जाएंगे. यह थिंकिंग मध्य प्रदेश के लिए क्रिटिकल है. इसको सरकार के क्रिटिकल केयर की जरूरत है. नई सरकार की इच्छाशक्ति की परीक्षा है. देखना है सरकार फेल होती है या पास.