सरकार ने इतना पुलिस बल लगा दिया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय में चिडिय़ा भी पर नहीं मार सकती थी, जन सैलाब इतना ज्यादा था कि काफी लोग नॉर्थ ब्लॉक परिसर में घुस गए थे..!
राजधानी दिल्ली से जो गम्भीर खबर सूत्र बता रहे हैं, यदि उसमें थोड़ी भी सत्यता है, तो सरकार का यह रवैया कहीं से भी उचित नहीं है। दिल्ली में एक लडक़ी के साथ गैंगरेप हुआ था, समाज इस घटना से आक्रोशित था। राजधानी की जनता ने प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर अपराधियों को सजा-ए-मौत देने की मांग के लिए कूच किया था। सरकार ने इतना पुलिस बल लगा दिया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय में चिडिय़ा भी पर नहीं मार सकती थी। जन सैलाब इतना ज्यादा था कि काफी लोग नॉर्थ ब्लॉक परिसर में घुस गए थे। पुलिस ने भीड़ पर भीषण ठंड में पानी की बौछारें मारी, आंसू गैस के गोले दागे और अंत में भयंकर लाठीचार्ज भी किया, लेकिन जनचेतना ऐसी कि बावजूद इसके भीड़ टस से मस नहीं हो रही थी।
पुलिस की इस नाकामी पर गृहमंत्री ने पुलिस के आला अफसरों की अर्जेन्ट बैठक बुलाई और कहा -‘आप लोग कानून और व्यवस्था बनाने में नाकाम रहे। क्या पुलिस जनता का मुंह देखने के लिए होती है? कल प्रधानमंत्री को कुछ हो जाता तो मैं क्या जवाब देता?’ एक पुलिस अधिकारी हिम्मत करके बोला-‘सर, हमने भरसक प्रयत्न किया कि भीड़ तितर-बितर हो जाये, लेकिन कॉज ऐसा था कि जन आक्रोश थामे नहीं थम रहा था। फिर भी हमने अपनी पूरी क्षमता से भीड़ को रोकने का पूरा प्रयास किया।लोकतंत्र में अरेस्ट भी कितने लोगों को किया जाता? वहां तो हर नौजवान गिरफ्तारी के लिए तैयार था।’ मंत्री जी दहाड़े ‘तुम मुझे समझा रहे हो। इतना दुस्साहस कि मेरे सामने बोलो। चौबीसों घण्टे पुलिस सुस्ताती है और मुफ्त में पेट भरती है और काम के वक्त पीठ दिखाकर पथराव से डरकर भाग लेती है। क्या यही पुलिस नौकरी है? तुम्हें और सख्ती से पेश आना चाहिए था। ऐसे तो देश का कानून और व्यवस्था से विश्वास उठ जाएगा। दूसरे आला अफसर ने कहा-‘वह क्या था सर, इतने बड़े मोब में हम और क्या कर सकते थे?’ गृहमंत्री लाल-पीले हो गए, बोले -‘यह मैं बताऊंगा कि आप क्या करें? पुलिस बलों से काम लेना ऑफिसर्स की ड्यूटी है। मेरे पास अकेली राजधानी नहीं, पूरे देश का लॉ एंड ऑर्डर है। मुझे हजार काम देखने होते हैं।मैं तुमसे पूछता हूं, तुमने गोली क्यों नहीं चलाई?’ ‘सर, यह आप क्या कह रहे हैं, निर्दोष जनता पर गोली चलाने का कोई कारण भी तो पैदा हो। रैली का प्रदर्शन था और रेप पीडि़ता के लिए न्याय की मांग थी, इसमें गोली चलाकर व्यर्थ में दस-बीस लोगों की जान क्यों लेनी थी?
सूत्रों से आया यह विवरण और घटनाक्रम के बाद की बैठक की बात सही है, तो प्रश्न सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही का है। शायद बेटी बचाओ का नारा उन लोगों के मुंह से अच्छा नहीं लगता जो जानते-बूझते और सोच-समझकर राजनीतिक लाभ के लिए सजायाफ्ता बलात्कारियों को मुक्त करते हैं। बेटी बचाओ तब भी एक जुमला ही दिखता है जब खेल के क्षेत्र में देश का नाम रोशन करने वाली हमारी राष्ट्रीय नायिकाओं को शोषण करने वाले भाजपा सांसद के खिलाफ कार्यवाही की मांग को लेकर धरने पर बैठना पड़ता है।इस सांसद के खिलाफ भाजपा कोई कदम उठाने से शायद इसलिए कतरा रही है क्योंकि इसे पूरे मामले में राजनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद दिखती है। शायद यही कारण है कि वह खिलाड़ियों की तरफ से आंखें मूंदे हुए है, और एक तरह से बेटियों के शोषण को बढ़ावा ही दे रही है। फिर भी यह बेटी बचाओ का नारा लगाती है, लेकिन अदालत में इस बात पर चुप रहती है कि आखिर उसने बलात्कारियों को क्यों रिहा कर दिया? जाहिर है, यह ईमानदारी से अपना असली चेहरा दिखाने में करता रही है।
कितने लोकतांत्रिक देश होंगे जहां यह राजनीतिक लफ्फाजी देश की वास्तविकता से अलग है? कोई वास्तव में इसके बारे में सोच भी नहीं सकता है। बेशक पाखंड और झूठ सभी राजनीतिक गतिविधियों का हिस्सा हैं और यही कारण है कि बहुत से लोग खुद को इससे दूर ही रखते हैं। इस स्तर की झूठी धर्मपरायणता और पुण्य का लाभ सभी को नजर आ रहा है। इस मामले में हम अकेले ही ऐसे देश हैं शायद। इसीलिए हमें इसके बारे में भी बात करनी होगी।