गुजरात में जीत का मंत्र देने पहुंचे राहुल गांधी उल्टा मंत्र पढ़कर आ गए. कार्यकर्ताओं को बब्बर शेर और रेस में बारात के घोड़े से तुलना कर गए. यह भी कह गए कि यह सब चेन से बंधे हैं. बड़ी साफगोई से राहुल गांधी ने कहा कि पार्टी के आधे कार्यकर्ता जनता से डिस्कनेक्ट हैं और बीजेपी से मिले हुए हैं..!!
पार्टी को एकजुट करने का उनका फार्मूला बी टीम को बाहर करने से शुरू हो रहा है. कांग्रेस में कोई निर्गुट होता ही नहीं है. गुटों का समूह ही कांग्रेस होती है. वर्चस्व की जंग में गुजरात की कांग्रेस एक-दूसरे को बी टीम साबित करने में जुट जाएंगे. प्रत्याशी चयन और टिकट वितरण तक यह युद्ध चलता रहेगा. कुछ कार्यकर्ता बी टीम के नाम पर पीसे जाएंगे, लेकिन जीत के इस उल्टे मंत्र से ए और बी टीम सबको बी टीम साबित कर देंगे.
यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, कि कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने के लिए कांग्रेस में ना कोई प्रतीक है और ना ही नेतृत्व है. प्रतीकों में पशुओं का ही हिस्सा आया है. जिस नेता को यह समझ आ गया कि बब्बर शेर कौन है और बारात का घोड़ा कौन है, उसे स्वयं के बारे में तो समझ हर हालत में होगी. वैसे तो बारात में दूल्हा घोड़ी पर चढ़ता है. कहने में भले घोड़ा आता हो, लेकिन बारात में घोड़ा नहीं घोड़ी होती है.
घोड़ा तो केवल रेस में ही होता है. बब्बर शेर को भी अपने बाड़े में रखने की क्षमता कांग्रेस की ही हो सकती है. जब प्रतीकों में पशु ही दिखाई पड़ रहे हैं तो फिर शेर और घोड़ा ही क्यों, अगर गौर से देखेंगे तो कुत्ते, सूअर और गधे भी दिखाई पड़ेंगे. खच्चरों की भी कोई कमी नहीं है. नेता की सवारी शेर नहीं ढोता. इसके लिए तो खच्चरों की ही जरूरत होती है. इसी लिए खच्चरों और गधों की डिमांड शायद सबसे ज्यादा सियासत में ही है. सियासत की कुकुरक्रीड़ा देखकर तो कुत्ते भी शर्मिंदा होते होंगे.
प्रतीकों में ही कार्यकर्ताओं की निष्ठा और बल को अगर तोला जा रहा है, तो फिर कम से कम पशुओं में सामाजिक न्याय किया जाना चाहिए. कम से कम इसमें तुष्टीकरण नहीं होना चाहिए. कि कुछ चुने हुए पशुओं को तुलना का मौका दिया जाएगा. पशुओं में जातिवाद नहीं होता तो, जातिवाद की राजनीति में पशु फिट कैसे हो सकते हैं. पशुओं की निष्ठा समर्पण और अंतर्निहित प्रोग्रामिंग पर चलने की अनिवार्यता अगर सियासत में पैदा हो जाए तो फिर सियासत का रूप बदल सकता है.
पशु आदमखोर तो हो सकते हैं, लेकिन कमीशनखोर नहीं हो सकते. बेतहाशा संग्रह की प्रवृत्ति इंसान की होती है. इस मामले में पशुओं का कोई मुकाबला नहीं है. हर इंसान में पशुता का अंश होता है. काम, क्रोध, मद, लोभ पशुता के ही अंश हैं. सियासत और सत्ता में इस पशुता का हिस्सा लगातार बढ़ा है. जो खुद करते हैं उसी पर दूसरे को उपदेश देना बहुत आसान होता है.
खुदगर्जी का साया हमेशा साथ चलता है. सियासत की सारी माया पशुता की ही माया है. दूसरे को शासित करने का प्रयास ही सियासत है और खुद को अनुशासित करने का प्रयास धर्म है. राजनीति का कोई धर्म नहीं है. सत्ता की पशुता के लिए सतत संघर्ष उसका धर्म है. शायद इसीलिए प्रतीकों में भी पशुओं से ही तुलना स्वाभाविक स्वभाव बन गया है.
बीजेपी तो आज सत्ता में है, लेकिन कांग्रेस का तो इतिहास सत्ता का रहा है. कांग्रेस का वर्तमान गुटों और विरोधी समूहों को साधने में ही जा रहा है. कोई ऐसा राज्य नहीं है जहां मुख्यमंत्री या नेता प्रतिपक्ष और राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष के बीच में समन्वय के हालात हैं. हर राज्य में दो-तीन गुट स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं.
राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट गुट मैदान में है. हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री, स्व. वीरभद्र सिंह के परिवार के साथ टकराव के कारण ही कांग्रेस की हालत चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है. मध्य प्रदेश में तो कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, जीतू पटवारी और उमंग सिंगार के अपने-अपने गुट हैं. कर्नाटक में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के गुट है, केरल में राषट्रीय संगठन महासचिव के. सी. वेणुगोपाल और शशि थरूर गुटों के बीच टकराव साफ देखे जा सकते है.ऐसे ही हालात लगभग सभी राज्यों में है.
कांग्रेस की यही राजनीति रही है, कि एक गुट को पावर दे दो और दूसरे गुट को उसके पीछे लगा दो. एक-दूसरे की शिकवा शिकायतें चलती रहें, ताकि आला कमान को अपना वर्चस्व स्थापित करने में सहूलियत होती रहे. कांग्रेस की आज जो दुरावस्था है, उसके लिए यही तोल-मोल ज़िम्मेदार है. एमपी में सीएम कमलनाथ के ख़िलाफ़ ज्योतिरादित्य सिंधिया को हवा दी गई. संतुलन बिगड़ा और सरकार ही चली गई.
कांग्रेस में जो भी पावर में है, या पद पर है, उसके पीछे दूसरा कोई लगा हुआ है और दोनों गुटों को कांग्रेस का गांधी परिवार का समर्थन मिलता हुआ देखा जा सकता है.
जो भी पार्टी लंबे समय तक सत्ता से दूर होती है, उसमें बी टीम की समस्या शुरू हो जाती है. यह इसलिए होता है क्योंकि राजनीति के लोग धंधे व्यवसाय में लगे होते हैं, जब भी सरकार नहीं होती तो कांग्रेस के लोगों को भी अपने धंधों के लिए सरकार से मेलजोल बढ़ाना पड़ता है. धीरे-धीरे यह मेलजोल सियासी हो जाता है.
दिग्विजय सिंह की सरकार के समय बीजेपी भी फूल छाप कांग्रेस से भर गई थी. शायद इसीलिए केंद्रीय नेतृत्व ने कांग्रेस से मुकाबले के लिए फ्रेश लीडर के रूप में उमा भारती को स्टार प्रचारक बनाकर राज्य में भेजा था.
कोई राज्य नहीं है जहां कांग्रेस के लोग अपने हितों की पूर्ति के लिए वहां की सरकारों जो बीजेपी की हैं, के साथ संपर्क में नहीं हों. यहां तक कि कांग्रेस के पदधारी भी सरकारों से मिलकर ही अपना आर्थिक संकट दूर करते हैं. ऐसा नहीं है कि कांग्रेस आला कमान को इसकी जानकारी नहीं होती. कई बार तो ऐसा भी परसेप्शन बनता है, कि कुछ नेता दिल्ली में अपनी पैठ आर्थिक ताकतों से ही बनाते हैं.
सियासत की रेस में घोड़े तो अब देखने को कम ही मिलते हैं. ज़्यादातर तो गधे, खच्चर, कुत्ते और सूअर ही दिखाई पड़ते हैं.
सियासत में परिवारवाद शेर और घोड़े बनाने लगा है. भले ही रेस में उनकी लगातार हार हो, फिर भी बब्बर शेर वही रहेगा, जो परिवार से आएगा. पशुओं की जोरदार मांग है, कि कम से कम उनका नाम सियासत में ना घसीटा जाए. सियासत में तुलना से उनका मान नहीं बढ़ेगा बल्कि अपमान ही होगा. ऐसे उलटे मंत्रों से सियासत की रेस नहीं जीती जाती, बल्कि रेस के मैदान को ही खोदकर बिगाड़ दिया जाता है. अब देखना ये है, कि कांग्रेस की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा.